Thursday, January 13, 2011

गुजारा भत्ते के प्रति अनिच्छुक महिलाएं

हाल ही में इकॉनॉमिक रिसर्च फाउंडेशन की तरफ से एक अध्ययन रिपोर्ट आयी है जिसके मुताबिक तलाकशुदा महिलाओं में से पचास फीसद यानी आधी ने ही गुजारा भत्ते की मांग अपने पतियों से की है। अध्ययन में यह बताने का प्रयास किया गया है कि कानून में कई खामियों तथा अकार्य क्षमता के बावजूद पचास फीसद महिलाएं गुजारा भत्ते के लिए कानूनी जंग लड़ती हैं जिसके चलते उन्हें बहुत थोड़ी राहत मिल पाती है। फिर भी चूंकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होती हैं, इसलिए उन्हें यह लड़ाई लड़नी पड़ती है। लेकिन इसी अध्ययन का दूसरा पहलू यह भी है कि लगभग आधी तलाकशुदा महिलाओं ने गुजारा भत्ते की मांग नहीं की है। यद्यपि इसके कारण अलग हैं। जैसे कुछ को अपने इस अधिकार के बारे में पता ही नहीं होता या कुछ कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए धन नहीं जुटा सकती हैं लेकिन कुछ ने स्वेच्छा से यह चुनाव किया है कि वे अपने पूर्व पति पर निर्भर नहीं रहेगी। अध्ययन के लिए आधार बनायी गयी 405 महिलाओं में से 213 ने ही गुजारा भत्ते की मांग की। हालांकि जो महिलाएं गुजारा भत्ते पर निर्भर होती हैं, वे अपना पहले वाला जीवन स्तर नहीं बनाये रख पाती हैं। कोर्ट द्वारा तय राशि या तो कम होती है या समय बीतने के साथ उसका मूल्य कम होता जाता है। घर चूंकि पति का होता है इसलिए कई तरह की चल-अचल सम्पत्ति उसी के पास रह जाती है। और औरत या तो उस मायके में आसरा लेती है जो कभी उसका अपना घर माना नहीं गया था या वह स्वतन्त्र गृहस्थी बनाती है जिसमें यदि गुजारा भत्ता है तो थोड़ा राहत हो जाती है। गौरतलब है कि जो महिलाएं नौकरीशुदा हैं या जिनकी अपनी आय का स्रेत है, उन्हें कानूनन गुजारा भत्ता नहीं मिलता है। यानी गुजारे की मांग आत्मनिर्भर महिलाएं नहीं करती हैं, लेकिन कम संख्या में ही सही, अब ऐसी महिलाएं भी हैं, जो पहले पति पर निर्भर रही हैं लेकिन अलग होने के बाद स्वनिर्भर हो रही है। इसके कुछ और भी उदाहरण कुछ समय पहले देखने का मिले। मुंबई हाईकोर्ट के एक अध्ययन में, जो तलाक के मामलों पर किया गया था, पाया गया कि फैमिली कोर्ट में बीते जनवरी में तलाक के पांच मामले दायर हुए थे जिसमें एक भी महिला ने गुजारा भत्ता लेने में रुचि नहीं दिखायी। मुम्बई सहित कई अन्य बड़े शहरों में भी यह बात देखने में आयी है। कोर्ट की लम्बी चलने वाली प्रक्रिया के अलावा महिलाओं का आर्थिक रूप से सक्षम होना इसका सबसे बड़ा कारण बताया जाता है। मुंबई फैमिली कोर्ट बार एसोसिएशन की अध्यक्ष निलोफर अख्तर कहती हैं कि पांच साल पहले तक उनके सामने ऐसे मामले कभी नहीं आये। वे बताती हैं कि अब महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम हो रही हैं और उन्हें अपने पूर्व पतियों से आर्थिक मदद की जरूरत नहीं पड़ती है। मुम्बई की ही एक अन्य वकील मृणालिनी ने बताया कि अमूमन छह महीने से पांच साल तक से कम अवधि वाली शादियों के तलाक के मामलों में आम तौर पर महिलाओं ने गुजारा भत्ता लेने की इच्छा नहीं जतायी है। दिल्ली की एक जिला अदालत में घरेलूंिहंसा सुरक्षा अधिनियम के तहत दर्ज एक केस में जब वकील ने उसमें गुजारा भत्ते के लिए धारा 125 जोड़ा तो महिला ने साफ इनकार कर दिया कि वो (पति) क्या भत्ता देगा ? पूरे घर का खर्च तो वही उठाती रही है। उक्त महिला रोहिणी के कुछ घरों में साफ-सफाई और बर्तन धोने का काम करती है तथा जो भी कमा कर लाती है, उसे उसका पति शराब पीने के लिए छीन लेता है। यहां तक कि वह घर के बर्तन आदि भी बेच देता है तथा विरोध करने पर उसे मारता-पीटता है। महिला का कहना है कि कोर्ट से उसे सिर्फ प्रोटेक्शन ऑर्डर चाहिए। वैसे किसी की किसी पर निर्भरता (चाहे शादी बनी रहे या टूट जाए) अच्छी नहीं मानी जा सकती है। किसी को अपना जीवन यापन किसी दूसरे से मांग कर करना पड़े तो वह स्वाभिमान को काफी हद तक क्षति पहुंचाता है। जिन्हें इसका एहसास न हो, वे संभव है कि गुलाम मानसिकता की शिकार हों। लड़कियों में खासकर शुरू से ही आत्मनिर्भर बनने का प्रयास एक उच्च कोटि का गुण या आकांक्षा मानी जानी चाहिए। इस तर्क-वितर्क के बीच घर के काम का मूल्य और महत्व की बात आती है कि जितना बाहर के पैसे वाले काम की कीमत है उससे अधिक या बराबर घरवाले काम की लेकिन यदि ऐसा होता तो फिर अलग होने पर गुजारे के लिए मांग क्यों करनी पड़ती ? इसलिए दूरगामी तौर पर बराबरी के लिए केन्द्रीय मुद्दा आय के स्रेतों पर बराबरी का दावा तथा मालिकाना हक बराबर का हो, यही बन सकता है। इसके बिना गैर बराबरी बनी रहेगी तथा अन्याय की गुंजाइश भी होगी। दहेज जैसी लाइलाज सामाजिक समस्या से निपटने के लिए भी जरूरी है कि महिलाएं परिवार की कमाऊ सदस्य बनें तथा साथ में उन्हें कृपा या उपहार नहीं, बल्कि हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए। तभी चाहे वे पति के साथ रहें या अलग, शादी करें या न करें, उनके नागरिक अधिकार सुरक्षित रहेंगे।

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