Wednesday, February 23, 2011

घरेलू अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनीं महिलाएं


जिले के आठ ब्लाक में सैकड़ों अनपढ़ ग्रामीण महिलाएं अपने-अपने परिवार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गई हैं। पति की बेकारी अथवा बेहद कम कमाई के कारण एक-एक निवाले के लिए संघर्ष करने वाली सैकड़ों महिलाएं अब अपने परिवार के लिए निवाले जुटा रही हैं। मजे की बात तो यह है कि ये वे स्वयं सहायता समूह हैं जिन्हें शुरू में सरकारी मदद मिली लेकिन बाद में इनकी गतिविधियां ठप हो गई। अब ये समूह अपने बलबूते आगे का सफर तय कर रहे हैं।
सुसुप्तावस्था में पड़े इन समूहों में गायत्री परिवार रचनात्मक ट्रस्ट ने पुन: नई जान फूंकी। थोड़े से मार्गदर्शन और प्रशिक्षण ने उनमें आत्मनिर्भर होने की चाह फिर से पैदा कर दी। अपनी मेहनत और लगन के बूते सैकड़ों स्वयं सहायता समूहों से जुड़ कर हजारों महिलाएं कामयाबी की नई इबारत खामोशी से लिख रही हैं। मौजूदा समय में जिले के सभी आठ ब्लाकों में 35 से 40 महिला स्वयं सहायता समूह ट्रस्ट की देखरेख में संचालित किए जा रहे हैं। ट्रस्टी गंगाधर उपाध्याय के अनुसार इन महिलाओं को अगरबत्ती, मोमबत्ती बनाने, पूजन सामग्री का पैकेट तैयार करने, माला गूंथने जैसे कार्यों का प्रशिक्षण दिया गया। इनके द्वारा तैयार उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने की व्यवस्था भी अधिकतर समूहों ने संभाल ली है। प्रत्येक ब्लाक में बेरोजगार युवाओं को जोड़ कर 10-10 स्वयं सहायता समूह गठित करने का कार्य भी जारी है। एक हजार से अधिक महिला स्वयं सहायता समूहों को सरकारी सहायता भी प्राप्त है।
कानूडीह के राजभर बस्ती की सरिता। बस्ती के सभी सदस्य कच्ची दारू से आजीविका कमाते थे। सात साल पहले सरिता ने पांच महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूह बनाया। अब सरिता तो आत्मनिर्भर है ही 150 से अधिक समूहों के जरिए सैकड़ों महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बना दिया।
बेलवरिया की अनीता पटेल। किसी दिन घर में चूल्हा जलता तो कभी पानी पीकर ही रात गुजरती थी। चार वर्ष पूर्व स्वयं सहायता समूह की रोशनी उनके जीवन में आई। मेहनत के बल पर अनीता अपने परिवार के लिए जीविका जुटाने के साथ ही 37 अन्य समूहों का संचालन भी कर रही है।
लोढ़नपुर की सुमन हरिजन। गांव वालों के लिए कर्मठता की मिसाल बन चुकी है। चार वर्ष पूर्व स्वयं सहायता समूह के जरिए आर्थिक उन्नति के मार्ग पर बढ़ीं। उस मार्ग पर अब वह मील के कई पत्थर गाड़ चुकी है। 35 समूह संचालित करने वाली सुमन ने खुद एक एनजीओ बना लिया है।

