Wednesday, December 14, 2011

इस जीत के मायने


उड़ान के दौरान महिला क्रू मेंबर्स के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ दशकों से जारी संघर्ष में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। महिलाओं के एक छोटे-से समूह ने हासिल की यह छोटी-सी जीत जो सुपरवाइजर पद से संबधित है, महिलाओं के विभिन्न स्तरों पर जारी भेदभाव के खिलाफ एक अहम जीत है। बता दें कि एयर इंडिया के विमान के अंदर काम करने वाली महिलाओं ने अपने लिए बराबर के ओहदे की मांग की थी। यहां उड़ान के दौरान काम करने वाली महिलाओं को सुपरवाइजर का पद नहीं मिलता था। सुपरवाइजर सिर्फ पुरुष ही हो सकता था, जबकि सारी जिम्मेदारियां वे बराबर की निभाती थीं। वरिष्ठ महिला कर्मचारी जिन पुरुष कर्मचारियों को प्रशिक्षण देती थीं, वे भी उनके सुपरवाइजर बन सकते थे, लेकिन महिला होने के नाते उन्हें यह कार्यभार नहीं सौंपा जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट ने गत 17 नवंबर को अपने एक फैसले में कहा कि इस भेदभाव का कोई आधार नहीं है और महिलाएं इस ओहदे की हकदार हंै। इस प्रतिरोध में विशेष बात यह देखने वाली है कि आमतौर पर लड़ाई मैनेजमेंट से लड़नी पड़ती है, लेकिन यहां मैनेजमेंट यानी एयर इंडिया ने 2005 में अपनी नीति में बदलाव करते हुए सुपरवाइजर का दर्जा सिर्फ पुरुषों तक सीमित रखने के अपने मध्ययुगीन किस्म के नियम को समाप्त कर इस पद पर महिलाओं की नियुक्ति को भी सुगम बनाया था। प्रबंधन के इस निर्णय को पुरुष सुपरवाइजरों ने चुनौती दी थी। कोर्ट में अपील दायर की गई थी कि वे महिला सुपरवाइजरों के मातहत काम नहीं कर सकते हंै। वर्ष 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एयर इंडिया के इस फैसले को सही ठहराया था, तब अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट गए थे। एयर इंडिया में न सिर्फ इस स्तर पर, बल्कि विभिन्न स्तरों पर महिला कर्मचारियों को जेंडर भेदभाव का सामना करना पड़ता है तथा इसके खिलाफ संघर्ष भी चलते रहे हैं। जैसे कि रिटायरमेंट की उम्र महिला और पुरुष के लिए अलग-अलग होती है। यदि महिला कर्मचारी अपनी नियुक्ति के शुरुआती चार साल के भीतर गर्भवती हो गई तो उसे नौकरी छोड़नी पड़ती थी या उसका वजन मानक से अधिक नहीं होना चाहिए जैसी शर्त थी। इन सारे भेदभावों का आधार कहीं भी यह नहीं था कि वे अपनी जिम्मेदारी निभाने में कमतर या अक्षम थीं, बल्कि वजह उनका औरत होना था। अगर हम दूसरे क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं के संघर्षो की तरफ ध्यान दें तो वहां भी यहीं साधारण-सी मांग है कि कार्यस्थलों पर उन्हें बराबर का अवसर और जिम्मेदारियां सौंपी जाएं। सिर्फ औरत होने के नाते योग्यता और क्षमता पर प्रश्न खड़ा करने का तुक क्या है? आखिर सेना में स्थायी कमीशन की मांग की वजह यही तो रही है कि उनकी नौकरी के दस साल पूरे होने पर उन्हें अनिवार्यत: रिटायर कर दिया जाता था, जबकि पुरुषों को नौकरी में बने रहने का विकल्प था। कानूनन कोर्ट ने महिलाओं को यह अवसर देने के पक्ष में फैसला सुनाया है, लेकिन अभी यह फैसला फौज के सिर्फ उसी विभाग पर लागू है, जिस विभाग की महिला कर्मचारियों ने कोर्ट में चुनौती दी थी। फौज में अभी विभिन्न स्तरों पर गैरबराबरी कायम है। समझने वाली बात है कि महिलाएं आखिर कौन-सी बड़ी सत्ता की या सुपर कर्मचारी बन जाने की मांग कर रही हैं। वे यही तो मांग रही हंै कि उन्हें सिर्फ औरत होने के नाते बराबरी से वंचित न किया जाए। कभी कहा जाता है