Wednesday, February 29, 2012

यहां लड़कियों को बनाया जाता है मुर्गा


यह कैसा प्रिंसिपल (प्रधानाध्यापक) जिसका अपना कोई प्रिंसिपल (सिद्धांत) ही नहीं। जरा सी गलती पर बड़ी उम्र की लड़कियों को स्कूल के खुले मंच पर न केवल मुर्गा बनाया जाता है बल्कि उन पर डंडे बरसाए जाते हैं। शिकायत करने पर लड़कियों के चरित्र पर आरोप लगाता है। प्रिंसिपल के जुल्मों की इंतहा हो गई तो छात्राओं ने बुधवार को मीडिया में आवाज उठा दी। पंजाब के पहले मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के पिता निहाल सिंह के नाम पर चल रहे स्कूल में इस तरह का कृत्य शर्मसार करने वाला है। तरनतारन के गांव कैरों में स्थित गर्ल हास्टल वाले स्कूल में शुरू से ही महिला प्रिंसिपल लगाई जाती रही है परंतु 16 फरवरी 2010 से यहां पर दलबीर सिंह दयोल को प्रिंसिपल लगाया गया था। तभी से प्रिंसिपल का व्यवहार हिटलर जैसा है। मामूली गलती पर छात्राओं को क्लास से स्टेज पर बुलाकर मुर्गा बनाया जाता है और पीठ पर लाठियां बरसाई जाती हैं। सोमवार को दो दर्जन छात्राओं के साथ यही व्यवहार हुआ। पीडि़त छात्राओं ने बताया कि प्रिंसिपल को कई बार दुहाई दे चुकी हैं कि वह बेटियों को ऐसे जलील न करें। मां-बाप को शिकायत करते हैं तो छात्राओं के चरित्र पर ही अंगुली उठा दी जाती है। ऐसे आरोप के बाद मां-बाप भी जुबान बंद रखने के लिए मजबूर हैं। छात्राओं ने मांग की है कि प्रिंसिपल के खिलाफ केस दर्ज किया जाए। इस बारे प्रिंसिपल दलबीर सिंह दयोल से संपर्क किया गया तो उन्होंने कहा कि यह उन्हें बदनाम करने की साजिश है। वहीं, जिला शिक्षा अधिकारी (सेकेंडरी) दर्शना कुमारी माहिया कहती हैं कि स्कूल में जाकर छात्राओं की शिकायत सुन रहे हैं। इस बारे में उच्च अधिकारियों को भी बताया जा रहा है। जिले के डिप्टी कमिश्नर सतवंत सिंह जौहल का कहना है कि यह मामला बहुत गंभीर है। स्कूल में छात्राओं को इस प्रकार दंडित करना गैरकानूनी भी है। मामले की जांच करवाकर कार्रवाई की जाएगी। संषर्ष की चेतावनी : इस मामले पर शिरोमणि अकाली दल (अ) ने संघर्ष छेड़ने की चेतावनी दी है। दल ने पुलिस प्रशासन को अल्टीमेटम दिया है कि अगर दो दिनों में प्रिंसिपल के खिलाफ पर्चा दर्ज न किया गया तो वह संघर्ष छेड़ देगा। अकाली दल (अ) के नेताओं ने आज इस संबंध में जिले के एसएसपी प्रदीप कुमार यादव को एक

