यों तो किसी भी विशिष्ट शिक्षा, तकनीक अथवा ज्ञान का अपना कोई लिंग पूर्वाग्रह नहीं होता और न ही उसे इस प्रकार की श्रेणियों में विभाजित करके देखा ही जाना चाहिए। डॉक्टर, वैज्ञानिक, शिक्षक, मजदूर आदि सभी अपने पेशे से जुड़े व्यक्ति होते हंै। इन सभी व्यक्तियों के ज्ञान और हुनर तथा विशिष्ट प्रकार का प्रशिक्षण उन्हें अलग पहचा दिलाता है। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि लोग अपनी क्षमता और रुचि के आधार पर अपना पेशा चुनें, लेकिन यह सारी स्थितियां समाज सापेक्ष होती हंै। यानी पूरे समाज में यदि लिंग विभेद है और सभी को समान अवसर उपलब्ध नही हंै तो उसका प्रतिबिंबन इस कौशल आधारित पेशे में भी दिखेगा ही। इसका उदाहरण विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति का भी है। हाल के वर्षो में विज्ञान के क्षेत्र में उनकी संख्या तथा जो वैज्ञानिक हंै उनकी भी स्थिति या क्षेत्रा छोड़कर बाहर हो जाना एक चिंता का विषय बना है। इसीलिए भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने भी पहल ली है और घोषणा की है कि आगामी विज्ञान का 99वां सत्र महिलाओं को समर्पित होगा। इसे ध्यान में रखते हुए अगले सत्र के लिए डॉक्टर गीता बाली को अध्यक्ष चुना गया है। डॉ. बाली ने चिंता व्यक्त की है कि विज्ञान की मुख्य धारा से जुड़ने में छात्रों की संख्या में कमी आ रही है। इससे मौलिक शोध कामों पर असर पड़ रहा है। छात्रों को वैज्ञानिक शोध के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इस तरह की उदासीनता लड़के-लड़कियों दोनों में पाई जाती है। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने कई तरह के सुझाव भारत सरकार को दिए हंै। विज्ञान की एक शोधार्थी डी. बाला सुब्रमण्यम ने लिखा है कि हाल के कुछ वर्षो में पचास से अधिक यूनिवर्सिटी तथा इंस्टीट्यूट्स खुले हंै जो विज्ञान एवं तकनीक के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च शिक्षा एवं शोध को बढ़ावा देने के लिए हैं। काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्टि्रयल रिसर्च ने दर्जनों नए निदेशक नियुक्त किए हैं तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 15 उप कुलपति नियुक्त किए हंै। आंधप्रदेश सरकार ने भी पांच नियुक्तियां की है। इसमें महिलाओं की संख्या एकाध ही है। वे करेंट साइंस नामक एक पत्रिका का हवाला देती है जिसमें 2004 से 2008 के बीच आइसीएसआर ने जीव विज्ञान के क्षेत्र में जो अनुदान दिए हैं उसका विश्लेषण छपा है। इसके अनुसार इस ग्रांट को पाने में महिलाओं का प्रतिशत 43 तथा पुरुषों का 39 है। यह गौर करने लायक बात है कि ग्रांट पाने में सफल महिलाएं अधिकतर युनिवर्सिटी से थीं जबकि शोध संस्थान से नहीं के बराबर थीं। यानी राष्ट्रीय स्तर के शोध संस्थान भी अपने यहां संख्या में लिंग समानता कायम नहीं कर सके हैं। दिल्ली, मुंबई, बेंगलूर जैसे कुछ महानगरों में कुछ महिलाएं जरूर आगे हैं, लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में महिलाएं पूरी तरह उपेक्षित हंै। एक दूसरे शोध पत्र के माध्यम से यह भी बताया गया है कि यह काम छोड़ देने का मुख्य कारण परिवार या घर की जिम्मेदारियां नहीं है, बल्कि अवसरों का अभाव इसका मुख्य कारण है। जो मौका पा जाती हैं उनमें से अधिकतर घर और बाहर के काम में संतुलन बना लेती हंै। विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए गंभीर प्रयास की आवश्यकता है। एक अच्छी बात यह है कि इस समस्या की तरफ अब ध्यान जाने लगा है। विज्ञान में लड़कियो की रुचि बढ़ाने के लिए कुछ योजनाएं भी शुरू की गई हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर विज्ञान को बढ़ावा देने वाला वातावरण तैयार हो इसके लिए बहुस्तरीय प्रयास जरूरी है। स्कूली शिक्षा के स्तर पर प्रयोगशालाओं का