सुटेबल दब्बूपन


औरतों को घर से निकलना इतना डरावना क्यों लगता है? यह डर कैसे खत्म हो सकता है? डराने वालों का क्या किया जाए? इस पर कभी कोई बहस नहीं सुनी हो गी आपने। डर तो पुरुषों से है। पुरुषों की रची गई व्यवस्था है। ये वही पुरुष हैं, जिनको डरी हुई औरत अच्छी लगती है। वे भूल जाते हैं कि जो घर में डरी/सहमी रहती है, वह बाहर दबंगई कैसे दिखा सकती है
औरतों का दब्बूपन पुरुषों को बड़ा भाता है। वे डरी, सहमी औरत को आइडियलमानते हैं। उनकी तारीफ में कशीदे काढ़ते हैं और तेजतर्रार लड़कियों को बुरा बताकर खुश हो लेते हैं। इस बीच कई तरह के सव्रे आये, जिनमें से लगभग सब का कहना है कि औरतें समाज में खुद को असुरक्षित पाती हैं। उनको घर से बाहर अकेले निकलने में डर लगता है। सार्वजनिक वाहनों में उनके साथ पुरुष छेड़छाड़ करते हैं। रास्ते में चलते हुए पुरुषों की जुबान से निकली घिनौनी भाषा उनके कानों में पड़ना आम बात है। सव्रे करने वालों का काम यहीं खत्म हो जाता है। लेकिन इसके बाद किसको क्या करना है, यह किसी को नहीं मालूम। औरतों को घर से निकलना इतना डरावना क्यों लगता है? यह डर कैसे खत्म हो सकता है? डराने वालों का क्या किया जाए? इस पर कभी कोई बहस नहीं सुनी होगी आपने। डर तो पुरुषों से है। पुरुषों की रची गई व्यवस्था है। ये वही पुरुष हैं, जिनको डरी हुई औरत अच्छी लगती है। वे भूल जाते हैं कि जो घर में डरी/सहमी रहती है, वह बाहर दबंगई कैसे दिखा सकती है। पहले घर की औरत/लड़की के भीतर हिम्मत भरिए। पहले उसको साहस का पाठ पढ़ाइए, फिर उससे उम्मीद करिए कि अपने प्रति हो रहे अपराधों के खिलाफ मुंह खोले। किसी इंटरटेंमेंट चैनल पर यह देख कर मैं भौचक रह गयी, जिसमें एक सीन में चाची/बुआ टाइप की कोई कैरेक्टर एक लड़की से सच उगलवाने के लिए उसके बाल पकड़ कर पानी से भरे टब में उसका मुंह डुबो रही थी। उसके इर्द-गिर्द परिवार के ढेर सारे सदस्य अपने मेक-अप पुते चेहरों के साथ बिना किसी एक्सप्रेशन के खड़े थे। इस तरह के तमाम सीरियल मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहे हैं, जिनको लोग खूब मजे लेकर देखते हैं। मैं निश्चित रूप से यह कह सकती हूं कि ये सब वही लोग हैं, जिनको औरतों को सताना, उनको रोते-बिसुरते देखने की आदत इतने गहरे है। जो औरतें घर में ही सताई जा रही हैं, जिनको सांस लेने तक के लिए मुंह तकना पड़ता है, उनसे यह उम्मीद करना भी हास्यास्पद है कि वे रास्ते में होने वाली उद्दंडताओं का करारा जवाब देने का साहस कर सकती हैं। करारा जवाब देने के लिए हिम्मत होनी चाहिए, आत्मविश्वास होना चाहिए। भीतर से खुद को कमजोर मान कर अपराध सहते रहने की झिझक से बाहर निकलना चाहिए। जिस संकोच और शर्मीलेपन को अपने खांटी समाज में लड़की का गहना बता कर प्रचारित किया जाता रहा है, वही आज उसके गले की हड् डी बनता जा रहा है। ये जो हर घंटे एक नवविवाहिता दहेज लोभियों की कृपा से जिन्दा जला कर मार दी जाती है, ये सब कौन हैं? जी हां, ये लड़कियां भी वही हैं, जिनको लज्जा के गहनों से लादा है आप सबने। उद्दंडता और उपद्रवी होने की सलाह नहीं दे रही मैं, पर इतना तो समझिए कि लड़कियों का दब्बूपन उनके लिए जानलेवा साबित होता है। जो लड़कियां पति के र्दुव्‍यवहार के खिलाफ जुबान हिलाने से र्थराती हैं, उनसे यह उम्मीद करना कि वे दफ्तरों में अपने बॉस की ओछी हरकतों के खिलाफ एक लफ्ज भी बोलेंगी, संभव ही नहीं। साहसकोई वेंटिलेटर नहीं होता, जिसे जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जाता रहे। साहस जन्मजात होता है, जिसको सामाजिक/पारिवारिक परिवेश में डेवलप किया जाता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब दिल्ली की मेट्रो में औरतों के लिए अलग कोच आरक्षित किये गये थे। ढेरों पुरुषों का ईगो हर्ट हो गया। कुछ उपद्रवी तो तैश में आकर आरक्षित कोच को कब्जाने की चाह में भीतर भी