Monday, February 27, 2012

चार राज्यों में महिलाओं संग दुष्कर्म


कहीं महफूज नहीं अस्मत। चाहे वह महिला मुख्यमंत्रियों वाले सूबे उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल हो या फिर जम्मू-कश्मीर अथवा झारखंड। गवाह हैं ये शर्मनाक घटनाएं। जम्मू में दो छात्राओं के साथ दुष्कर्म किया गया। व‌र्द्धमान में डकैतों ने ट्रेन तो लूटी ही, एक महिला को हवस का शिकार भी बनाया। गढ़वा में एक महिला को सरेआम निर्वस्त्र कर दिया गया। यूपी के अमेठी में किशोरी के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया। स्कूल के रास्ते से उठाया जम्मू के सैनिक कॉलोनी इलाके में बनी प्रवासी श्रमिकों की झुग्गी के पास रविवार को लोगों ने एक युवती को अचेत हालत में पड़ा हुआ देखा। होश में आने पर छात्रा ने पुलिस को बताया कि वह बड़ी-ब्राह्मणा के तरोर इलाके की रहने वाली है। उसका अपहरण किया गया था। वह स्कूल जा रही थी तो तीन युवकों ने जबरन अपनी गाड़ी में बैठा लिया। उसके बाद गाड़ी में ही उससे सामूहिक दुष्कर्म किया। विदित हो कि कक्षा नौवीं की इस छात्रा की गुमशुदगी की रिपोर्ट शनिवार को बड़ी ब्राह्मणा थाने में दर्ज करवाई थी। पुलिस ने स्कॉर्पियो को जब्त कर दो आरोपियों को हिरासत में ले लिया, तीसरा फरार है। झुमके न देने पर बलात्कार पश्चिम बंगाल के व‌र्द्धमान जिले में पाचुंडी एवं अमलग्राम रेलवे स्टेशन के बीच आदमपुर-कटवा पैसेंजर को रोक कर डकैतों ने करीब सौ यात्रियों से दो-ढाई लाख की संपत्ति लूट ली। एक महिला ने अपने झुमके देने से इंकार किया तो डकैत उसे ट्रेन से खींच कर जंगल में ले गए और मनमानी की। महिला ने पुलिस को बताया, डकैतों ने पहले 1000 रुपये ले लिए, फिर कान का झुमका मांगा। देने से इंकार करने पर ट्रेन से नीचे ले गए एवं जंगल में एक डकैत ने मेरे साथ दुष्कर्म किया। फिर मुझे छोड़कर फरार हो गए। खता बेटे की, सजा मां को झारखंड में गढ़वा जिले के शारदा गांव में रविवार को एक महिला को ग्रामीणों ने सरेआम निर्वस्त्र कर दिया। उसके पति से मारपीट की। इसके पीछे वजह बताई गई है कि महिला के पुत्र को 31 जनवरी को गांव के ही मुन्ना बैठा के पुत्र एस कुमार उर्फ सुखाड़ी की हुई हत्या में शामिल बताया गया है। उसी समय से ग्रामीणों के भय से हत्यारोपी के माता-पिता सहित पूरा परिवार पलायन कर गया था। गुरुवार को धुरकी पुलिस बीच बचाव कर पलायित परिवार को घर लाई। रविवार को अचानक दोपहर 12 बजे ग्रामीणों ने धावा बोल कर शर्मनाक घटना को अंजाम दिया। किशोरी से सामूहिक दुष्कर्म उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले में किशोरी ने दो लोगों पर सामूहिक दुष्कर्म का आरोप लगाया है। पीडि़ता के अनुसार गांव के बाहर शौच के लिए जाने के दौरान चार लोगों ने उसे पकड़ लिया। पहले आंखों पर पट्टी बांधी, मुंह में कपड़ा ठूंसा तथा पास के एक खेत में उठा ले गए। वहां गांव के ही मुन्ना सरोज व अरुण सिंह ने दुष्कर्म किया। दो अन्य लोगों को वह पहचान नहीं पाई। पुलिस ने मुन्ना सरोज को हिरासत में ले लिया है।

