Wednesday, May 25, 2011

देश के धनी भी नहीं चाहते घर की लक्ष्मी


एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि संतान के रूप में एक कन्या होने के बाद यदि गर्भ में दूसरी भी लड़की आ जाती है तो ऐसे भ्रूण की हत्या करवाने की प्रवृत्ति भारत में धनी एवं शिक्षित तबकों में तेजी से बढ़ रही है। प्रतिष्ठित लैंसेट पत्रिका के आगामी अंक में छपने वाले इस अध्ययन के निष्कर्षो के अनुसार 1980 से 2010 के बीच इस तरह के गर्भपातों की संख्या 42 लाख से एक करोड़ 21 लाख के बीच रही है। अध्ययन में दावा किया गया है कि पिछले कुछ दशकों में पुत्र की चाहत में चुनिंदा गर्भपात का चलन बढ़ा है। साथ ही लड़के-लड़कियों के अनुपात में कमी की प्रवृत्ति जो अभी तक उत्तरी राज्यों में ही ज्यादा पाई जाती थी अब उसका प्रकोप पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में भी फैलने लगा है। टोरंटो विश्वविद्यालय के प्रभात झा इस अध्ययन पत्र के मुख्य लेखक हैं। उन्होंने बताया, भारत की अधिकतर आबादी ऐसे राज्यों में रहती है जहां इस तरह के मामले आम हैं। अध्ययन में जनगणना आंकड़ों और राष्ट्रीय सर्वेक्षण के जन्म आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। इस विश्लेषण का मकसद ऐसे परिवारों में दूसरे बच्चे के जन्म में बालक-बालिका के अनुपात का अंदाजा लगाया जा सका जहां पहली संतान के रूप में बच्ची पैदा हो चुकी थी। अध्ययन में पाया गया कि 1990 में प्रति 1000 लड़कों पर 906 लड़कियां थीं जो 2005 में घटकर 836 रह गई। झा ने कहा कि अनुपात में यह गिरावट उन परिवारों में अधिक देखी गई जहां जन्म देने वाली मां ने दसवीं या उससे उच्च कक्षा की शिक्षा हासिल कर रखी थी और जो संपन्न गृहस्थी की थी। लेकिन ऐसे ही परिवारों में यदि पहला बच्चा लड़का है तो दूसरी संतान के मामले में लड़का-लड़की अनुपात में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने कहा कि इससे यह सुझाव मिलता है कि कन्या भ्रूण का चुनिंदा गर्भपात शिक्षित एवं संपन्न परिवारों में ज्यादा मिलता है। ऐसी प्रवृत्ति आम तौर पर पहली संतान के लड़की होने के मामलों में देखी जाती है। 1980 के दशक में कन्या भ्रूण का चुनिंदा गर्भपात 0.20 लाख था, जो 1990 के दशक में बढ़कर 12 लाख से 40 लाख तथा 2000 के दशक में 31 लाख से 60 लाख तक हो गया।


आओ, इसका जश्न मनाएं


वैश्विक राजनीति में महिलाओं की स्थिति जो भी रही हो, लेकिन कम से कम द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य में महिलाएं हमेशा महत्वपूर्ण दिखती रही हैं। चाहे दुनिया में सबसे ज्यादा महिला प्रधानमंत्रियों की बात हो या राष्ट्रपतियों की। दक्षिण एशिया ने इसकी जबरदस्त मिसाल पेश की है। पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे कट्टरपंथी इस्लामिक देशों में भी महिला प्रधानमंत्री इस क्षेत्र की ही देन हैं। इंदिरा गांधी जैसी दुनिया की ताकतवर महिला राजनीतिज्ञ भी दक्षिण एशिया के खाते में ही आती हैं। इसलिए एक साथ भारत के चार महत्वपूर्ण राज्यों में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर महिलाओं का विराजना आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन यह राजनीति की शानदार उर्वर दिशा का संकेत भी है। हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दो राज्यों में महिलाओं ने अपने दम पर जीत का परचम लहराया और पारंपरिक राजनीति के मायने बदल दिए। तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने 34 साल पुराने लाल दुर्ग को ढहा दिया तो दूसरी तरफ लगभग अजेय-सा दिखने वाला करुणानिधि परिवार जयललिता के जादू के सामने टिक नहीं पाया, जबकि तमाम राजनीतिक पंडित कम से कम तमिलनाडु के चुनावों को लेकर भविष्यवाणी करते हुए बेहद असमंजस स्थिति में थे। जयललिता की ही तरह ममता बनर्जी ने भी पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को चारो खाने चित्त कर दिया। 