Thursday, December 30, 2010

वायुसेना की महिला अफसरों के कदम होंगे एवरेस्ट पर

आसमान की बुलंदियों को छूने वाली भारतीय वायु सेना की महिलाएं अब सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर अपने कदम रखने जा रही है। सेना की सिर्फ महिला अधिकारियों का एक दल अगले साल एवरेस्ट पर चढ़ाई करने की योजना बना चुका है। यह पहला मौका होगा जब किसी भारतीय सैन्य बल की महिला टीम एवरेस्ट फतह के अभियान पर निकलेगी। इस अभियान के लिए महिलाएं मानसिक तैयारी करते हुए सेना की महिला टीम 7757 मीटर ऊंची माउंट कामेट और 7354 मीटर ऊंची माउंट अबी गामिन फतह कर चुकी है। ये सफल अभियान इस साल मई में आयोजित किया गया था। महिला टीम माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने की पूरी तैयारी में है।


Tuesday, December 28, 2010

महिला हिंसा के विरुद्ध अभियान

हाल के वष्रो में महिलाओं पर हो रही हिंसा के विरुद्ध कई सशक्त आवाजें उठी हैं। सरकार ने पहले से बेहतर कानून भी बनाया है, फिर भी सवाल बचा है कि दूर-दराज के गांवों में इस कानून का क्रियान्वयन कितना हो सकेगा। अनुभवी लोगो का मत है कि कानून कितने भी अच्छे बनें पर जब तक विभिन्न समुदायों में इसकी मान्यता नहीं बढ़ती है तब तक व्यापक व वास्तविक बदलाव की उम्मीद कम होती ही होती है। अत: जमीनी स्तर पर हिंसा के विरुद्ध कार्य करना व पूरे समुदाय में हिसा के विरुद्ध माहौल तैयार करना सबसे आवश्यक कार्य है। देहरादून के सहसपुर व विकासनगर प्रखंडों में हाल के वष्रो में दिशा संस्था महिला हिंसा के विरुद्ध उल्लेखनीय प्रयास कर रही है। इन गांवों में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के अनेक समाचार मिलते रहते थे। हालांकि ऐसे समाचार आज भी मिलते हैं पर निश्चित ही उनकी संख्या में कुछ कमी आई है। दूसरे महिला समुदाय में ऐसी घटनाओं के विरोध की हिम्मत बढ़ी है। अत्याचार के विरुद्ध समुचित कानूनी कार्रवाई होने से महिलाओं को न्याय मिलने की उम्मीद बढ़ी है। शुरू में दिशाने जब यहां कार्य आरंभ किया तो उसके कार्र्यकताओं के विरुद्ध काफी भला-बुरा कहा गया लेकिन उन्होंने इसकी परवाह किए बिना गांववासियों से बातचीत का सिलसिला जारी रखा। महिलाओं ही नहीं पुरुषों से भी इस विषय पर बातचीत चलाई गई कि महिलाओं पर हो रही हिंसा समाज के लिए कितना बड़ा कलंक है। स्कूलों-कॉलेजों में कार्यक्रम कर युवकों-किशोरों से पूछा गया कि क्या लड़कियों के साथ हो रहा ऐसे भेदभाव उचित है तो लड़कों ने घर में कहना आरंभ किया कि हमारी बहन को भी स्कूल भेजो। कई युवा तो दिशा के साथ मिलकर प्रचार-प्रसार भी करने लगे। इस मेहनत का परिणाम तब सामने आया जब इस प्रयास के आरंभ होने के दो-तीन र्वष के भीतर ही सहसपुर में आयोजित महिला हिंसा विरोधी सम्मेलन में चार से पांच हजार महिलाएं एकत्र हो गई। वे दूर-दराज के गांवों से अपने र्खच पर आईं। अनेक गांवों में सार्थक बदलाव की प्रक्रिया को, महिलाओं की समता और न्याय की आवाज को आगे ले जाने वाली चेंज मेकरतैयार होने लगीं। इस मुहिम के तहत लगभग 35 गांवों में महिला समितियों व किशोरी मंच का गठन हुआ। दिशा के कार्यक्षेत्र के गांवों में मुसलमानों व दलित परिवारों की संख्या अधिक है। विशेषकर मुसलमान किशोरियों में शिक्षा का अभाव अधिक देखा जाता है। दिशा ने उनके लिए विशेष शिक्षा कार्य चलाया जो कुछ समय तो काफी जोरशोर से चला पर अर्थाभाव के कारण इसे रोकना पड़ा। दिशा का प्रयास है कि कुछ साधन उपलब्ध होते ही इसे व्यापक स्तर पर फिर आरंभ किया जाएगा। दिशा की कार्र्यकताओं ने दूर-दराज के गांवों में जाकर दोनों पक्षों को संतुष्ट करते हुए ऐसे कई मामले मौके पर ही निबटाए जिनके कारण हिंसा की संभावना थी। जो मामले अधिक उलझे थे उनके लिए प्रतिमाह एक दिन अपने सहसपुर स्थित मुख्यालय में नारी अदालत का आयोजन आरंभ किया गया। कम समय में संस्था ने लोगों का विश्वास प्राप्त किया है और लोग इस अदालत में दूर-दूर से पहुंचते हैं। हाल में महिलाओं के प्रति अत्याचार-अन्याय के अनेक गंभीर मामले दिशा की सहायता से सुलझाये गए हैं जिसमें दोषियों को सजा दिलवाई गई। इनमें जहां बच्चियों या किशोरियों के साथ दुराचार के गंभीर मामले थे, वहीं बिरादरी पंचायतों द्वारा अन्यायपूर्ण फैसलों के मामले भी थे। यह ऐसे मामले थे जिन्हें सुलझाने में या दोषियों को सजा दिलवाने में दिशा की अपनी कार्र्यकता ही कई बार संकट से घिर गईं। पर अंत में प्राय: उन्हें सफलता मिली व जिन पर अत्याचार हुआ था उन्हें भी राहत मिली। बहुत कठिन परिस्थितियों में दिशा को यह सफलता मिलने की एक वजह यह है कि उसने स्थानीय समुदाय, मीडिया, और सरकारी मशीनरी की सहायता से अपने प्रयास को मजबूत बनाने की कोशिश की है। संस्था की एक कार्र्यकता ने बताया कि कई बार नीचे के पुलिस अधिकारियों ने सहयोग नहीं किया तो ऊपर के अधिकारियों से संर्पक कर राह निकाली गई। सफलता की दूसरी वजह यह है कि दिशा की अनेक कार्र्यकताओं ने अपने जीवन में भी अनेक कठिनाईयों का सामना किया है और इसी कारण उनकी संवेदनाएं और गहरी हुई हैं जिसके कारण वह मन से काम कर रही हैं। आबीदा खातून ने बताया कि कैसे दिशा में आने के बाद पहले वह स्वयं बुर्के से मुक्त हुई और उसके बाद अनेक महिलाओं की सहायता के लिए पहुंची। अनीशा को कम उम्र में ही परिवार की अधिक जिम्मेदारियां संभालनी पड़ी हैं पर वह इसके साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी मजबूती से संभाल रही हैं। दिशा की छह-सात सदस्यों की टीम जहां महिला अधिकारों को बुलंद कर रही है, वहां इनकी सहयोगी एक अन्य टीम ने माइक्रो फाइनेंस या छोटे स्तर के र्कज से चलने वाले उद्यमों में उल्लेखनीय प्रगति की है। कमलेश ने बताया कि स्वयं सहायता समूहों का गठन भी किया गया तथा अलग से केवल र्कज प्राप्त करने के इच्छुक समूहों का भी। तमाम सावधानियां अपनाते हुए कमजोर र्वग के हितों को ध्यान में रखकर ही र्कज दिया जाता है। 