Tuesday, February 14, 2012

समाज पर गंभीर सवाल


नई दिल्ली में महज दो वर्ष की एक बच्ची के साथ हुए अमानवीय बर्ताव और दरिंदगी की घटना को सुनकर पूरा देश चकित है। इसे लेकर मीडिया और बुद्धिजीवियों में एक तरह की बहस छिड़ी हुई है, लेकिन महिलाओं और लड़कियों के साथ ऐसी न जाने कितनी भेदभाव की घटनाएं आए दिन होती रहती हैं जिनका संज्ञान शायद ही किसी को होता है। फिर बात चाहे कन्या भ्रूण हत्या की हो, दहेज अपराधों की अथवा घरेलू हिंसा की। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक कल्याण विभाग की यह रिपोर्ट कोई बहुत चौंकाने वाली नहीं है कि लड़कियों की असुरक्षा के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जनगणना आंकड़ों से भी पता चलता है कि भारत में महिला और पुरुष का अनुपात काफी असंतुलित है, जो प्रति 1000 पुरुषों पर महज 914 महिलाओं का है। आज यह एक आम धारणा बन गई है कि भ्रूण हत्या दहेज मांगों की वजह से होती है, क्योंकि परिवार दहेज की वजह से बेटियों को बोझ समझकर उन्हें पैदा ही नहीं होने देना चाहते। मैं इस विचार और तर्क से सहमत नहीं। दहेज बेटियों की अवमानना का कारण नहीं, बल्कि महज लक्षण है। दहेज केवल उन्हीं संप्रदायों में दिया जाता है, जिनमें बेटियों को संपत्ति अधिकार से वंचित किया गया है। यह कुचक्र अंग्रेजी शासन काल के दौरान चला, जिसके तहत भूमि बंदोबस्त अभियान व संपत्ति संबंधी कानूनों में बहुत से स्त्री विरोधी फेरबदल किए गए। इनमें सबसे अहम बदलाव मातृवंशी परिवारों को पितृवंशी संपत्ति वितरण प्रणाली की ओर धकेलना और परंपरागत सामूहिक पारिवारिक संपत्ति को निजी संपत्ति में बदल दिया जाना था। पारिवारिक सामूहिक संपत्ति की व्यवस्था आदिवासियों और जनजातियों में होती है, जिसमें हर एक को समान रूप से चाहे वह अजन्मा बच्चा ही क्यों न हो, को उत्तराधिकार का अधिकार था और इसे किसी भी तरह से चुनौती नहीं दी जा सकती थी, लेकिन बाद में जब पुरुष के हाथ में संपत्ति का अधिकार आ गया तो बेटियों का अधिकार लुप्त हो गया और इसके बदले में स्त्री धन अथवा दहेज की परंपरा शुरू हुई, जो क्षतिपूर्ति का एक रूप था। बेटियों को मिलने वाला दहेज कभी भी बेटों को मिलने वाली संपत्ति के बराबर नहीं रहा। इसके अतिरिक्त बेटों को अचल संपत्ति दी जाती है, जिसमें मकान, दुकान, व्यापार, जमीन आदि शामिल होता है, जबकि बेटियों को चल संपत्ति दी जाती है, जिनमें जीवन निर्वाह की चीजें, बर्तन, फर्नीचर, गहने आदि होते हैं। अब जब आर्थिक अधिकार से वंचित बहू ससुराल जाती है तो वह इसे पाना चाहती है, जिससे सास-ससुर और ससुराल वालों के साथ उसका टकराव लड़ाई-झगड़े में बदल जाता है। आज कानून तो बदल गया है, लेकिन मानसिकता नहीं बदली। बेटियों को अब भी पराया धन समझा जाता है और उसे माता-पिता के परिवार का अटूट अंग नहीं माना जाता, जिससे उसकी स्थिति कमजोर ही रहती