कि औरत हो, इसलिए रात में काम न करो तो कभी अघोषित रूप से नियुक्ति या पदोन्नति के रास्ते बंद किए जाते हैं। इतने बंधनों या अवरोधों वाले समाज में जब तुलनात्मक रूप से छोटे हिस्से की लड़ाई में कानूनी जीत हो या मैनेजमेंट या सरकार मांगें मान ले या एयर इंडिया जैसे खुद ही नीति बनाकर कम से कम कुछ गैरबराबरियों को ही समाप्त किया जाए तो वह शेष कामकाजी महिलाओं को अपने कार्यस्थल पर भी बराबरी की मांग करने का हौसला भी देता है। अभी तो पता नहीं कितने स्तरों, मोर्चो और क्षेत्रों में गैरबराबरी कितने रूपों में कायम रखी गई है, इसका पूरे समाज को पता भी नहीं है। जब कोई विरोध करता है या मुकदमा कोर्ट-कचहरी में जाता है, तब कई बातों का पता भी लगता है। जैसे कानून पढ़ने या कानूनी पेशा में रहने वालों को छोड़ दें तो किसे पता था कि कानून की भाषा में महिलाओं के लिए रखैल ंशब्द अब भी इस्तेमाल होता है। बराबर काम का बराबर वेतन औरत का हक है और इसे लागू नहीं करना किसी भी सरकार या निजी कंपनी या कोई भी नौकरी पेशा हो तो नियोक्ता की तरफ से इसे अपराध माना जाना चाहिए। हालांकि श्रम कानून के अंतर्गत बराबरी का नियम होता है, लेकिन हर जगह जेंडर भेद के लिए रास्ते निकाल लिए जाते हैं। दरअसल, ऐसे हालात तैयार करना भी सरकार और नियोक्ता की जिम्मेवारी बनती है, जिसमें महिलाएं बराबर का काम कर सकें और उन्हें बराबर की सारी सुविधाएं भी मिले। हमारे संविधान का अनुच्छेद 15 व्यवस्था देता है कि भारत का हरेक नागरिक लैंगिक तथा जातीय भेदभाव से मुक्त जीवन का अधिकारी है यानी ऐसे भेदभाव करना कानूनी अपराध माना जाएगा, लेकिन यहां की महिलाएं नागरिक होते हुए भी आसानी से और धड़ल्ले से आर्थिक शोषण की शिकार होती आई हैं। असंगठित क्षेत्र में यह भेदभाव अधिक देखने को मिलता है। आज भी कुशल श्रमिक के रूप में महिलाएं कुल श्रमशक्ति में बराबर का हिस्सेदार नहीं बन पाई हैं। श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट इस बात का खुलासा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, महिला श्रमिकों की संख्या 12 करोड़ 72 लाख है, जो उनकी कुल संख्या 49 करोड़ 60 लाख का चौथा ( 25.60 प्रतिशत) हिस्सा ही हुआ। इनमें भी अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्र में हैं और उनका प्रतिशत ऊपर दी हुई कुल महिला श्रमिकों की संख्या का तीन हिस्से से भी ज्यादा (87 प्रतिशत) कृषि संबंधी रोजगार में है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह विचार भी व्यक्त किया कि उसे समझ नहीं आता कि आखिर 1997 में एयर इंडिया ने किस आधार पर जहाज के अंदर उड़ान के दौरान महिला सुपरवाइजर की पोस्ट से इनकार किया है। ऐसे कितने ही अवसरों और कार्यो के लिए जब-जब महिला विरोधी नीतियां बनती होंगी तो आखिर क्या-क्या कारण गिनाए जाते होंगे? यही न कि फलां काम उनके लिए नहीं है या वे यह नहीं कर पाएंगी, लेकिन मौका मिले तभी तो पता चल पाएगा कि क्यों नहीं कर पाएंगी। दरअसल, आज भी यह एक बड़ा मुद्दा है कि सार्वजनिक दायरा तथा हर प्रकार के कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए पूर्ण बराबरी कैसे कायम हो। इस दिशा में गैरबराबरी के खिलाफ महिलाओं द्वारा किया गया छोटा-मोटा संघर्ष भी बदलाव की बयार लाता है। इसलिए जरूरत है सबसे पहले नाइंसाफी को पहचानने तथा इस धारणा को पुराना करने की कि बराबर का काम हमारा हक है और औरत होने के नाते इससे वंचित नहीं किया जा सकता है। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