घुस आये पर लड़कियों/औरतों ने उनकी जमकर इतनी पिटाई की कि वे कुछ सोचने लायक ही नहीं रहे। लड़के सिर्फ तभी तक इस तरह की हरकतें कर सकते हैं, जब तक लड़कियां पलट कर वार नहीं कर रहीं। जिस दिन वे मान लेंगी कि अब इनका एक भी ताना नहीं सुनना, उस दिन स्थिति खुद-ब-खुद बदल जाएगी। बता रहे हैं कि इस वैलेंटाइन डे पर शादी का आवेदन करने वाले जोड़ों में से कई गुना ज्यादा वे जोड़े थे, जो इच्छा से एक-दूसरे से अलग हो जाना चाहते थे। प्यार के खिलाफ झंडा फहराने वालों को तो यह मन ही मन बहुत भला सा लगेगा। पर सच तो यही है कि रोज-रोज की किच-किच से तो अच्छा ही है, प्रेम के साथ अलग हो जाना। साथ ना रहने का मतलब यह भी नहीं कि एक-दूसरे के दुश्मन बन जाएं। ये बदलाव सोसाइटी को अखरना लाजमी है, क्योंकि ऐ से सकारात्मक कदम औरतों की ही हिम्मत से उठते हैं। वे संबंधों में दुश्मनी नहीं निकाला करतीं, जैसा पुरुष करते आये हैं। वे बुरे से बुरे रिश्ते को झेलती रही हैं, पर अब उनका बढ़ता आत्मविश्वास, हर स्थिति के लिए उन्हें मजबूत कर रहा है। वे अपनी सारी ऊर्जा ब्याह के गठबंधन को ही बचाने के लिए नहीं जाया करती रहना चाहती। ऊर्जा के सकारात्मक उपयोग के लिए जरूरी है , निगेटिविटी से छुटकारा पाना और यह छुटकारा कोई और तो देगा नहीं, इसलिए कदम खुद ही बढ़ाने होंगे। सबक के तौर पर याद रखने लिए अभी-अभी आई एक खबर औरतों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। 53 साल के बेटे के खिलाफ एक मां ने गवाही दे कर उसके अपराधी होने का सबूत दिया। 15 जुलाई 2008 को उसके दो बेटों सुभाष और राजेन्दर के बीच झगड़ा हो गया। सुभाष ने राजेन्दर को ऐसा धक्का दिया कि उसका सिर सीढ़ियों से टकरा गया। मां के बीच-बचाव की कोशिशों के बावजूद सुभाष ने ईट से उसका सिर फोड़ा और भाग गया। यह उस बूढ़ी मां के साहस की मिसाल है, जिसने एक बेटा तो पहले ही खो दिया था और दूसरे के खिलाफ की गवाही न देकर उसको उम्र कैद होते देख रही है। यदि वह भी ममतालू होकर, टेसू बहाती बैठी रह जाती तो अपराध को साबित करना इतना आसान ना होता। यह सब कैसे संभव हुआ, इसके लिए उस मां को जरूर समझना चाहिए। क्योंकि वह आज के जमाने की जीती-जागती मदर इंडिया
है, जिस पर भले ही कोई उपन्यास ना लिखे, फिल्म ना बनाये पर उसने जो लाइन खींची है, उसके आगे ममता की तमाम लकीरें बौनी हो चुकी हैं। हम उसी समाज में उस मां को देख रहे हैं, जहां इज्जत के नाम पर बेटियों को मार डालने वाले पतियों और बेटों के पक्ष में बोलने वाली मांओं की मजबूरी अकसर उनके चेहरे से टपकते देखते हैं। यह उन औरतों का संकोच है, भय है। जो उनको निष्पक्ष होकर सोचने भी नहीं देता। जो उनकी ममता पर सिर्फ बेटे की मां होने का लेमिनेशन कर देता है। यह डर इतना निष्ठुर और नीरस होता है कि इनकी ममता अपनी कोख जायी बेटी को जीने भी नहीं दे सकता। ऐसे भय से मुक्ति की तो कोई र्चचा ही नहीं होती। जो औरत के पूरे चरित्र को संदेहास्पद बना देता है, जिसकी मसखरी करने वाला हर मर्द कमजोरी कहता फिरता है। औरतों की तथाकथित कमजोरियों को ही यदि प्रयास करके हथियार बना दिया जाए तो तय रूप में यह सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। उसको कमजोर बताकर, उसकी निर्ण य क्षमता पर उं गली उठाकर, उसको सुबह-शाम दयनीयता की याद दिला कर ही मर्दवादी सत्ता ने उस पर शासन किया है। जिस दिन औरतों को अपने दब्बूपन का अहसास हो जाएगा, उस दिन ऑटोमेटिक तमाम अपराधों के खिलाफ वे एकजुट हो जाएंगी। सहना, बर्दाश्त करना, चुप रह जाना तब मुहावरे रह जाएंगे। सच तो यह है कि जीवन तभी सुखकर और मधुर हो सकता है, जब औरतों पर होने वाले भावनात्मक अतिक्रमण को तिलांजलि दे दी जाए। इसके लिए प्रयास पुरुषों को ही करने हैं, यदि वे नहीं करेंगे तो वह दिन दूर नहीं, जब औरतें गद्दाफी/हो स्नी मुबारक की तर्ज पर उनको दर-ब-दर करने को मजबूर हो जाएंगी!