है। इसके अलावा किसी भी समाज में जब सामाजिक हिंसा और अपराध बढ़ जाता है तो इसका सबसे ज्यादा प्रभाव स्ति्रयों पर होता है। भारत में भी पर्दा प्रथा, घूंघट, बुर्का आदि उन्हीं क्षेत्रों में पाया जाता है जो करीब एक हजार साल तक बाहरी हमलों से ग्रस्त रहे हैं। जो संप्रदाय महिलाओं की अस्मिता बचाने में अक्षम हुए उन्हीं संप्रदायों के पुरुषों ने स्ति्रयों को घूंघट में या चहारदीवारी में कैद किया। इस तरह बाहरी समाज से कटी इन महिलाओं में बाहरी दुनिया को समझ पाने और उन्हें झेलने की क्षमता खत्म होती गई और वे परनिर्भरता के लिए मजबूर हो गई। आज भी सरकार कानून एवं व्यवस्था के माध्यम से महिलाओं को सुरक्षा देने की बजाय अपराधियों को ही संरक्षण देती नजर आती है। ऐसे में माता-पिता के लिए बेटियों का समुचित पालन-पोषण कर पाना मुश्किल होता है। इसलिए असुरक्षा बोझ से मुक्त होने के लिए बेटियों की कम उम्र में शादी कर दी जाती है। इस तरह बेटियों के साथ एक अनवरत शोषण का सिलसिला शुरू हो जाता है। उत्तर भारत के गांवों में यह कथन आज भी कहा जाता है-जितने बेटे उतना लठ, जितना लठ उतना कब्जा। यानी संपत्ति की रक्षा के मामले में भी लड़कियों को कमतर आका जाता है, क्योंकि वे वह काम नहीं कर सकतीं जो पुरुष कर सकते हैं। निश्चित ही लड़ाई-झगड़े के काम में लड़कियां कमजोर होती हैं इसलिए वह परिवार के लिए उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह जातीं। इस कारण भी उनके साथ भेदभाव होता है। यह बात शहर और गांव, शिक्षित और अशिक्षित सभी पर लागू होता है। इस तरह की धारणा बेटी को अपंग और एक तरह से कमजोर बना देती है। बेटी को जहां पराया धन समझा जाता है वहीं बेटों को आज भी बुढ़ापे का सहारा माना जाता है। मां-बाप समझते हैं परिवार बेटों के बिना फल-फूल नहीं सकता, लेकिन यह धारणा इस देश में बूढ़े मां-बाप के लिए घातक सिद्ध हो रही है। भारत को परिवार की तुलना उन समाजों से करनी चाहिए जहां बेटियां उत्तराधिकारी होती हैं, जैसा कि थाईलैंड और मणिपुर आदि में हैं। यहां बेटे और बहुओं की तुलना में बेटियां उत्तराधिकारी होती हैं, जो मां-बाप की ज्यादा अच्छी देखभाल करती हैं। जाहिर है बेटियों के प्रति भेदभाव के नजरिए से न केवल परिवार कलह का शिकार हो रहे हैं, बल्कि कन्या भ्रूण हत्या के कारण लिंगानुपात बिगड़ रहा है और प्रत्येक पुरुष को जीवनसाथी नहीं मिल पा रहा। इससे जहां दुष्कर्म आदि की घटनाएं बढ़ रही हैं वहीं स्ति्रयों की खरीद-फरोख्त का बाजार फल-फूल रहा है। एम्स में जीवन-मौत से जूझ रही बच्ची के साथ हुआ दु‌र्व्यवहार इसी व्यवस्था और मानसिकता का परिणाम है, जिन्हें समूल नष्ट करने के लिए हमें समग्रता में विचार करने की आवश्यकता है। (लेखिका दिल्ली स्थित सामाजिक विज्ञान शोध केंद्र-सीएसडीएस में सीनियर फेलो हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