Wednesday, December 7, 2011

आधी दुनिया के साथ अत्याचार


महिलाओं और लड़कियों के प्रति हिंसा का अनुभव भारत में अन्य देशों की ही तरह है। लिंग-आधारित हिंसा जाति, वर्ग, सामाजिक, आर्थिक हैसियत और धर्म की सीमाओं से परे एक विश्वव्यापी समस्या है। महिलाओं और लड़कियों को जीवन में हिंसा का सामना कन्या भ्रूण हत्या व शिक्षा की पर्याप्त सुविधा तथा पोषण न मिलने से लेकर बाल विवाह, पारिवारिक व्यभिचार, और कथित ऑनर किलिंग के रूप में करना पड़ता है। यह हिंसा दहेज संबंधी हत्या या घरेलू हिंसा, दुष्कर्म, यौन शोषण और दु‌र्व्यवहार, मानव व्यापार या विधवाओं का निरादर और निष्कासन के रूप में हो सकती है। दुनिया भर में तीन में से एक महिला को अपने जीवन में यौन आधारित हिंसा का शिकार होना पड़ता है। कुछ देशों में यह संख्या 70 प्रतिशत तक है। 25 नवंबर को इंटरनेशनल डे फॉर द एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट वूमेन से शुरू होकर और 10 दिसंबर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की समाप्ति तक इस वर्ष हम एक बार फिर 16 डेज ऑफ एक्टिविज्म अगेंस्ट जेंडर वायलेंस मना रहे हैं। यह स्पष्ट है कि महिलाओं व लड़कियों को हिंसा से मुक्ति दिलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को शब्दों से बढ़कर सक्रियता दिखानी चाहिए। चाहे यह बंद दरबाजों के पीछे हो या डराने-धमकाने के रूप में हो, चाहे यह हमारे आसपास की सड़क पर हो या दूरदराज क्षेत्रों में। हमें उन लोगों के विरुद्ध उठ खड़े होना चाहिए जो किसी भी रूप में महिलाओं के खिलाफ हिंसा करते हैं। हमें दुनिया भर में महिलाओं व लड़कियों की उस स्थिति में सुधार लाना चाहिए जो उन्हें कमजोर व असुरक्षित बना देती है। ये 16 दिन गंभीर विचार के हैं कि लिंग-आधारित हिंसा केवल महिलाओं की समस्या नहीं हो सकती, बल्कि यह पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी चुनौती है। महिलाओं के प्रति हिंसा मात्र मानवाधिकारों और गौरव का निरादर ही नहीं है, बल्कि इसका विपरीत प्रभाव हमारे समुदायों के कल्याण पर पड़ता है। जब महिलाओं और लड़कियों से दु‌र्व्यवहार होता है तो व्यापार बंद हो जाते हैं, आय सिकुड़ जाती है, परिवार भुखमरी पर पहुंच जाते हैं और इस वातावरण में पले-बढ़े बच्चे इसे सीख लेते हैं, जिससे हिंसा का चक्र जारी रहता है। इस क्रूरता से उत्पन्न आर्थिक व सामाजिक हानि तथा स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चो का कोई अंत नहीं है। घायल होने और दु‌र्व्यवहार के परिणाम स्वरूप चिकित्सा और कानूनी सेवाओं पर भारी खर्च होता है। घरेलू उत्पादकता की हानि होती है और आय घट जाती है, क्योंकि बहुत सी महिलाएं प्राय: परोक्ष रूप से आय का Fोत होती हैं। वे बाजार की वस्तुएं बेचती हैं या घरेलू रूप में कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए युगांडा में लगभग 12.5 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि वर्ष में हिंसा की घटनाओं से लगभग 10 प्रतिशत महिलाओं का औसतन 11 कार्यदिवस का नुकसान होता है। इस नुकसान का प्रभाव बहुत से परिवारों में बढ़ जाता है जिनमें एक महिला मुख्य या अकेली रोटी कमाने वाली है। बांग्लादेश में दो तिहाई से अधिक परिवारों में सर्वेक्षणों से पता चला है कि घरेलू हिंसा से एक सदस्य के काम पर औसतन 5 से 4.5 डॉलर प्रतिमाह का असर पड़ता है। यह नुकसान शेष समुदाय को प्रभावित करता है। शारीरिक हिंसा महिलाओं में गंभीर स्थितियों का भारी जोखिम लाती है। व्यक्तिगत पीड़ा और कष्ट के परे लिंग-आधारित हिंसा के राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से आर्थिक कुप्रभाव हैं, जैसे विदेशी निवेश व निर्धारित देश में संस्थानों में आत्मविश्वास की कमी। कोई भी देश या दुनिया का कोई भाग इस नुकसान से बचा हुआ नहीं है। कनाडा में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की एक साल में न्यायिक, पुलिस और परामर्श की लागत अनुमानत: 1 अरब डॉलर से अधिक है। इंग्लैंड में घरेलू हिंसा के कारण होने वाली हानि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 23 अरब पाउंड प्रतिवर्ष या 440 पाउंड प्रति व्यक्ति आंकी गई है। अमेरिका में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा पर अकेले 5.8 अरब डॉलर से अधिक का खर्च होता है। इसके अलावा 4.1 अरब डॉलर सीधे चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यय होता है। तनावपूर्ण आर्थिक स्थिति के दौर में कुछ लोग इन प्रयत्नों को बेहद खर्चीला समझ सकते हैं। यद्यपि महिलाओं के विरुद्ध आक्रमण रोकने और अभियोजन में संसाधनों के निवेश से खर्च बढ़ अवश्य सकता है, लेकिन आगे चलकर बड़ा लाभ होगा। अमेरिका का वायलेंस अगेंस्ट वूमेन एक्ट, जिसने ऐसे अपराधों की जांच करने और अभियोजन करने के प्रयासों को मजबूत बनाया है, 1994 से लगभग 16 अरब डॉलर से अधिक बचा चुका है। इन बचतों में अधिकतर बचत वह है जो संभावित हिंसा को टाल कर की गई है। भारत सरकार और भारत के जीवंत नागरिक समाज के सदस्य भारत में लिंग-आधारित हिंसा से लड़ने के लिए नई रणनीतियों को लागू कर रहे हैं। जो भी हो, हमारे अभियान के 16 दिन महिलाओं और लड़कियों को हिंसा के भयावह अनुभव से मुक्त कराने के लिए पुन: संकल्प लेने का एक अवसर है, चाहे यह दु‌र्व्यवहार बंद दरवाजों के पीछे होता हो या खुले मैदान में संघर्ष के दौरान। वे देश प्रगति नहीं कर सकते जिनकी आधी जनसंख्या हाशिए पर हो या उससे दु‌र्व्यवहार और पक्षपात होता हो। जब महिलाओं और लड़कियों को उनके अधिकार और शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी के समान अवसर मिलते हैं तो वे अपने परिवारों और समुदायों तथा देशों को ऊपर ले जाती हैं। जैसा कि हाल ही में विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि दुनिया की महिलाओं व लड़कियों की संभावनाओं में निवेश दुनिया भर में आर्थिक उन्नति, राजनीतिक स्थिरता और पुरुषों और महिलाओं के लिए वृहद समृद्धि प्राप्त करने का सबसे सुनिश्चित तरीका है। (लेखक भारत में अमेरिका के प्रभारी राजदूत हैं) 

