एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा अपनी पत्नी की निर्मम हत्या बेशक इस तरह की पहली घटना नहीं है। लेकिन लगातार ऐसी संवेदनशून्यता परिवार और समाज के लिए चिंता का विषय तो है ही। इस समाज में ऐसे भी अभागे बच्चे होंगे, जिन्होंने अपनी मां को पिता के हाथों मरते देखा होगा। मां की ममता से वंचित कर दिए गए ऐसे बच्चे शायद ही इस सदमे से कभी मुक्त हो सकें।
अपने लिए तमाम तरह की आजादी चाहने वाले पुरुष की दृष्टि में स्त्री का किसी और से संबंध होना इतना बड़ा अपराध है कि वह उसके जीवन को ही खत्म कर दे सकता है। यह जंगल न्याय ही है, क्योंकि शक्ति संतुलन पुरुष के पक्ष में है। यह तथ्य स्त्री को दूसरे दरजे का नागरिक बना देता है।
ऐसी हत्याओं के बीज समाज की संरचना में ही छिपे हैं, चाहे वह भ्रूण हत्या हो, पिता या भाई के हाथों ‘ऑनर किलिंग’ हो, दहेज हत्या हो, बलात्कार हो अथवा विवादित स्त्री के अवैध संबंधों के कारण हुई हत्या हो। इससे पहले कि यह चुप्पी इन हत्याओं की मौन स्वीकृति बन जाए, इसे तोड़ना जरूरी है। सवाल स्त्री के विवाहेतर संबंधों को समर्थन देने या न देने का नहीं है। सवाल यह है कि इसी मामले में पुरुष अपने लिए अलग मापदंड क्यों रखता है। समाज विवाहेतर संबंधों की तसदीक नहीं करता, लेकिन क्या दूसरी स्त्रियों से संबंधों के कारण किसी पुरुष को कभी जलील होना पड़ता है? फिर कोई विवाहित स्त्री अगर किसी दूसरे पुरुष के प्रति भावुक या संवेदनशील हो जाए, तो पुरुषवर्चस्ववादी समाज कानून अपने हाथ में क्यों ले लेता है?
सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि यदि स्त्री भी शारीरिक-सामाजिक रूप से पुरुष जितनी ही मजबूत होती, तो अपनी ओर उठते हाथों को मोड़ने की ताकत वह रखती। साफ है, इस सामाजिक अन्याय के लिए पुरुष और स्त्री के बीच का प्राकृतिक शक्ति असंतुलन ही जिम्मेदार है। इसी कारण सैकड़ों वर्षों से स्त्री पुरुषों का अत्याचार चुपचाप सहन करती आ रही है।
ऐसी घटनाएं स्त्री में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करती हैं। जब स्त्री ऐसी असुरक्षा के साथ जिएगी, तो उस परिवार का वातावरण कैसा होगा, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं। जिस देश की स्त्रियां इतनी असहाय होंगी, उस देश का भविष्य क्या होगा? यह विडंबना ही है कि सृष्टि की संरक्षिका और जन्मदात्री स्त्री की हत्या इस काबिल भी नहीं कि वह समाज के लिए चिंता और चर्चा का विषय बन सके, भर्त्सना की तो बात ही छोड़ दें।
हर रिश्ते में आजादी चाहने वाले पुरुष को आधी आबादी की आजादी के बारे में भी सोचना होगा। ऐसी सामाजिक चेतना की जरूरत है, जिसमें औरतों के लिए भी संवेदना हो। महिला संगठनों को इस दिशा में सचेत-सक्रिय होना होगा। पहले कहा जाता था कि पुलिस-प्रशासन और राजनीति में महिलाओं की पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं है। आज ऐसी बात नहीं है। प्रशासन से लेकर राजनीति तक में महिलाएं चोटी पर पहुंच गई हैं। इसके बावजूद औरतों पर अत्याचार बदस्तूर जारी है। इसकी वजह दरअसल चोटी पर पहुंची उन महिलाओं का वैचारिक पिछड़ापन और पुरुषों की वैचारिक छाया में रहना है। उन्हें अपनी यह छवि तोड़नी होगी। ऐसी ही सोच महिलाओं को एक मां के रूप में अपने पुत्र में विकसित करनी होगी, ताकि वह स्वस्थ सोच के साथ बढ़े।
विवाहेतर संबंधों को भी आज के सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखना उचित होगा। सबसे पहले तो यह समझ लेना होगा कि ऐसे मामले आपराधिक नहीं हैं, क्योंकि विवाह एक सामाजिक समझौता है, पति-पत्नी के आपसी विश्वास का समझौता। प्रेम और आवश्यकता इसकी दो अनिवार्य शर्तें हैं। साथ रहते हुए मन में प्रेम नहीं पनप पाया, तो समझना चाहिए कि समझौते की नींव हिली हुई है और वह सिर्फ आवश्यकता की दीवार पर टिकी है। इस स्थिति के लिए मौजूदा कॉरपोरेट कल्चर भी जिम्मेदार है, जिसमें पुरुष और स्त्री साथ-साथ काम करते हैं। पश्चिम में तो यह स्थिति पहले से ही थी, अब भूमंडलीकरण के कारण यहां भी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं। लिहाजा ऐसी स्थिति में पति-पत्नी, दोनों को एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसे घर में ही सुलझाना होगा। तथ्य यह है कि दुनिया की कोई भी वैवाहिक व्यवस्था, चाहे वह कितनी भी सुदृढ़ क्यों न हो, इन्हें रोक नहीं पाई है। लिहाजा इसके समाधान परिवार अथवा कानून की परिधि में तलाशना ही उचित है।
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