नितांत अभाव है। सरकारी स्कूलों में तो इन सुविधाओं तथा शिक्षक दोनों की कमी है। प्राइवेट स्कूलों में भी यह उपेक्षित क्षेत्र है। इन स्कूलों में सबसे कम खर्च इसी पर होता है। अक्सर बच्चों को प्रयोगशालाओं में जाने के लिए पे्ररित ही नहीं किया जाता है और न ही उन्हें प्रयोग के उपकरण आदि उपलब्ध कराए जाते हैं। यदि इस शुरुआती दौर में ही उन्हें प्रेरित नहीं किया गया और उनकी रुचि विकसित करने की कोशिश नही की गई तो वे बड़े होकर अध्ययन के दूसरे क्षेत्र चुन लेते हंै। कुछ समय पहले इंडियन अकेडमी ऑफ साइंस ने 98 महिला वैज्ञानिकों के जीवनवृत्त पर आधारित एक किताब लीलावतीज डॉटर्स: द वूमेन साइंटिस्ट ऑफ इंडिया प्रकाशित की थी। भारत की प्रथम महिला डॉक्टर आनंदी जोशी से लेकर वर्तमान में विज्ञान के क्षेत्र में झंडा गाड़ने वाली तमाम स्ति्रयों की इसमें चर्चा थी। किताब के बहाने 12वीं सदी के महान खगोल विज्ञानी आर्यभट्ट की विख्यात गणितज्ञ बेटी लीलावती को याद किया गया था। उस वक्त भी यह प्रश्न उठा था कि आजादी के साठ सालों के बाद विज्ञान के क्षेत्र में आज भी पुरुषों का ही क्यों बोलबाला है? उसी वक्त महिला वैज्ञानिकों की स्थिति पर तीन साल तक चले एक अध्ययन से इन पहलुओं पर रोशनी पड़ी थी। इस रिपोर्ट ने भी हमारे समाज में बनी इस धारणा को खारिज किया कि महिलाएं पारिवारिक दबाव तथा जिम्मेदारियों के कारण नौकरियों में नहीं आ पाती हैं या उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है। शिक्षण संस्थानों तथा विभिन्न फर्मो में पूर्वाग्रह इतने जबरदस्त होते हंै कि वे उन्हें अवसर ही नहीं देते हंै। विज्ञान को लेकर ऐसा समझा जाता है कि लड़कियों की इसमें रुचि कम होती है। सर्वेक्षण के अंतर्गत 30 से 60 साल के उम्र की 1985 महिलाओं, जिन्होंने विज्ञान, इंजीनियरिंग तथा मेडिसिन में पीएचडी की थी उनसे बात की गई थी। सर्वेक्षण में 568 महिला वैज्ञानिकों के अलावा 181 शोधरत पुरुष वैज्ञानिक से भी बात की गई। इसके अलावा अध्यापक, प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं से भी संपर्क किया गया। पीएचडी कर चुकी बेरोजगार महिला वैज्ञानिकों में से 66.7 फीसदी ने बताया कि उन्हें रोजगार मिला ही नही। सिर्फ 3.3 फीसदी ने कहा कि वह अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण नौकरी नहीं कर सकीं। 85 फीसदी ने कहा कि वे अपने काम और परिवार में आसानी से तालमेल बिठा लेती हंै। उन्होंने यह भी बताया कि बच्चे पैदा करने के बावजूद भी अपनी पढ़ाई तथा रिसर्च के काम को ठीक से पूरा किया। यहां तक कि शोध कर रही 13 फीसदी महिलाओं ने शादी नहीं करने का फैसला लिया था, जबकि सिर्फ तीन फीसदी पुरुष अविवाहित थे। इतनी बड़ी संख्या में महिला वैज्ञानिकों को रोजगार नही मिल पाना लिंग भेदभाव तथा गैर बराबरी के व्यवहार की तरफ साफ संकेत करता है। इससे यह भी साबित हुआ कि नियुक्तियों में कैसे धांधली की जाती है। ध्यान देने लायक बात यह है कि महिला वैज्ञानिकों के साथ चल रहे संस्थागत भेदभाव का मसला भारत तक ही सीमित नहीं है। विभिन्न देशों में इस बात के खुलासे के बाद कि शोध क्षेत्र में कैरियर बना पाने में स्ति्रयों को दिक्कतें पेश आती हैं, वे अब रिसर्च फंडिंग के जेंडर आयाम और उसके जेंडर गति विज्ञान पर भी जोर देने लगे हैं। यूरोपीय कमीशन ने कुछ समय पहले इस मसले को लेकर कुछ अध्ययन भी किए थे- द जेंडर चैलेंज इन रिसर्च फंडिंग और वूमेन इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी क्रिएटिंग सस्टेनेबल कैरिअर्स। इससे इस तथ्य का खुलासा हुआ कि किस तरह रिसर्च संबंधी निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की उपस्थिति नाममात्र की होती है। इस कारण से रिसर्च एजेंडा तय करने में भी वह हाशिए पर रहती हैं।
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