294 विधानसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और उसके सहायक दलों को 227 सीटें मिलीं, जबकि लेफ्ट फ्रंट को, जिसे 2006 में 235 सीटें मिली थी, महज 62 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। इस तरह उसे 173 सीटों का नुकसान हुआ। पिछली बार की ही तरह अन्य दल इस बार भी सिर्फ पांच सीटें ही हासिल कर सके। बहरहाल, यहां सीटों की संख्या और राजनीतिक ताकत का आकलन करना मकसद नहीं है, बल्कि यह झांकने की कोशिश करना है कि भारतीय राजनीति में अब महिलाएं अपनी स्वतंत्र ताकत से ऐतिहासिक फेरबदल करने का माद्दा दिखाने लगी हैं। हालांकि पहले यह काम इंदिरा गांधी कर चुकी हैं, लेकिन इंदिरा गांधी की मजबूत परंपरा को दशकों तक देश की दूसरी महिला राजनीतिज्ञ कायम नहीं रख सकीं। आमतौर पर भारतीय राजनीति में महिलाओं की हैसियत दूसरे नंबर की रही। वह बॉलीवुड फिल्मों की तरह पूरी फिल्म का खूबसूरत, मगर एक तरह से फिल्म में फर्क न पड़ने वाले हिस्से की माफिक रहीं। भारतीय राजनीति में महिलाएं पीढ़ी और परंपरा कायम नहीं कर सकीं। वह या तो पति या बेटों, भाइयों आदि की विरासतों को ढोने वाली रहीं या अपनी खूबसूरती और राजनीतिक वरदहस्त के तहत आगे बढ़ीं। इससे भारत में महिला राजनीतिज्ञों की संख्या तो जरूर हमेशा ऐसी रही, जिसे अगर शानदार नहीं तो खराब भी नहीं कहा जा सकता था, लेकिन वास्तविक ताकत के नजरिए से ये महिलाएं महज मोहरा भर रहीं। यही कारण है कि पंचायती राज व्यवस्था में 33 फीसदी महिलाओं की अनिवार्य मौजूदगी भी देश में महिला राजनीतिज्ञों के प्रभाव का माहौल नहीं बना सकी। मगर यह पहला ऐसा मौका है, जब उत्तर प्रदेश में मायावती, तमिलनाडु में जयललिता, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार किसी पुरुष राजनीतिज्ञ के रहमोकरम की मोहताज नहीं है, बल्कि इन महिला राजनीतिज्ञों ने अपनी ताकत खुद बनाई है। यही वजह है कि यह क्षण महत्वपूर्ण है, जब देश के तीन बड़े आबादी वाले और चौथे सबसे बड़े प्रभाव वाले राज्य यानी दिल्ली में महिलाओं के नेतृत्व को किसी की विरासत या किसी की छाया नहीं करार दिया जा सकता, बल्कि इनकी अपनी ताकत और प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। बहरहाल, चार राज्यों में महिलाओं का नेतृत्व इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये चारों राज्य देश की राजनीति में अहम भूमिका अदा करते हैं। साथ ही इन चारों राज्यों से केंद्र सरकार की वास्तविक गति निर्धारित होती है। भारतीय राजनीति में पहली बार एक साथ चार राज्यों की कमान महिलाओं के हाथ में होना एक नए राजनीतिक माहौल और बदलाव की तरफ इशारा करता है। भारतीय राजनीति में महिलाओं की ताकतवर होती स्थिति न सिर्फ देश में मजबूत होते लोकतंत्र का प्रतीक है, बल्कि देश में महिलाओं की मजबूत होती स्थिति का भी प्रतीक है। इसलिए चार राज्यों में महिलाओं का नेतृत्व भारत के लिए एक नए युग की दस्तक है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

आधी दुनिया का सियासी दबदबा


आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में महिलाओं के नाम एक और उपलब्धि दर्ज हो गई है। पहली मर्तबा देश के 29 सूबों में से चार सूबों की मुख्यमंत्री महिला हैं। हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद दो राज्यों पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में ममता बनर्जी और जयललिता ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं। ऐसा पहली बार है कि एक समय में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क के चार राज्यों की कमान महिलाओं के हाथ में है और वे देश की कुल आबादी की एक तिहाई आबादी पर राज कर रही हैं। अपने मुल्क की महिला मुख्यमंत्रियों की फेहिरस्त बहुत ही छोटी है। इतनी छोटी की एक बार में ही याद हो जाए। इस फेहिरस्त में सबसे पहला नाम सुचेता कृपलानी का है। वह उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं और देश में पहली मर्तबा एक महिला को राजनीति की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया था। पंजाब में रजिंदर कौर भट्टल तीन साल तक मुख्यमंत्री रहीं तो उड़ीसा में नंदिनी सतपथी ने 10 साल तक मुख्यमंत्री के नाते सत्ता संभाली। असम में अनवरा तमिरा मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन की पत्नी सी जानकी छह महीने के लिए मुख्यमंत्री के पद पर रहीं तो बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। मध्य प्रदेश में उमा भारती करीब दो-ढाई साल तक बतौर मुख्यमंत्री रहीं। सुषमा स्वराज दिल्ली की तो वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री थीं। सुचेता कृपलानी, नंदिनी सतपथी, रजिंदर कौर भट्टल, अनवरा, शीला दीक्षित का ताल्लुक कांगे्रस से है तो राबड़ी देवी राजद, सी जानकी, जयललिता अन्नाद्रमुक, ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस, मायावती बसपा और सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, उमा भारती भारतीय जनता पार्टी से हैं। केरल जैसा प्रगतिशील राज्य इस संदर्भ में हर विधानसभा चुनावों में हमारे सामने इस विचारणीय मुददे को रखता है कि यहां अभी तक कोई महिला मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन पाई? केरल एक ऐसा मॉडल राज्य है, जहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा और साक्षरता दर भी उल्लेखनीय है। यही नहीं, बारी-बारी से राज्य की सियासत संभालने वाली दो मुख्य राजनीतिक पार्टियों लेफ्ट और कांग्रेस की विचारधारा भी यहां चुनावी राजनीति व जिताऊ फैक्टर के सामने नतमस्तक दिखी। देश के वामपंथियों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल तक उनकी सत्ता थी और एक बार भी किसी महिला को मुख्यमंत्री नहीं बनाया। क्या यह ऐतिहासिक चूक नहीं है। इसी तरह केरल व त्रिपुरा में भी उन्होंने किसी महिला को मुख्यमंत्री पद के काबिल नहीं समझा। वामपंथी स्त्री-पुरुष की बराबरी का दावा करते हैं, लेकिन सत्ता के शीर्ष पदों पर महिलाओं के चुनाव को लेकर उन्होंने हमारे सामने कोई राजनीतिक आदर्श नहीं रखा है। ऐसा भी नहीं है कि उनके पास अनुभवी महिला कॉडर की कमी हो। वामपंथी संसद व विधानसभा में एक तिहाई महिला आरक्षण की वकालत करने में भले ही सबसे ज्यादा मुखर शैली अपनाते हों, पर सच यह है कि यहां भी राजनीति में पुरुषत्व ही हावी दिखता है। देश के उत्तर-पूर्व राज्यों के कबीलाई समाज में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास ज्यादा अधिकार हैं, लेकिन राजनीति पर उनकी पकड़ प्रभावित नहीं करती। राजनीति में आदिवासी पुरुष नेता तो हैं, लेकिन किसी आदिवासी महिला राजनेता का नाम याद नहीं आता। राजनीति, सत्ता जेंडर न्यूट्रल वर्ड हैं, लेकिन जब राजनीति, सत्ता एक खास जेंडर की ओर झुकी हो, यहां तक कि उसी विशेष जेंडर का वहां दबदबा हो तो उसे तोड़ने या यों कहें कि