Tuesday, February 7, 2012

छोटी ‘फलक’ पर बड़े सवाल

मासूम-सी जान फलकएम्स में जिंदगी और मौत से जूझ रही है। ठीक हो भी गई तो उसका भविष्य क्या होगा, बताना बहुत मुश्किल है। इस बच्ची की कहानी ने देश को झकझोर कर रख दिया है। क्या वाकई इतने निर्मम हो सकते हैं माता-पिता, या पैसे की हवस ने उन्हें इतना अंधा कर दिया है कि वे अपने कलेजे के टुकड़े को देह की मंडी में बेच सकते हैं। हालांकि यह कोई एक फलक की कहानी नहीं है। ऐसी अगणित लड़कियां हैं जिनके साथ हर रोज अमानवीय अत्याचार होता है। कुछ को बमुश्किल न्याय मिल भी जाता है पर अधिकांश सिसिकयों में जिंदगी गुजार देती हैं। आधी आबादी की बदहाली के बारे में जनसंख्या संबंधी सरकारी आंकड़े जितने चौंकानेवाले हैं, कहीं उतनी ही भयावह है लोगों की मानसिकता। देश में नारी सशक्तीकरण की चाहे जितनी बातें होती हों, लेकिन हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है। बेशक आज दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं ने हर बड़े मोर्चे संभाल रखे हों लेकिन आजादी के बाद से देश में महिला-पुरु ष अनुपात में तेजी से गिरावट आई है। शिशु लिंगानुपात में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट पर स्वयं जनगणना आयुक्त भी गंभीर चिंता जता चुके हैं। यह गिरावट कन्या भ्रूण हत्या में वृद्धि की पुष्टि भी करती है। आंकड़ों के मुताबिक देश में 1000 बालकों के मुकाबले केवल 914 बालिकाएं हैं। यद्यपि देश का राष्ट्रीय औसत के अनुसार प्रति 1000 पुरु षों के मुकाबले 940 महिलाएं है। लेकिन दिल्ली में यह महिला अनुपात 866, चंडीगढ़ में 818, हरियाण में 877 और पंजाब में 893 के चिंताजनक स्तर तक लुढ़क गया है। केवल दक्षिण भारत की स्थिति ही कुछ बेहतर है। केरल देश का पहला राज्य है जहां प्रति हजार पुरु षों के मुकाबले 1084 महिलाएं हैं। समाज के कुलीन खानदानों की बात हो या गरीब तबके की; घर में लड़की के पैदा होने पर लक्ष्मी के आगमन का भाव अब नहीं उमड़ता है। एक पल के लिए चाहे खुशी होती भी हो लेकिन उसके लड़की होने का विचार तुरंत मन में घर बना लेता है। एक तरफ जहां हमारे वेद और शास्त्रों में नारी को पूजे जाने का उपदेश दिया गया है, वहीं हमारे मौजूदा पितृसत्तात्मक समाज में कहीं बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है, तो कहीं सरेआम उसकी अस्मत को बेरहमी से कुचला जाता है। कहीं पुरु ष मनोग्रंथि के चलते, तो कहीं समाज में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए स्त्री के शरीर को जागीर समझकर उस पर जुल्म ढाए जाते हैं। समाज पर पुरुष की प्रधानता का इससे बेहतर प्रमाण और क्या हो सकता है कि जितनी भी गालियां प्रचलित हैं वह मां और बहन के अपमान से ही संबंधित हैं। देश के कुछ हिस्सों में महिला-पुरुष अनुपात में गैरबराबरी बेहद चिंता का विषय है। हालात ऐसे बन गए हैं कि कुछ जगहों पर तो लड़कों को शादी के लिए लड़कियां तक नहीं मिल रही हैं। यह हालत दरअसल उस चिंताजनक सोच का परिणाम है, जिसमें राह चलती लड़कियों में लोगों को सिर्फ अपनी काम वासना शांत करने का सामान ही दिखाई देता है। देश में कन्या भ्रूणहत्या के पीछे महज बेटे की चाहत ही एकमात्र कारण नहीं है। समाज में आज एक लड़की के माता-पिता उसको लेकर हमेशा चिंतित और किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त रहते हैं। वह हर पल इस चिंता में जीते हैं कि कहीं उनकी बेटी केसाथ कुछ ऐसी- वैसी.. बात न हो जाए। महानगरों में लड़कियों और महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध ने अभिभावकों को भीतर तक भयभीत कर दिया है। दिल्ली तो घोषित रूप से महिलाओं के लिए असुरक्षित शहर बन गया है, जहां सुरक्षा के इतने भारी बंदोबस्त के बावजूद हर दूसरे दिन किसी लड़की के साथ यौन अत्याचार होता है। मुंबई में भी महिलाओं के प्रति लोगों का रवैया खास अलग नहीं है। दरअसल, यह रवैया समाज की नारी विरोधी मानसिकता को दर्शाता है। आज बदलते दौर के साथ नारी कहीं भी पुरु षों से पीछे नहीं रहना चाहती और प्रतिस्पर्धा की भावना से छोटे-छोटे गांवों और कस्बों से लड़कियां महानगरों का रु ख कर रही हैं, लेकिन शहर उनके लिए बुरे सपने जैसे साबित हो रहे हैं। महिलाओं के साथ होने वाले ऐसे जघन्य अपराधों के पीछे समाज की दूषित सोच ही जिम्मेदार है। नतीजा यह कि स्कूल, कॉलेज और नौकरी के लिए लड़कियां घर से बाहर जरूर निकलती हैं, लेकिन वापस उनके वापस आने तक मां-बाप बेचैन रहते हैं। स्वयं घर से बाहर कदम रखते समय लड़कियां बहादुर और आत्मविास से भरे होने का आवरण जरूर ओढ़े रहती हैं, लेकिन वे हमेशा अनहोनी की आशंका के साए में जीती हैं। महिलाओं में इस प्रकार का डर निराधार नहीं है। पुरुष प्रधान समाज में लड़कों पर कोई आंच आ जाए तो उन्हें बहुत फर्क नहीं पड़ता, लेकिन यदि अथक सतर्कता के बावजूद लड़की के दामन पर कोई दाग लग जाए तो वह और उसके माता-पिता जीवन भर उस कलंक के साथ जीने को अभिशप्त हो जाते हैं, बावजूद कि इसके लिए लड़की कतई जिम्मेदार नहीं होती। यह विकृत सामाजिक सोच का ही नतीजा है कि कोई भी व्यक्ति ऐसी लड़की को अपनाने के लिए तैयार नहीं होता। मां-बाप जीवन भर अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। तब वे यही सोचते हैं कि काश हमारी औलाद लड़की नहीं होती। महिलाओं और लड़कियों के प्रति समाज की ऐसी ही सोच के कारण कन्या भ्रूण हत्या का चलन बढ़ गया है और हालात ऐसे बन गए हैं कि बेटियां कम होती जा रही हैं। हालांकि कई राज्यों में सरकारों ने कन्या जन्म प्रोत्साहन के लिए कई योजनाएं प्रारंभ की हैं, लेकिन उनके बहुत अच्छे और सकारात्मक परिणाम अब तक सामने नहीं आ पाए हैं। यह विचारणीय है कि आखिर क्यों सरकारी योजनाएं भी लड़कियों के प्रति समाज की मानसिकता बदलने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं? इसका जवाब लोगों को अपने अंदर खोजना पड़ेगा। विचारों और नजरिए का शुद्धिकरण करना होगा अन्यथा ऐसे ही बेटियां कोख में मारी जाती रहेंगी।