Saturday, February 19, 2011

महिला उत्पीड़न पर तुरंत कार्रवाई करें अफसर


मुख्यमंत्री मायावती ने शुक्रवार को छत्रपतिशाहूजी महाराज नगर, रायबरेली और प्रतापगढ़ जिले में विकास कार्यो का निरीक्षण करने के साथ ही अधिकारियों को हिदायत भी दी। छत्रपतिशाहूजी महाराज नगर में जहां उन्होंने ऑल इज वेल कहते हुए कैबिनेट सचिव को निर्देश दिया कि जिला स्थापित होने के लिए शासन में लंबित औपचारिकताएं तत्काल निपटाकर भवन निर्माण के लिए पर्याप्त धनराशि अवमुक्त कराएं, वहीं रायबरेली में कहा कि महिला उत्पीड़न के मामलों में कतई ढिलाई न बरती जाए। प्रतापगढ़ में जगह-जगह खामी देख अधिकारियों को फटकार लगाई। रायबरेली में महिला उत्पीड़न के दस मामले लंबित होने पर मुख्यमंत्री मायावती बोलीं, महिला उत्पीड़न के मामलों में कतई ढिलाई न बरती जाए। पीडि़त महिला का 164 के बयान करायें जाएं, ताकि दूध का दूध पानी का पानी हो जाए। देरी होने से सरकार की बदनामी होती है, साथ ही पुलिस की भी छवि खराब होती है। यहां दो घंटे के भ्रमण में उन्होंने अंबेडकर गांव जिला अस्पताल, शहर कोतवाली, सदर तहसील एवं कांशीराम आवास योजना का निरीक्षण किया। इसमें मुख्यमंत्री को तहसील से जुड़े मामलों के निस्तारण में देरी मिली तो उन्होंने कड़ी नाराजगी जताई। मुख्यमंत्री सबसे पहले हेलीकॉप्टर से रायबरेली के रोहनियां विकासखंड के अंबेडकर गांव चक भीरा पहुंची। वहां उन्होंने विकास कार्यो का निरीक्षण किया। यहां पर पट्टा आवंटन की जानकारी लेने पर एसडीएम ने बताया कि 75 फीसदी लोगों को पट्टे दे दिए गए हैं। मुख्यमंत्री यह सुनते ही बोलीं सौ फीसदी लोगों को क्यों नहीं मिले। इसमें देरी क्यों? इस सवाल पर अफसर मौन रहे। वहां से चलकर मुख्यमंत्री पुलिस लाइन में उतरी और कार से जिला अस्पताल पहुंची यहां पर मरीजों का हालचाल पूछा कि दवा आदि मिल रही है। सभी ने हां में जवाब दिया। मुख्यमंत्री ने सीएमएस से कहा कि जिस तरह की यहां पर सफाई व्यवस्था है, उसे बनाए रखें और गरीबों को दवा मिलने में कोई दिक्कत न हो। शहर कोतवाली के निरीक्षण में उन्होंने एससी-एसटी का रजिस्टर मांगा, वह मिलने में काफी विलंब हुआ। बोलीं न्यायालय के जरिए शिकायतों का दर्ज होना ठीक नहीं है। दलित उत्पीड़न के मामलों को अफसर गंभीरता से लें और निष्पक्षता से जांच करें। यहां से वह हेलीकाप्टर से कांशीराम आवास योजना का निरीक्षण करने पहुंची और खोर में महिला से पूछा कि बताओ कालोनी में पानी आता है या नहीं? महिला ने हां में जवाब दिया, फिर कैबिनेट सचिव एवं डीएम को निर्देश दिया कि तीनों कालोनियों के बीच में एक ही स्थान पर स्कूल, बाजार व पार्क आदि सारी व्यवस्था की जाए। पूरे परिसर का पैदल भ्रमण करने के बाद वह लखनऊ चली गई। इसके पहले मुख्यमंत्री छत्रपति नगर में बहादुरपुर ब्लॉक के अंबेडकर गांव चक दहिरामऊ पहुंची। प्राथमिक स्कूल में तहसील के अभिलेख देखे और बच्चों से बात की। मुख्यमंत्री ने जनपद स्थापित करने के बारे में जानकारी चाही तो जिलाधिकारी ने बताया कि जमीन अधिग्रहण के लिए पत्रावली शासन को भेज दी गई है। मुख्यमंत्री ने साथ चल रहे कैबिनेट सचिव शशांक शेखर को निर्देश दिया कि जनपद स्थापित होने संबंधी जो भी पत्रावली शासन स्तर पर विचाराधीन हो उसे तत्काल स्वीकृत कराएं। दोपहर को वह सीएसएम नगर (अमेठी) जिले के निरीक्षण को रवाना हो गई।