करेक्शन के लिए महिला राजनीतिज्ञों को क्या कोई पहल नहीं करनी चाहिए। किसी भी महिला राजनेता ने संगठित महिला शक्ति का विकास नहीं किया। देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इसका अपवाद नहीं कही जा सकतीं। इंदिरा गांधी के बाद की महिला राजनेताओं मसलन जयललिता, सुषमा स्वराज, मायावती, ममता बनर्जी, उमा भारती, राबड़ी देवी और सोनिया गांधी ने भी इंदिरा गांधी की परपंरा को तोड़ने की कोई ठोस पहल नहीं की। जयललिता, ममता बनर्जी, मायावती के चुनावी घोषणापत्रों में महिलाओं को राजनीतिक तौर पर सशक्त करने की कोई नीति का जिक्र नहीं मिलता। इस समय अपने देश की राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल हैं। लोकसभा में स्पीकर मीरा कुमार हैं तो कांग्रेस व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज हैं। देश के तीन राज्यों गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की राज्यपाल महिला हैं। चार राज्यों में महिला मुख्यमंत्री हैं। इसे महिलाराज के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या यह देश इस ऐतिहासिक संयोग या कहें परिस्थितियों का लाभ उठा पाएगा? अब तक देश में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की बाबत आलंकारिक व्याख्याएं ही ज्यादा हुई हैं। क्या अब महिलाओं को राजनीतिक तौर पर सशक्त करने के लिए कुछ ठोस होता नजर आएगा? यह हमारे परिपक्व होते लोकतंत्र के लिए एक अहम सवाल है। देश में महिला मुख्यमंत्रियों की संख्या तो दो से बढ़कर अब चार हो गई है, लेकिन जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, वहां जीतकर विधानसभा पहंुचने वाली महिला विधायकों की संख्या 2006 विधानसभा की तुलना में घटी है। वर्ष 2006 के चुनावों में इन राज्यों यानी पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल और पांडिचेरी में 80 महिला विधायक चुनकर आई थीं, मगर इस बार यह संख्या 72 तक सिमट कर रह गई है। पंचायत और नगर निगम में तो महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण की घोषणा अब पुरानी हो चुकी है, असली टेस्ट संसद और विधानसभा में होता है, जहां नतीजे जोर-जोर से बोलते हैं। फिलहाल तो यही लगता है कि मंजिल बहुत दूर है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Thursday, May 19, 2011

किसकी जरूरत हैं चीयरलीडर्स


विश्वकप फुटबॉल मैचों से अधिक चर्चित हुई चीयरलीडर्स के साथ घटी वह घटना जो आइपीएल क्रिकेट के जरिए लोगों तक पहुंची है। कुछ समय पहले एक सांवली रंग की एक लड़की ने बताया कि किस तरह उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे टीम से हटा दिया गया। अब ताजा विवाद चीयरलीडर्स की टीम में शामिल एक दक्षिण अफ्रीकी युवती के ब्लॉग के बहाने शुरू हुआ है। इस युवती ने अपने ब्लॉग में अपने आपबीती का बयान किया है। उसने लिखा है कि वह वही लिख रही है, जो उसने महसूस किया है। आइपीएल चीयरलीडर गैब्रिएला पास्कलोट्टो को खेल के दौरान इस घटना के तत्काल बाद दक्षिण अफ्रीका वापस भेज दिया गया। उसने खिलाडि़यों के अभद्र बर्ताव के बारे में विस्तार से बताया है कि चीयरलीडर्स को लोग पीस ऑफ मीट यानी मांस के लोथड़े की तरह देखते हैं और चलते-फिरते पोर्न की तरह इस्तेमाल करते हैं। मालूम हो कि आइपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग के बहाने पिछले चार साल से कुछ अलग ढंग से क्रिकेट के नए फॉर्मेट वाले खेल का सिलसिला शुरू हुआ है। इसमें देश-विदेश के खिलाड़ी खेलते हैं और अलग-अलग खिलाडि़यों की महंगी बोली लगती है। इसी के साथ हम लोग क्रिकेट के मैदान पर