Friday, November 25, 2011

एक तिहाई महिलाएं कुपोषण की शिकार

विभिन्न मंत्रालयों द्वारा पोषण के अलग-अलग दावों के बावजूद हालत यह है कि 35 फीसद से ज्यादा महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं और इनमें मुस्लिम महिलाओं की संख्या ज्यादा है। ये महिलाएं 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की है। कुपोषित महिलाओं के चलते ही पांच वर्ष तक नवजात शिशुओं की मौत सबसे ज्यादा भारत में हो रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सव्रेक्षण से पता चला है कि 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की लड़कियों व महिलाओं में कराए गए सव्रेक्षण से पता चला है कि 36.4 फीसद हिंदू महिलाएं और 35.1 फीसद मुस्लिम महिलाएं अभी भी कुपोषण का शिकार हैं। इन महिलाओं का बॉडी मास इंडेक्स का पता लगाने के लिए एक विशेष तरह की रक्त जांच एवं वजन कराया गया है जिसमें पता चला है कि इन महिलाओं के स्वास्थ्य शरीर के सूचकांक में गिरावट आ रही है। इससे ज्यादा चौंकाने वाली बात उक्त सव्रे से यह पता चली है कि हिंदू एवं मुस्लिम महिलाएं क्रमश: 55.9 एवं 54.7 फीसद एनीमिया से प्रभावित हैं। उधर महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ का कहना है कि महिलाओं के कुपोषण के कारण ही नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य में जन्मजात गिरावट आ रही है। हालांकि कुपोषण से निपटने के लिए कई मंत्रालय एक साथ काम कर रहे हैं मगर सव्रे से जो स्थिति सामने आई है उसको देखते हुए लगता है कि समन्वित कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि मिड-डे मील योजना, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, समन्वित बाल विकास योजना सहित कई योजनाएं है जो महिलाओं एवं बच्चों के कुपोषण से निपटने के लिए चलाई गई है और इस दिशा में कई मंत्रालय मिल कर काम करेंगे।