Thursday, February 17, 2011

दिल्ली में घरेलू हिंसा के आंकड़े


यौन हिंसा की शिकार दलित स्त्री


दैहिक शोषण की शिकार महिलाओं की संख्या में गिरावट की बजाय, दुर्भाग्य से उसमें इजाफा ही हो रहा है। यहां तक कि खास वर्ग की महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। नाबालिग लड़कियों के साथ रेप आये दिनों की बात हो चुकी है, सामूहिक बलात्कार भी सुर्खियों में हैं। गांव ही नहीं, छोटे-बड़े शहरों की गलियों से लेकर खेतों तक में लड़कियां शिकार बनायी जा रही हैं
अपने सूबे का सरदार कौ न है, रसूखवाले इस बात की परवाह नहीं करते। अगर करते होते, तो अब तक उत्तर प्रदेश में दलित लड़कियों के साथ दबंगई की इफरात वारदातें हो चुकी हैं और नई-नई सिर उठा रही हैं
दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली मुख्यमंत्री (बहन मायावती) के राज (उत्तर प्रदेश) में दलित महिलाएं ही सुरक्षित नहीं हैं, सुनकर थोड़ा अजीब लगता है। राज्य में शायद ऐसा कोई गांव-शहर नहीं बचा है, जहां यौन हिंसा की शिकार लड़कियां, न्याय और कानून-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठा रही हों, ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, दलितों पर अत्याचार (हत्या, हिंसा,यौन-हिंसा) में उत्तर प्रदेश पूरे भारत में सबसे आगे है। हालांकि महिला मुख्यमंत्री, शीला दीक्षित की दिल्ली में भी यौन हिंसा के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सवाल है कि दलित महिला मुख्यमंत्री के राज में भी दलितों (लड़के और लड़कियों) के साथ ही अत्याचार- अन्याय क्यों हो रहा है? पुलिस क्यों नहीं सुनती? पुलिस दलितों को क्यों डराती-धमकाती है? मुकदमा दर्ज करने की बजाय, समझौता करने का दबाव क्यों डालती है? दलितों पर अत्याचार के आरोपियों को सजा क्यों नहीं मिलती? दलित लड़कियों से बलात्कार या बलात्कार के बाद हत्या के अनेक मामला सामने हैं। फतेहपुर में तीन लो गों ने दलित कन्या को बलात्कार का शिकार बनाने की कोशिश की और विरोध करने पर लड़की के हाथ, पांव और कान काट डाले। पीड़ित कानपुर के अस्पताल में मौत से जूझ रही है। जैसाकि अमूमन होता है, पारिवारिक झगड़े और रंजिश का बदला मासूम-निर्दोष लड़की की अस्मत से लिया गया। बांदा बलात्कार मामले में आरोपी विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी ने तो दलित नाबालिग लड़की को मामूली चोरी के इल्जाम में जेल ही भिजवा दिया था। बांदा बलात्कार मामला अभी सुलझा भी नहीं था कि लखनऊ के चिनहट इलाके में ईट-भट्ठे के पीछे एक और दलित लड़की की लाश पड़ी मिली। लड़की की बलात्कार के बाद, उसी के दुपट्टे से गला घोंटकर हत्या कर दी गई। शिवराजपुर गांव की सोलह वर्षीय नाबालिग दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार का मामला भी प्रकाश में आया है। बिराज्मार गांव की 8 साल की दलित बालिका की दरिंदों ने बलात्कार के बाद हत्या की