चीयरलीडर्स से रू-ब-रू हुए हैं। खेल शुरू होने के पहले अलग ढंग से परिधान में सजी इन युवतियों की प्रस्तुतियां एक तरह से क्रिकेट के खेल की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए होता है। निश्चित ही यह कोई पहली घटना नहीं होगी और न ही मामला सिर्फ गैब्रिएला तक सीमित होगा। देखने और सुनने में जो आया है उसके मुताबिक खिलाड़ी, दर्शक तथा खेल से जुड़े अधिकारी और कर्मचारी भी चीयरलीडर्स के साथ छूट लेने में कतराते नहीं हैं, क्योंकि उनकी नियुक्ति ही उत्साहवर्धन और मनोरंजन के लिए होता है। इस चीयरलीडर के खुलासे ने परदे के पीछे ऑफ द पिच पार्टी की संस्कृति से पर्दा उठा दिया है। वीआइपी के रूप में एकत्र लोग कैसा आनंद उठाते हंै इसकी झलक इस आत्मकथा टाइप बयान में देखी जा सकती है। वह कहती है कि ये नशा करते हंै और उससे उन्हें आसानी से हासिल करने की इच्छा रखते हैं। इस बारे में आयोजकों का कहना है कि उन्हें उनके काम और भूमिका के बारे में स्पष्ट रूप से पहले ही बताया गया होता है और ताली एक हाथ से नहीं बजती। चीयरलीडर्स खुद भी मर्यादा तोड़ती हैं। संभव है कि इस बात में भी सच्चाई हो फिर भी मुद्दा अपनी जगह पर कायम है, जो वहां उपस्थित पुरुषों के नजरिये और कंुठित मानसिकता को कठघरे में खड़ा करता है। मूल प्रश्न यह है कि खेलों को लोकप्रिय बनाने के लिए चीयरलीडर्स की जरूरत ही क्यों पड़ी? जिसकी खेल में रुचि है वह खेल देखेगा इससे काम क्यों नहीं चला? इस पूरे घटनाक्रम पर सेलेब्रिटी लोग चुप हैं फिर चाहे वह शिल्पा शेट्टी हों, प्रीति जिंटा हों या नेस वाडिया। इस खेल महकमे से कुछ लोग मीडिया को बताते हंै कि वे लड़कियां भी वयस्क होती हंै और कांट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करते समय उनको यहां के वातावरण के बारे में अच्छी तरह से सब कुछ पता होता है। भारत के कुछ खास शहरों में खासतौर पर उत्तर भारत में लड़कियों के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार आम बात है। पिछले साल आइपीएल पार्टी में कुछ आम दर्शक भी घुस गए थे तथा जिसे लेकर काफी बवाल मचा। यह भी कहा जाता है कि जो विदेशी चीयरलीडर्स होती हैं उनसे लोग ज्यादा छूट लेते हैं, क्योंकि उनका पहनावा अलग होता है और भारतीय पुरुषों को वह ज्यादा आकर्षित करती हैं। पिछले साल एक मॉडल ने कहा कि रैंप का तख्त जानबूझकर ऊंचा रखा गया था ताकि दर्शक इन्हें ठीक से देख पाएं। इसे आयोजकों ने बकवास आरोप बताया था। एक चीयरलीडर ने व्यंग्य में इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार को बताया कि आप क्या सोचते हैं कि दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में मैच में लोग सिर्फ सीटी बजाते हैं। कहने का तात्पर्य यह था कि लोग तरह-तरह की अश्लील भंगिमाएं और कमेंट भी करते हैं। याद रहे कि दो साल पहले भारत-ऑस्ट्रेलिया के एकदिवसीय मैच में चीयरलीडर्स की तरह ड्रिंकग‌र्ल्स का जादू भी दर्शकों पर छा गया। ये लड़कियां इंटरवल के दौरान ड्रिंक्स की ट्रॉली लेकर मैदान में पहुंचती हैं, फिर खिलाड़ी के साथ दर्शक भी निहारते है इन्हें। उड़ीसा में कलिंगसेना के लोगों ने चेताया था कि कटक में होने वाले मैचों में चीयरग‌र्ल्स और ड्रिंकग‌र्ल्स तंग कपड़ों में नहीं, बल्कि साड़ी में आएं। पोशाक चाहे साड़ी हो या स्कर्ट, उससे औरत की पोजिशन या उसके सम्मान पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। कपड़ों के पीछे के शरीर के बारे में ही लोग सोचते-विचारते रहते हैं। किसी भी कपड़े में लिपटी इन लड़कियों की उम्र 18 से 20 वर्ष रखी जाती है यानी दर्शकों को कमनीयता भी चाहिए। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ, जब बैडमिंटन व‌र्ल्ड फेडरेशन की तरफ से महिला खिलाडि़यों के लिए एक नया ड्रेस कोड का निर्देश जारी किया गया। इसके तहत अब उन्हें स्कर्ट में ही खेलना अनिवार्य होगा। ऐसा करने के पीछे फेडरेशन की तरफ से यही कारण बताया गया था कि वे बैडमिंटन के खेल को अधिक आकर्षक बनाना चाह रहे हैं। अगर अखबार में इस संबंध में जारी रिपोर्टो को देखें तो वह टेनिस के तर्ज पर इसे अधिक सेक्सी और ग्लेमरस बनाना चाह रहे हैं। इस पर गौर करने की बात थी कि आकर्षक खेल के लिए अच्छा खेल खेलना मायने रखता है या खिलाडि़यों द्वारा पहना जाने वाला पोशाक मायने रखती है। इस सवाल पर फेडरेशन का कहना था कि इसके द्वारा बैडमिंटन के प्रशंसकों और दर्शकों की संख्या बढ़ेगी तथा स्पॉन्सरशिप भी बढ़ेगा यानि शोहरत और आय के लिए खेल ही नहीं खिलाडि़यों के आकर्षण को भी बेचा जाना जरूरी है। वापस यदि हम चीयरलीडर्स की चर्चा पर लौटें तो यहां इन लड़कियों का ही नहीं, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति का भी जलवा है। इसमें सब कुछ उपभोग के लिए होता है और पितृसत्ता भी उन्हें उपभोग की वस्तु ही मानती है। वह यदि औरतों को बराबरी और गरिमा का दर्जा देने लगे तो अपनी ही कब्र खोदेगी। अक्सर कई लोग इस भ्रम के शिकार होते हैं कि जो लोग औरत के भारतीय परिधान या भारतीय परंपरा व संस्कृति की बात कर रहे हैं वे शायद औरत को सम्मानित जगह दे रहे हैं। दरअसल, दोनों ही प्रकार के सोच वालों के लिए औरत का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इनकी नजर में वो बराबरी की हकदार नहीं है। एक के लिए वह घर-परिवार में कैद निजी इस्तेमाल की वस्तु है तो दूसरा मुफ्त बाजार में परोसने की हिमायत करता है। औरत की असली मुक्ति तो वहीं होगी, जिसमें वह न देवी समान हो न दासी समान और न ही बिकाऊ माल के बराबर, बल्कि वह स्वतंत्र हैसियत वाली बराबर की इंसान हो, जिसमें स्त्रीसमुदाय का होने का कारण वह किसी प्रकार के सामाजिक गैर-बराबरी की शिकार न हो। ऐसा समाज निर्मित किया जाना बाकी है और जो इसी समाज में मौजूद सही विचार और सोच वाले स्त्री-पुरुष मिलकर बनाएंगे। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


Wednesday, May 11, 2011

कच्ची है कसौटी


पुरुष व्यवस्था की मारी हुई हमारी तथाकथित विवेकशील स्त्रियों में उन विचारों की बहुत कमी है, जो किसी औरत के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने या कि उसके लिए प्राणरक्षक की भूमिका में बेहतर सिद्ध हो सकते हैं। पंजाब महिला आयोग की टिप्पणी को प्रख्यात साहित्यकार कृष्णा सोबती पढ़कर हंस पड़ी होंगी या कि महिला आयोग पर अफसोस किया होगा? तस्लीमा जी भारतीय प्रबुद्ध महिलाओं के इस कदम को कैसे देखेंगी? कितनी चिंता है हमें विवाह संस्था के कुपोषण के लिए, परिवारों को क्षतिग्रस्त होने के लिए और कितना डर है? हमारे पुरुष वर्ग को अपने वर्चस्व को क्षीण होते जाने की आशंका का। हम मान रहे हैं कि अभी स्त्रियां पूरी तरह मजबूत नहीं हुई हैं, जबकि इन दिनों पुरुष-सत्ता में ले-दे मची हुई है। एक छोटी सी बातूनी डिबिया (मोबाइल फोन) औरत के हाथ में क्या आयी कि समाज में हाहाकार मच उठा, जैसे औरत ने एके-47 थाम ली हो। इसमें शक नहीं कि बहू हो या बेटी, जब मोबाइल के जरिये किसी से बात कर रही होती है, अभिभावकों का दिल र्थरा उठता है। पत्नी को फोन कान से लगाये और चटर-पटर बात करते हुए देखकर पति को अपने आसपास ही किसी खलनायक की बू आती है। सव्रे करके देख लिया जाए कि कितने परिवार अपनी कुंआरी