Friday, November 18, 2011

अनचाहे नाम की विडम्बना

मराठी भाषा में एक शब्द है नकुशाजिसका शाब्दिक अर्थ है अनचाही या अवांछित। महाराष्ट्र के अनेक ग्रामीण इलाकों में एक प्रचलित कुरीति के चलते आज भी अनेक लड़कियों का नाम नकुशा रखा जाता है। लोकमान्यता के मुताबिक यदि किसी दंपत्ति के यहां एक या दो लड़कियों के बाद फिर लड़की पैदा होती है तो उसका नाम नकुशा यानी अनचाही रख दिया जाता है क्योंकि माता-पिता चाहते तो बेटा थे लेकिन हो गई बेटी। मान्यता है कि अनचाही बेटी को नकुशा पुकारने से अगली संतान के रूप में बेटा ही जन्म लेगा, जबकि अक्सर ऐसा होता नहीं है। इस सामाजिक धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। बल्कि यह लड़कियों को खुले तौर पर अपमानित करने, उनके भीतर हीन भावना भरने, परवरिश में उपेक्षा भाव व उन्हें सक्षम न समझने वाली मानसिकता का द्योतक है। मगर हाल में बेटी बचाओ सरकारी अभियान के तहत महाराष्ट्र के सतारा जिले में नकुशा नाम की लड़कियों की पहचान कर उनका नाम बदलकर समाज में सार्थक संदेश देने वाली नायाब पहल का अपना महत्व है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र देश के उन पांच राज्यों में एक है,जहां बाल लिंग अनुपात बहुत असंतुलित है। 2011 की जनगणना के प्रारंभिक आंकड़ों के मुताबिक यहां प्रति हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या 883 है जबकि दस साल पहले 2001 में यह 914 थी। यूनाइटड नेशंस पॉपुलेशन फंड एजेंसी के हालिया सव्रे में दावा किया गया है कि महाराष्ट्र में हर साल 55,053 से अधिक कन्या भ्रूण का गर्भपात विकसित अवस्था में कराया जाता है। सतारा, जो राज्य के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण का गृह जिला है, में यह आंकड़ा 881 का है। सतारा आर्थिक दृष्टि से कमजोर या पिछड़ा नहीं है मगर पुत्र प्राप्ति के नाम पर आज भी पुरातनपंथी सोच में जकड़ा है। यह पुष्टि जनगणना के आंकड़ों के साथ-साथ यहां लड़कियों के प्रति प्रचलित सामाजिक परपंराएं भी करती हैं। मसलन बेटी होने पर नामकरण संबंधी समारोह न करना, मां को बेटियों को स्तनपान कराने की इजाजत न देना, परिवार में पहले बेटों को भोजन देना और जो बच जाए वह बेटियों के हिस्से आना यहां का आम रिवाज है। लब्बोलुआब यह कि यहां का समाज लड़कियों के पौष्टिक आहार, शिक्षा व कल्याण पर कुछ खर्च नहीं करना चाहता है। यही नहीं, कई परिवारों में उन्हें नकुशा नाम देकर यानी अनचाही अर्थ वाले नाम से पुकार कर उनकी गरिमा पर सार्वजनिक हमला किया जाता है। इतिहास बताता है कि छत्रपति शिवाजी के व्यक्तित्व निर्माण में उनकी मां जीजाबाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन यह बात समझ से परे हैं कि एक महिला के रूप में जीजाबाई के योगदान को सतारा ने क्यों और कैसे भुला दिया है। यह आभास वहां नकुशा नाम कराता है। बहरहाल, क्षेत्र में नकुशा की जगह नया नाम देकर समाज में उनके प्रति नजरिया बदलने वाली पहल करीब दो महीने पहले शुरू हुई। जिलाधिकारी डॉ. एन. रामास्वामी ने घर-घर जाकर यह नाम पता लगाने वाला अभियान छेड़ा और करीब 18 साल से कम उम्र वाली 900 ऐसी लड़कियों का पता चला है। पाटण तहसील में 92, कराड़ में 16, महाबलेर में 12, सतारा में 11, खंडाला में 11 और जावली तहसील में पांच नकुशा नाम की लड़कियां मिलीं। इस मुहिम के तहत हाल में करीब 222 लड़कियों के नाम बदले गए। अब वे प्रसन्न हैं क्योंकि उन्हें न तो कोई इनके नाम के आधार पर चिढ़ाएगा और न ही वे अपने भीतर हीन भाव महसूस करेंगी। गरीब परिवारों की इन लड़कियों के नए नाम रखने का जिम्मा बालिकाओं के ग्रुप,परिवारों व सरकारी अधिकारियों को सौंपा गया था। किसी का ऐर्या तो किसी का नाम पूजा रखा गया है। 11 महीने की एक बच्ची का नाम नकुशा से बदलकर निकिता रखा गया है। यूं कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है? लेकिन ऐसा नाम जिसका मतलब ही अनचाही, अवांछित हो और जो ताउम्र समाजीकरण की प्रक्रिया में एक बोझ साबित होता हो तो उससे निजात पाना ही बेहतर विकल्प है। नाम से जिंदगी को नई दिशा, समाज में लड़कियों के महत्व को पहचान व उनके प्रति जागरूकता पैदा करने वाले लक्ष्यों के मददेनजर इस सार्थक पहल में समाज की भागीदारी अहम भूमिका निभा सकती है। साझा प्रयासों से ही इस सामाजिक कुरीति को मिटाया जा सकता है।