परंतु महीनों कोतवाल ने कोई कार्रवाई तक नहीं की, उल्टे घरवालों को ही डराना-धमकाना और गुमराह करना जारी रहा। कन्नौज जिले के सौरिख क्षेत्र में बीस वर्षीय दलित लड़की गांव से बाहर खेत में गई थी, जहां तीन युवकों ने उसके साथ बलात्कार किया। बाराबंकी में नौंवी क्लास की नाबालिग लड़की से बलात्कार किया गया ले किन पुलिस ने सिर्फ छेड़छाड़ का मामला दर्ज किया। सुल्तानपुर के दोस्तपुर इलाके में एक महिला को जिंदा जलाने की कोशिश की गई, जिसका अस्पताल में इलाज चल रहा है। मुरादाबाद और झांसी में बलात्कार की शिकार हुई लड़कियों ने खुद को आग लगा ली। कानपुर और लखनऊ में भी बलात्कार की शिकार दो नाबालिग लड़कियां मौत की नींद सो गई। ठेकमा (आजमगढ़) कस्बे में सोमवार की रात करीब 12 बजे चार बहशी दरिंदों ने दलित के घर में घुसकर वहां सो रही 28 वर्षीया मंद-बुद्धि युवती की इज्जत लूट ली। ठाकुरद्वारा (मुरादाबाद) के गांव कंकरखेड़ा में दो युवकों ने तमंचों के बल पर दलित युवती से बलात्कार किया। सलेमपुर (देवरिया) में दलित युवती के साथ तीन दरिंदों ने दुपट्टे से हाथ- पैर बांध कर सामूहिक दुष्कर्म किया, पर पुलिस एक सप्ताह तक मामले पर पर्दा डालती रही। मैनपुरी के ग्राम नगला देवी में कामांध युवक ने दलित नाबालिग युवती, जो अपने घर से गांव स्थित परचून की दुकान से कपड़ा धोने का साबुन लेने गयी थी, से बलात्कार किया और एटा के बागवाला क्षेत्र में कुछ युवकों ने तमंचे के बल पर महिला की अस्मत लूट ली। यह सिर्फ संक्षेप में कुछ ही दुर्घटनाएं हैं..विस्तृत आंकड़ों में जाने की जरूरत नहीं। सैकड़ों मामले तो ऐसे भी हैं, जिनमें सामूहिक बलात्कार की शिकार दलित या आदिवासी लड़कियों को डरा-धमका कर (या 1000-2000 रुपए देकर) हमेशा के लिए चुप करा दिया गया। मां-बाप को गांव से बाहर करने और जेल भिजवाने की धमकी देकर, पुलिस और गुंडों ने सारा मामला ही दफना दिया। अखबारों में छपी तमाम खबरें झूठी साबित हुई..पत्रकारों पर मानहानि के मुकदमें दायर किये गए, गवाहों को खरीद लिया गया और न्याय- व्यवस्था की आंखों में धूल झोंक कर अपराधी साफ बच निकले।माथुरसे लेकर भंवरी बाईकेस के शर्मनाक फैसले अदालतों से समाज तक बिखरे पड़े हैं। सत्ता में लगातार बढ़ रहे दलित वर्चस्व के कारण, आहत और अपमानित कुलीन वर्ग के हमले, दलित स्त्रियों के साथ हिंसा या यौन हिंसा के रूप में बढ़ रहे हैं। समाज और नौकरशाही में अब भी कुलीन वर्ग का बोलबाला है। राजनीति में अपनी हार का बदला, दलितों पर अत्याचार के माध्यम से निकाला जा रहा है। दोहरा अभिशाप झेलती दलित स्त्रियां इसलिए भी बेबस और लाचार हैं, क्योंकि उनके अपने नेता, सत्ता-लोलुप अंधेरे और भ्रष्टाचार के वट- वृक्षों के मायाजाल में उलझ गए हैं। ऐसे दहशतजदा माहौल में, आखिर दलित स्त्रियों की शिकायत कौन सुनेगा और कैसे होगा इंसाफ? (लेखक स्त्रीवादी और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं)