अपने देश में घरेलू महिलाओं को आर्थिक गतिविधि वाले पेशे में शमिल किया जाए या नहीं, इस मुद्दे पर गहरा विरोधाभास है। भारतीय समाज आज भी नारी को जिस रूप में देखता है, उस पर कई सवाल उठ रहे हैं। एक प्रमुख सवाल है कि क्या घरेलू महिलाओं को गैर आर्थिक श्रेणी में रखना उचित है। इसको लेकर इन दिनों राज्य की आलोचना हो रही है। यों तो जनगणना 2011 के फॉर्म में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। मसलन, पहली मर्तबा ट्रांस जेंडर लोगों के लिए अलग श्रेणी बनाई गई है। वेश्याओं को 2001 की जनगणना में गैर-कामगार श्रेणी में रखा गया था, लेकिन इस बार उन्हें इस श्रेणी से बाहर निकालकर, उनके लिए दूसरे नाम से एक अलग कॉलम बनाया गया है। मगर घरेलू महिलाएं इस बार भी हमेशा की तरह गैर-कामगार श्रेणी में ही हैं। उनकी गिनती कैदियों व भिखारियों के समकक्ष होगी, जो गैर आर्थिक गतिविधि वाले पेशे में शुमार किए जाते हैं।
गौरतलब है कि 2001 में भी घरेलू महिलाओं को कैदियों, भिखारियों व वेश्याओं के समकक्ष मानते हुए उन्हें गैर-कामगार श्रेणी के दायरे में ही रखा गया था। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ सेंसॅस के मुताबिक, वे आर्थिक रूप से उत्पादक कार्य नहीं करती हैं। जबकि इस सरकारी सोच को इवेंजेलिकल सोशल एक्शन फोरम और हेल्थ ब्रिज नामक संस्था द्वारा कराया गया अध्ययन झुठलाता है। इस अघ्ययन में देश में करीब 36 करोड़ घरेलू महिलाओं के कार्यों की सालाना कीमत 612 अरब आंकी गई है। घरेलू काम को ‘केयर इकोनामी’ के दायरे से बाहर रखने की प्रवृत्ति के चलते घरेलू महिलाओं के घर चलाने में किए गए परोक्ष आर्थिक योगदान को न तो कभी खुले दिल से सराहा गया और न ही कभी उसकी कीमत सरकारी व्यवस्था ने समझी। घरेलू महिलाएं भोजन बनाती हैं, बच्चे पालती हैं, उन्हें पढ़ाती हैं, बुजुर्गों की सेवा करती हैं, बाजार से सामान खरीदती हैं। महंगाई के दौर में सीमित बजट में घर चलाने से लेकर परिवार को एक साथ बांधे रखने का दायित्व भी उन्हीं के कंधों पर होता है। मगर अनगिनत कार्यों की सूची के बावजूद समाज व राज्य की नजर में उनके श्रम की कोई कीमत नहीं है। राज्य की नजर में ऐसे घरेलू काम करनेवाली महिलाएं खांटी घरेलू औरत है, जिनके कठिन श्रम की आर्थिक कीमत आंकने की जरूरत नहीं समझा जाता। राज्य का मानना है कि यह सब करना तो उसका पारिवारिक दायित्व है।
परिवार नामक संस्था के कट्टर समर्थकों की राय में अमेरिका, इंगलैंड, कनाडा, जर्मनी, डेनमार्क जैसे मुल्कों में परिवार नामक संस्था मोटे तौर पर टूट चुकी है, मगर अपने देश में आज भी यह संस्था महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज का केंद्र बिंदु परिवार ही है और उसकी धुरी औरत है। समाज उसके घरेलू कामकाज को उसके दायित्व के दायरे में बांधकर उसका आर्थिक मूल्यांकन नहीं करता, तो जनगणना विभाग भी इस संदर्भ में घरेलू महिलाओं के साथ भेदभाव का रवैया ही अपनाता है। सही है कि पत्नी और मां एक कर्मचारी की तरह घर में निश्चित घंटों के लिए काम नहीं करती हैं, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि उन्हें भिखारियों और कैदियों वाली गैर-कामगार श्रेणी में रख दिया जाए।
घरेलू महिलाओं के वित्तीय योगदान के प्रति संकीर्ण नजरिया हमारे समाज की पुरानी परंपरा रही है। आर्थिक विकास की तुलना में स्त्रियों के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रहों के बदलने की रफ्तार बहुत धीमी है। पिछले दिनों दिल्ली की एक अदालत में जज स्वर्ण कांता शर्मा ने एक मामले की सुनवाई के दौरान जो कहा, उसका जिक्र यहां प्रासंगिक है-‘अकसर एक परिवार में आर्थिक योगदान में औरत के हिस्से को उसके जिंदा रहते पहचानने से इनकार कर दिया जाता है, लेकिन अपने फैसले में मैं ऐसा नहीं करूंगी।’
ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरी राज्य के घरेलू महिलाओं के प्रति नजरिये में बदलाव लाना है। घरेलू औरतों के श्रम की कीमत लगाने और उन्हें आर्थिक गतिविधि वाले पेशे में शमिल करने का मतलब राज्य द्वारा परिवार और समाज में उनको आर्थिक स्वीकृति देना होगा, जिसकी वे हकदार हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 जनगणना विभाग को घरेलू महिलाओं को गैर-कामगार की श्रेणी में रखने के मुद्दे पर फटकार भी लगाई थी। मगर जनगणना विभाग ने इस बार भी गैर कामगार श्रेणी में रखकर देश की लगभग 36 करोड़ महिलाओं को निराश ही किया है।
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