‘बेटी बचाओ’ अभियान के नाम पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री एक मासूम बच्ची को गोद में चिपटा कर भव्य तस्वीर जिस समय छपवा कर खुश हो रहे थे, उसी समय एक ऐसी बच्ची खबरों में थी, जिसके तीन पिता हैं? प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाली इस बच्ची के प्रमाण-पत्र में तीन ‘पिताओं’ के नाम दर्ज है? व्यवस्था के ठेकेदारों की समझ पर तरस खाने से तो तकदीर नहीं बदल सकती। इन पिताओं की महानता यह है कि इन पर बच्ची की मां का बलात्कार का आरोप था। 8 साल पहले ठेकेदार के यहां काम करने वाली डिंडोरी के निगवानी गांव की 15 साल की लड़की के गर्भ के लक्षणों से पता चला कि उसका बलात्कार हुआ था, जिसको वह डर से बता नहीं पाई। पीड़िता के पिता ने जिन तीन लोगों का नाम लिया, ठेकेदार- मल्लेसिंह, ओमप्रकाश और बसंत दास। मुकदमे के दौरान ही लड़की आरोपों से मुकर गई, क्योंकि परिवार झंझट में नहीं पड़ना चाहता था। पिताओं की महान परंपरा और पौरुषेय उद्दंडता का इससे असंवेदनशील वाकया सुना है क्या? बेटी बचाने का आह्वान करने वाले विज्ञापनों और होर्डिगों से किस क्रांति की कल्पना की जा रही है, यह तो प्रदेश का मुखिया ही बता सकता है। समूचे देश में ही औरतों की ऐसी दुर्दशा है तो किसी खास पर टेसू क्या गिरायें! बलात्कार के आरोपियों को बाप बनने का प्रमाण देने वाली मानसिकता किस घिनौनेपन और नैराश्य से निकली होगी, इसकी सड़ांध को महसूसिए। यूं सुगंधित और सजीले कमरों के गद्देदार सोफों पर धसक कर मन मत मसोसिए। कानून ने तो बच्चे को मां के नाम से जानने की स्वीकृति दे दी पर इसको जन- जन तक पहुंचाया कैसे जाए, यह भी तो जरूरी है। कानूनी अधिकारों के बारे में अभी कितनी औरतें जानती हैं? महापुरुषों और पूर्व प्रधानमंत्रियों की यादों में बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाने वाली राज्य व केन्द्र सरकारें तो औरतों की इतनी हमदर्द हैं भी नहीं कि वे विषमता हटाने वाले अधिकारों से औरतों को वाकिफ करें। ये तो वही लोग हैं, जो पुलिसिया डंडों से सड़क पर पिटती औरत को टीवी स्क्रीन पर देखकर बस दिखावे के लिए जांच का आदेश सुनाते हैं। माफ करें पर जिन राज्यों की मुखिया स्त्रियां हैं, वहां भी औरतें उसी तरह सताई जा रही हैं, जैसे बाकी देश में। क्योंकि सत्ता में आते ही, इनके भीतर का स्त्री-तत्व काफूर हो जाता है। उसको मर्दवाद अपने कब्जे में ले लेता है। पुरुष सिर्फ देह की ही परिभाषा नहीं है। यह समझने वाली बात है कि मर्दाना सोच और नियमावली विचार है, जिसका कोई भी शिकार हो सकता है। अपने शब्दों में कहूं तो यह संक्रमण है, खतरनाक किस्म का, जो औरत के समूल नाश को प्रतिबद्ध घात लगाये फिर रहा है जिससे बचाव के लिए मन से तैयार होना होगा। यह कन्या पूजन का पवित्र हफ्ता है, रस्म अदायगी के तौर पर नन्हीं बच्चियों के पांव धो माथे पर तिलक लगा कर भगवती के नाम पर उनकी स्तुति करने वाले धन्य है, जो इन्हीं देवी तुल्य बच्चियों पर अपने पौरुष का प्रहार करने से बाज नहीं आते। परिचित, पड़ोसी, दोस्त या रिश्तेदार ही बलात्कारी होता है, सुनने में थोड़ा नहीं- बहुत बुरा सा लगता है पर असलियत यही है। 58 एफआईआर/चिकित्सा रिपोटरे के अध्ययन के बाद पाया गया कि 22 मामलों में आरोपी पड़ोसी थे, 5 रिश्तेदार, जबकि 10 दोस्त। बच्चियां/औरतें कहां और कितनी सुरक्षित हैं, अब तो यह सवाल भी नहीं रहा। हम जिस समाज में जीने को मजबूर हैं, वहां औरतों के लिए कोई कोना सुरक्षित नहीं। घर, दफ्तर, सड़क, सार्वजनिक वाहन- हर जगह दरिन्दों का बोलबाला है। उधर, सरकार की नैतिक पुलिस के अनुसार लाइफस्टाइल वाले एक चैनल के बीच (समुद्र किनारे) वाले कार्यक्रम में औरतों के नितंब, कूल्हे, देह के पिछले हिस्से का उघड़ापन