बेटियों और जवान बहुओं के पास मोबाइल होने के पक्ष में है? हमारा दावा यह भी है कि प््राा इ व्ाे ट बतकही के लिए ज्यादातर परिवार या ससुराल पक्ष तैयार नहीं होंगे। हमने मान लिया है कि शासकों के सिंहासन डगमगाने लगे। बस, इसलिए ही मैं सभा-गोष्ठियों में और अखबार के पन्नों पर, टीवी चैनल के जरिये बरसों से मोबाइल फोन का धन्यवाद करती आ रही हूं, जिसने औरत की इच्छा- वरणी मूक पड़ी आवाज खोल दी। स्त्री अपनी ही आवाज पर आज चकित है जिसने स्वामी, मालिक और तथाकथित राजाओं के दिल दहला दिये। कितना अच्छा था, तब जब बेटियों के प्रेम-पत्र पकड़े जाते थे। सजा के रूप में शादी का फरमान तुरत-फुरत सुनाकर मेल- बेमेल, अधेड़-बूढ़ा, दे स- परदेस का वर ढूंढ़ दिया जाता था और कन्यादान करके मां-बाप गंगाजी नहा आते थे। कितना सुनहरा युग गुजरा है, जब बहुएं चुपचाप घर के आंगन में मजूरी करती रहती थीं। अपनी किसी व्यथा या पीड़ा को पी जाना ही हितकर समझती थीं- ‘दुखवा का से कहूं मो री माई’ का मजबूती से बंधा मजबूर सूत्र दुल्हन के मंगल-सूत्र की तरह गले में अदृश्य रूप में दिन-रात रहता था और नव-युवा बहू रो- रोकर अपना दर्द कभी पीपल के पेड़ को सुनाती थी, कभी नीम पर बैठे तोता और कागाओं को। मगर आज उस बेटी या उस बहू के हाथ में मोबाइल फोन है, दिल जरा सा भी दुखा, दर्द माता-पिता तक पहुंचा दिया। हमारे घर की मीरा बहू ने अपने दद्दा से धोती-साड़ी, पायल-बिछिया को दरकिनार करके मोबाइल फोन मांगा था और फोन आते ही ससुराल में भूचाल आ गया, जैसे मीरा का वार्तालाप हर हालत में बहुत होशियारी या दांवपेंच वाला हो सकता है। वह फोन के जरिये शतरंज जैसी चाल चल सकती है, जो आमने-सामने संभव नहीं है। बहुत सी उफनाती ध्वनियां उसके दिमाग में चलती रही हैं, जो चेहरा देखकर ही पहचानी जा सकती थीं मगर कुछ न कहने की मजबूरी, सिर झुकाकर सह जाने की बेबसी के चलते आखिर भीतर का प्रतिरोधी ज्वार थमने लगता। यह अलग बात है कि इस बदलाव के दौरान इंसाफ के लिए अराजकता ऐसी कि स्थिति दर्दनाक और विचलित कर देने वाली हो जाती। सीने में जो सुलगता, आंखों में धुआं-सा चुभता। लड़की का दुख छिपा रहे, वह कष्टों को झेलती चली जाए और ‘उफ’ तक न करें, यह ‘मूल्यवान नियम’ शील-स्त्री का निर्माण करता है। इसी नियम को पोसने की हिमायत में पंजाब का महिला आयोग उठा, तो समझिए कि हमारी महान परंपराओं को सुरक्षित कर रहा है। इसी से मर्दपरस्त संस्कृति उठान पर रहती है। अब ऐसे समाज को सामंती खूंखार या कुटिल न कहें तो क्या कहें जो स्त्री के मनुष्यगत हकों का हत्यारा है। इसी हत्यारी संस्कृति के आधार पर चलती है विवाह संस्था, तभी तो पुरुष वर्चस्व के भोंपू से बोलती हुई पंजाब महिला आयोग की अधिकारियों ने मोबाइल फोन के स्त्री-सहयोग को तलाक का कारण बताया है। तलाक यानी कि उस संबंध से छुटकारा, जिसके कारागार में तरह-तरह की सजाओं का प्रावधान है। घरेलू हिंसा से अग्नि-दहन तक और मर्दानगी की बलिष्ठता के बूते औरत के बहत्तर टुकड़े करके फ्रिज में रख देने तक, तंदूर में झोंक देने तक और सरेआम गोली मार देने तक, सभी के इस संहार को रोकने का उपाय क्या है? कितनों को फांसी हुई है उनके बर्बर कृत्यों पर? इस पर ध्यान देने की जरूरत भी क्या है? हमारे महान ग्रंथों में लिखा है कि सती होना स्त्री का परम धर्म है या उसे खत्म कर देने से कोई पाप नहीं लगता। तभी तो जब औरत सब तरफ से निराश-हताश होकर फैसला अपने हाथ में ले लेती है, तो कचेहरियों तक चिल्लाने लगती हैं कि औरत अगर पति पर वार करेगी तो विवाह संस्था का क्या होगा? शादी पर किसको िव्ा श् व्ाा स्ा रहे गा? पूछने