Friday, October 14, 2011

विषमता की पीड़ा


बीते दिनों अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक में भारत में महिलाओं की दयनीय स्थिति की चर्चा है। न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा तथा आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों की कसौटी पर इस पत्रिका द्वारा तैयार 165 देशों की सूची में भारत 141वें नंबर पर आया। उसे 100 में से सिर्फ 41.9 अंक मिले। रिपोर्ट के अनुसार भारत आर्थिक रूप से बड़ी ताकत बनने की राह पर है, लेकिन देश की अधिकतर महिलाएं इस बदलाव से अछूती हैं। इस सत्य को नकार पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं है कि स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बावजूद महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं। इस कटु सत्य को देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने स्वीकार करते हुए कहा, आजादी के बाद देश में महिलाओं का काफी विकास हुआ लेकिन लैंगिक असमानता के क्षेत्र में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कुछ दिन पूर्व गैर सरकारी संगठन कम्युनिटी बिजनेस द्वारा एशिया की उभरती अर्थव्यवस्था वाले छह देशों की कामकाजी महिलाओं पर तैयार एक रिपोर्ट में भारत का स्थान चीन, मलेशिया, हांगकांग, सिंगापुर और जापान के बाद है। इस रिपोर्ट के मुताबिक चीन के कुल श्रमिकों में 49.79 प्रतिशत महिलाएं हैं, वहीं भारत में यह हिस्सा महज 24.43 प्रतिशत है। चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर गौरवान्वित होता भारत इस सत्य को स्वीकार करेगा कि भारतीय महिलाएं न केवल दफ्तर में भेदभाव का शिकार होती हैं, बल्कि इसके साथ ही उन्हें यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। देश में महिलाओं को न तो काम के बेहतर अवसर मिलते हैं और न ही पदोन्नति के समान अवसर। जो महिलाएं नौकरी पा गईं वे भी शीर्ष पदों तक नहीं पहुंच पातीं। महज 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों तक उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं। समान कार्य का समान वेतन की नीति सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। श्रम मंत्रालय से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अंतर है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि झाड़ू लगाने जैसे अकुशल काम में भी स्त्री और पुरुष श्रमिक में भेदभाव किया जाता है। विश्व के कुल उत्पादन में लगभग 160 खरब का अदृश्य योगदान केयर (देखभाल) अर्थव्यवस्था का होता है। इसमें भारतीय महिलाओं का योगदान 110 खरब का है। यूनीसेफ की रिपोर्ट यह सुनिश्चित करती है कि महिलाएं नागरिक प्रशासन में भागीदारी निभाने में सक्षम हैं। यही नहीं वे बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सभी तरीकों का प्रयोग करती है और यह पूर्णतया सत्य है कि महिलाओं के सही प्रतिनिधित्व के बगैर किसी भी क्षेत्र में काम ठीक से और सौहा‌र्द्र के साथ नहीं हो सकता। भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है। इससे स्पष्ट होता है कि महिलाएं मानव विकास की समग्र उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित है। विकसित देशों में प्रति लाख प्रसव पर 16-17 की मातृ मृत्यु दर की तुलना में भारत में लगभग 540 की मातृ मृत्यु दर है। सबसे दुखद पहलू तो यह है कि यहां जन्म से पूर्व ही लिंग के प्रति भेदभाव आरंभ हो जाता है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट लैंगिक समानता और विकास के मुताबिक दुनिया में जन्म से पहले ही लड़कियों को मार देने की सबसे ज्यादा घटनाएं चीन के बाद भारत में होती हैं। परिवारों में लड़कों की चाहत आज भी इस कदर हावी है कि लड़कियां अवांछित बनी हुई हैं। डब्ल्यूईएफ ने बच्चियों के स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के आंकड़ों के हिसाब से भी पुरुष-महिला समानता की सूची में निम्नतम पायदान पर पाया है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मसलों में पुरुष और महिलाओं के बीच लगातार अंतर बना हुआ है। भारतीय महिलाओं के योगदान के बिना समाज और देश कदापि उन्नति नहीं कर सकते। जब स्ति्रयां आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ते हैं, गांव आगे बढ़ते हैं और राष्ट्र भी अग्रसर होता है- देश के सामाजिक आर्थिक विकास की समूची अवधारणा का मूल आधार देश के प्रथम प्रधानमंत्री के ये शब्द रहे पर क्या देश वाकई इस तथ्य को आत्मसात कर पाया? (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