देख कर हैरान है। सूचना प्रसारण मंत्रालय को वक्ष की नग्नता कुछ दृश्यों में इतनी खटकी कि उसे यह स्त्री को अपमानित करने वाली लगी, जिसके खिलाफ वे गंभीर कदम उठाने की उतावली में हैं। उनको बच्ची के प्रमाण पत्र पर चस्पा तीन बाप नहीं दिख सकते, इनके नामों से किसी को जलालत नहीं होती। नग्नता को फूहड़ता से जोड़ कर शर्मिन्दगी जताने वालों के दिमागी दीवालियेपन पर कौन आंसू बहाएगा? यही है वह महान व्यवस्था जहां बेहूदी बातों के भरोसे क्रांति करने की नाटकबाजी होती रही है। औरतों की इस स्थिति को लेकर ना तो को ई धरना-प्रदर्शन होता है, ना ही कोई बहस। औरतों को भीड़ का वह हिस्सा बना दिया गया है, जिस पर हर मौसम में डिस्काउन्ट का टैग चस्पा रहता है। लाली-बिन्दी लगा लेने भर से जनानियों के घाव नहीं छिप सकते। ये घाव बहुत गहरे हो चुके हैं, इनके नासूर बनने का इंतजार करने वाले क्यों चाहेंगे कि इनका इलाज हो! औरत होना, अपने आप में जितनी गर्व की बात है, उतनी ही मुश्किल बना दी गयी हैं इसको जीने की राहें। अब भी अपनी कुल औरतों में से लगभग आधी को अक्षर ज्ञान भी नहीं है और इस तरफ अब किसी का ध्यान भी नहीं। सेंसेक्स और विकास दर पर नजरें अटकाये रखने वाले योजनाकारों और आर्थिक विशेषज्ञों के लिए ये मामूली बातें/दिक्कतें हैं। बेटियों को जन्म से पहले ही मार देना या ब्याह करके मरने के लिए छोड़ देना, रिवाज बन चुका है। जिसको अरेंज मैरिज कहते हैं, वह लड़कियों के लिए किसी जबरन ब्याह से कम नहीं होता। बेटियों को बोझ मानने वाली दकियानूस मानसिकता उनको ब्याह कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति से ज्यादा कुछ नहीं सोचती। मासूम बच्चियों को भी जिन स्थितियों में पाला जाता है, उसमें ब्याहने के लोभ से निकलना संभव नहीं होता। गरीबी या बन्धन इनको ना तो शिक्षा देते हैं, ना ही सुरक्षित भविष्य की कोई गारंटी ही। 2005 में ब्रिटिश सरकार के होम ऑफिस और फॉरेन ऑफिस ने संयुक्त रूप से जबरन ब्याह को अपराध के दायरे में लाया और 2010 में 1700 ऐसे मामले सुलझाये थे। जबरन विवाह से बचने के लिए घर से भागी जसविंदर ने 1993 में ही यूके में ‘कर्मनिर्वाण’ के नाम से चैरिटी शुरू की, जो जबरन ब्याह और इज्जत के नाम पर होने वाली हिंसा के खिलाफ था। 2008 में इनके पास 2,500 मामले आये, ये लड़कियां स्कूलों से अचानक नदारद हो गई थीं लेकिन यहां हम अपनी बच्चियों को जबरन ब्याह के नाम पर ना सिर्फ धकेल रहे हैं, बल्कि इस पर कोई बात करने से भी हिचकते हैं। एक बार शादी हो जाए तो मायके वाले पलट कर भी नहीं देखना चाहते। अभी यहीं दिल्ली के डॉक्टर ने अपनी पत्नी की हत्या कर उसका शव इलाहाबाद ले जाकर फेंका, क्योंकि उसको वह पसंद नहीं थी। विवाह के दबाव को ऐसा दमघोंटू बनाये रखने का यह ढोंग कब तक औरतों की जान लेता रहेगा? डॉक्टर को इंजीनियर पत्नी से जो भी दिक्कत रही हो, उसकी कीमत ‘जीवन’ तो नहीं हो सकती। यह अविसनीय लग सकता है पर सच है कि ‘द गार्डियन’ के अनुसार पुलिस को विास है कि यूके में साल भर में 12 ऑनर किलिंग हुइर्ं। देश भर में हुए ताजा अध्ययन में पाया कि दो साल के भीतर तीन हजार जबरन ब्याह के मामले सामने आये। ये कारनामे उन्हीं एशियाई परिवारों के हैं, जो धरोहर के नाम पर यह गंदगी अपने साथ ले जाते हैं। विकसित देश से कुछ भी ढंग का ना सीखने वाले इन स्त्री विरोधियों को ठीक करने के लिए वहां की सरकारें तो मुस्तैद हैं, पर अपने यहां अब तक यह साफ नहीं है कि परिवार की मर्जी से होने वाले संबंध और जबरन शादी करने के बीच कै से फर्क किया जाए? पढ़े-लिखे, समझदार भी इसी तरह अपनी मर्जी बच्चों पर थोपने की कला में माहिर हैं, जिसका खामियाजा सिर्फ लड़कियां चुकाती हैं।
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