का मन करता है कि स्त्री-हत्या की रोजाना की खबरें, भ्रूण-हत्या के नजारे और घरेलू-हिंसा की दर्दनाक कहानियां औरत की आस्था को कितनी बचा पाती हैं कि वह विवाह को बचाये। तलाक से डर लगने लगा है मदरे को, मदरे के पैरोकार परिवारों को। तभी तो हमारा समाज तकनीकी योग्यता और तमाम हलकों में देश की मजबू ती पर ताल ठोकते हुए चोर निगाहों से औरत की तरक्की देखकर बौखला जाता है। जैसे औरत का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर उसके अपने इरादों के मुताबिक ऊंचा हो, तो मर्दाने समाज की तौहीन होती है। मोबाइल फोन ही क्यों, स्त्री की वेशभूषा उसकी शिक्षा-दीक्षा के साथ योग्यता और क्षमता दहशत पैदा कर रही है, नहीं तो दिनदहाड़े बलात्कार और कत्ल के रास्ते औरत को ठिकाने क्यों लगाया जाता? वही कि अब वह आंखें नीची करके, कंधे झुकाकर चलने वाली लड़की से ऊपर उठकर आपकी आशनाई, कामुकता और मालिकाना अंदाज का जवाब अपनी इच्छा और अपने फैसले के हिसाब से दे रही है, जो आपको कड़ी चुनौती लगती है तो फिर छीनो मोबाइल, बैन कर दो इंटरनेट और प्रतिबंध लगा दो जींस और टॉप पर। घाघरा लूगड़ी या बुर्के घूंघट में बन्द कर दो उसका मनुष्यगत व्यवहार कि उसकी ज्ञानेन्द्रियां सुन्न हो जाएं और वह फिर से मूक के रूप में, कोल्हू के बैल के अभ्यास में उतर जाए। मगर अब ऐसा कुछ किसी के बस का नहीं क्योंकि आदि-ग्रंथों की अत्याचार-संहिता को स्त्री ने सिरे से नकार दिया है, ऋषियों और गुरुओं का कहा-सुना सब धोखे का सौदा है, क्योंकि आदि- ग्रंथों का सच हैं जाबालाएं और एकलव्य, सूर्पनखा और सीता। जाहिर है, जिन विधानों ने इन स्त्रियों और शिष्यों को अपने युग में जगह दी तो वह जगह दोजख ही कहलाएगी। वे भी बड़े ईमानदार थे, पहले ही घोषणा कर दी- स्त्री और दलित को स्वर्ग भोगने का अधिकार नहीं। मगर आज औरत जान गयी है कि न स्वर्ग किसी देवता के चमत्कार से बनता, न कोई वहां रहने का पट्टा दे सकता। स्वर्गन रक अपने हाथों ही बनते हैं, अपने साहस और बुजदिली से, अपने ज्ञान और अज्ञान से। सच में, हमारे यहां की पुरुष-व्यवस्था अज्ञानी है। नहीं जानती कि औरत अपनी यात्रा में कहां से कहां पहुंच गयी और पुरुष-सत्ता अभी पांसे फेंक रही है, दांव खेल रही है। महिला आयोग के विचारों पर अफसोस किया जा सकता है। गौर करने की बेवकूफी कौन सी औरत करेगी? जरा बुद्धि-विचार तो देख लीजिए कि उनका तर्क है- बहू अपने मायके वालों से एक-एक बात कहती है जिससे मायके के लोग पति-पत्नी के संबंध में हस्तक्षेप करते हैं। इस कारण परिवार टूटते हैं। हस्तक्षेप न करें तो क्या करें? कहें कि हमारी बेटी को जमकर यातना मिले। या आंखें मूंद लें? पहले माता-पिताओं की तरह कहें- डोली यहां से उठी है, अर्थी पति के घर से उठे। यानी कि अब मरने-जीने के लिए तुम वहां अकेली हो, जहां तुमको बैल की तरह दिन-रात जोता जाना ही आदर्श नियम है। अभी तक जो हत्याएं हो रही हैं, वे ज्यादातर इसलिए ही हो रही हैं कि लड़की के माता-पिता उदासीन रहते हैं। पति-पत्नी या बेटी की ससुराल के बीच में आना ‘अशोभनीय’ बताया गया है तो अब यह नयी बात भी जान लेनी चाहिए कि जो कुछ पुराने वक्तों में बताया गया है, वह सारा कुछ सही नहीं है। वह बहुत कुछ बहू-बेटियों के खिलाफ बनाया गया है इसलिए गलत नियमावली में तब्दीली की सख्त जरूरत है। क्या यहां मदरे से भी मोबाइल छीनने का फरमान जारी हो सकता है? क्या वे मोबाइल या ऐसे ही तेज गति के साधनों से सारे काम विवाह संस्था के हित में करते हैं? आपकी कसौटी बड़ी कच्ची है और आप घिसने लगते हैं उस पर स्त्री को, जो अपने इरादों में काफी मजबूत हो चली है।