Tuesday, October 11, 2011

बचाओ-बचाओ कब तक


बेटी बचाओअभियान के नाम पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री एक मासूम बच्ची को गोद में चिपटा कर भव्य तस्वीर जिस समय छपवा कर खुश हो रहे थे, उसी समय एक ऐसी बच्ची खबरों में थी, जिसके तीन पिता हैं? प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाली इस बच्ची के प्रमाण-पत्र में तीन पिताओंके नाम दर्ज है? व्यवस्था के ठेकेदारों की समझ पर तरस खाने से तो तकदीर नहीं बदल सकती। इन पिताओं की महानता यह है कि इन पर बच्ची की मां का बलात्कार का आरोप था। 8 साल पहले ठेकेदार के यहां काम करने वाली डिंडोरी के निगवानी गांव की 15 साल की लड़की के गर्भ के लक्षणों से पता चला कि उसका बलात्कार हुआ था, जिसको वह डर से बता नहीं पाई। पीड़िता के पिता ने जिन तीन लोगों का नाम लिया, ठेकेदार- मल्लेसिंह, ओमप्रकाश और बसंत दास। मुकदमे के दौरान ही लड़की आरोपों से मुकर गई, क्योंकि परिवार झंझट में नहीं पड़ना चाहता था। पिताओं की महान परंपरा और पौरुषेय उद्दंडता का इससे असंवेदनशील वाकया सुना है क्या? बेटी बचाने का आह्वान करने वाले विज्ञापनों और होर्डिगों से किस क्रांति की कल्पना की जा रही है, यह तो प्रदेश का मुखिया ही बता सकता है। समूचे देश में ही औरतों की ऐसी दुर्दशा है तो किसी खास पर टेसू क्या गिरायें! बलात्कार के आरोपियों को बाप बनने का प्रमाण देने वाली मानसिकता किस घिनौनेपन और नैराश्य से निकली होगी, इसकी सड़ांध को महसूसिए। यूं सुगंधित और सजीले कमरों के गद्देदार सोफों पर धसक कर मन मत मसोसिए। कानून ने तो बच्चे को मां के नाम से जानने की स्वीकृति दे दी पर इसको जन- जन तक पहुंचाया कैसे जाए, यह भी तो जरूरी है। कानूनी अधिकारों के बारे में अभी कितनी औरतें जानती हैं? महापुरुषों और पूर्व प्रधानमंत्रियों की यादों में बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाने वाली राज्य व केन्द्र सरकारें तो औरतों की इतनी हमदर्द हैं भी नहीं कि वे विषमता हटाने वाले अधिकारों से औरतों को वाकिफ करें। ये तो वही लोग हैं, जो पुलिसिया डंडों से सड़क पर पिटती औरत को टीवी स्क्रीन पर देखकर बस दिखावे के लिए जांच का आदेश सुनाते हैं। माफ करें पर जिन राज्यों की मुखिया स्त्रियां हैं, वहां भी औरतें उसी तरह सताई जा रही हैं, जैसे बाकी देश में। क्योंकि सत्ता में आते ही, इनके भीतर का स्त्री-तत्व काफूर हो जाता है। उसको मर्दवाद अपने कब्जे में ले लेता है। पुरुष सिर्फ देह की ही परिभाषा नहीं है। यह समझने वाली बात है कि मर्दाना सोच और नियमावली विचार है, जिसका कोई भी शिकार हो सकता है। अपने शब्दों में कहूं तो यह संक्रमण है, खतरनाक किस्म का, जो औरत के समूल नाश को प्रतिबद्ध घात लगाये फिर रहा है जिससे बचाव के लिए मन से तैयार होना होगा। यह कन्या पूजन का पवित्र हफ्ता है, रस्म अदायगी के तौर पर नन्हीं बच्चियों के पांव धो माथे पर तिलक लगा कर भगवती के नाम पर उनकी स्तुति करने वाले धन्य है, जो इन्हीं देवी तुल्य बच्चियों पर अपने पौरुष का प्रहार करने से बाज नहीं आते। परिचित, पड़ोसी, दोस्त या रिश्तेदार ही बलात्कारी होता है, सुनने में थोड़ा नहीं- बहुत बुरा सा लगता है पर असलियत यही है। 58 एफआईआर/चिकित्सा रिपोटरे के अध्ययन के बाद पाया गया कि 22 मामलों में आरोपी पड़ोसी थे, 5 रिश्तेदार, जबकि 10 दोस्त। बच्चियां/औरतें कहां और कितनी सुरक्षित हैं, अब तो यह सवाल भी नहीं रहा। हम जिस समाज में जीने को मजबूर हैं, वहां औरतों के लिए कोई कोना सुरक्षित नहीं। घर, दफ्तर, सड़क, सार्वजनिक वाहन- हर जगह दरिन्दों का बोलबाला है। उधर, सरकार की नैतिक पुलिस के अनुसार लाइफस्टाइल वाले एक चैनल के बीच (समुद्र किनारे) वाले कार्यक्रम में औरतों के नितंब, कूल्हे, देह के पिछले हिस्से का उघड़ापन देख कर हैरान है। सूचना प्रसारण मंत्रालय को वक्ष की नग्नता कुछ दृश्यों में इतनी खटकी कि उसे यह स्त्री को अपमानित करने वाली लगी, जिसके खिलाफ वे गंभीर कदम उठाने की उतावली में हैं। उनको बच्ची के प्रमाण पत्र पर चस्पा तीन बाप नहीं दिख सकते, इनके नामों से किसी को जलालत नहीं होती। नग्नता को फूहड़ता से जोड़ कर शर्मिन्दगी जताने वालों के दिमागी दीवालियेपन पर कौन आंसू बहाएगा? यही है वह महान व्यवस्था जहां बेहूदी बातों के भरोसे क्रांति करने की नाटकबाजी होती रही है। औरतों की इस स्थिति को लेकर ना तो को ई धरना-प्रदर्शन होता है, ना ही कोई बहस। औरतों को भीड़ का वह हिस्सा बना दिया गया है, जिस पर हर मौसम में डिस्काउन्ट का टैग चस्पा रहता है। लाली-बिन्दी लगा लेने भर से जनानियों के घाव नहीं छिप सकते। ये घाव बहुत गहरे हो चुके हैं, इनके नासूर बनने का इंतजार करने वाले क्यों चाहेंगे कि इनका इलाज हो! औरत होना, अपने आप में जितनी गर्व की बात है, उतनी ही मुश्किल बना दी गयी हैं इसको जीने की राहें। अब भी अपनी कुल औरतों में से लगभग आधी को अक्षर ज्ञान भी नहीं है और इस तरफ अब किसी का ध्यान भी नहीं। सेंसेक्स और विकास दर पर नजरें अटकाये रखने वाले योजनाकारों और आर्थिक विशेषज्ञों के लिए ये मामूली बातें/दिक्कतें हैं। बेटियों को जन्म से पहले ही मार देना या ब्याह करके मरने के लिए छोड़ देना, रिवाज बन चुका है। जिसको अरेंज मैरिज कहते हैं, वह लड़कियों के लिए किसी जबरन ब्याह से कम नहीं होता। बेटियों को बोझ मानने वाली दकियानूस मानसिकता उनको ब्याह कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति से ज्यादा कुछ नहीं सोचती। मासूम बच्चियों को भी जिन स्थितियों में पाला जाता है, उसमें ब्याहने के लोभ से निकलना संभव नहीं होता। गरीबी या बन्धन इनको ना तो शिक्षा देते हैं, ना ही सुरक्षित भविष्य की कोई गारंटी ही। 2005 में ब्रिटिश सरकार के होम ऑफिस और फॉरेन ऑफिस ने संयुक्त रूप से जबरन ब्याह को अपराध के दायरे में लाया और 2010 में 1700 ऐसे मामले सुलझाये थे। जबरन विवाह से बचने के लिए घर से भागी जसविंदर ने 1993 में ही यूके में कर्मनिर्वाणके नाम से चैरिटी शुरू की, जो जबरन ब्याह और इज्जत के नाम पर होने वाली हिंसा के खिलाफ था। 2008 में इनके पास 2,500 मामले आये, ये लड़कियां स्कूलों से अचानक नदारद हो गई थीं लेकिन यहां हम अपनी बच्चियों को जबरन ब्याह के नाम पर ना सिर्फ धकेल रहे हैं, बल्कि इस पर कोई बात करने से भी हिचकते हैं। एक बार शादी हो जाए तो मायके वाले पलट कर भी नहीं देखना चाहते। अभी यहीं दिल्ली के डॉक्टर ने अपनी पत्नी की हत्या कर उसका शव इलाहाबाद ले जाकर फेंका, क्योंकि उसको वह पसंद नहीं थी। विवाह के दबाव को ऐसा दमघोंटू बनाये रखने का यह ढोंग कब तक औरतों की जान लेता रहेगा? डॉक्टर को इंजीनियर पत्नी से जो भी दिक्कत रही हो, उसकी कीमत जीवनतो नहीं हो सकती। यह अविसनीय लग सकता है पर सच है कि गार्डियनके अनुसार पुलिस को विास है कि यूके में साल भर में 12 ऑनर किलिंग हुइर्ं। देश भर में हुए ताजा अध्ययन में पाया कि दो साल के भीतर तीन हजार जबरन ब्याह के मामले सामने आये। ये कारनामे उन्हीं एशियाई परिवारों के हैं, जो धरोहर के नाम पर यह गंदगी अपने साथ ले जाते हैं। विकसित देश से कुछ भी ढंग का ना सीखने वाले इन स्त्री विरोधियों को ठीक करने के लिए वहां की सरकारें तो मुस्तैद हैं, पर अपने यहां अब तक यह साफ नहीं है कि परिवार की मर्जी से होने वाले संबंध और जबरन शादी करने के बीच कै से फर्क किया जाए? पढ़े-लिखे, समझदार भी इसी तरह अपनी मर्जी बच्चों पर थोपने की कला में माहिर हैं, जिसका खामियाजा सिर्फ लड़कियां चुकाती हैं।