विवाह, विवाद और संपत्ति

यह सदी महिलाओं के लिए काफी अहम रही। कई नए कानून बने तो कई कानूनों में परिर्वतन किया गया, जिससे महिलाएं काफी सशक्त हुईं। घरेलू हिंसा से लेकर ऑफिस की कामकाजी महिलाओं को लेकर इसी दशक में कानून बना। बेटियों को बेटों के समान पैतृक संपत्ति का अधिकार दिया गया। 2005 में हिन्दू उत्तराधिकार कानूनमें बदलाव किया गया। अभी तक बेटियों को संपत्ति में अधिकार नहीं था। यह सबसे बड़ा बदलाव है। कानून बन गया तो लोगों को दिमाग में यह बात आ गई कि बेटा-बेटी, दोनों समान हैं। 2007 में चाइल्ड मैरिज एक्ट में जो प्रिवेंशनथा, वह प्रोहिविशनबन गया। अभी तक चाइल्ड मैरिज होने देने को लेकर कानून बना था, जबकि अब उसे रोकने के लिए कानून बन गया। बाल विवाह कराने वालों को दो साल की सजा और एक लाख रुपए का जुर्माना तय किया गया है। पति-पत्नी में जो भी नाबालिग है, कोई भी शादी के खिलाफ कोर्ट में आवेदन कर सकता है। यदि पत्नी नाबालिग है और पति बालिग है, उन्हें बच्चा हो जाता है तो दोनों का पालन- पोषण पति करेगा। यदि दोनों नाबालिग है तो पति के मां-बाप उनके मैंटेनेंस का र्खच वहन करेंगे। इस कानून को गैर-जमानती बनाया गया है। इसके जरिए लड़कियों को बहुत फायदा होगा, क्योंकि वे ऐसे मामलों से ज्यादा परेशानहाल थीं। 2005 में डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट आया। हालांकि यह अक्टूबर, 2006 से लागू हुआ। इसके तहत महिलाओं को, चाहे वे मानसिक हो या शारीरिक, किसी भी तरह के उत्पीड़न के लिए घर के लोगों को दोषी माना जाएगा। इस कानून का दायरा और भी व्यापक किया गया। फाइनेंशियल, सेक्सुअल या फिर इमोशनल प्रताड़ना देने पर भी सजा का प्रावधान किया गया है। इसके दायरे में घर में रह रही छोटी बच्चियों से लेकर बुजुर्ग सदस्य तक को भी शामिल किया गया है जिन्हें दोषी ठहराया जाएगा। साथ ही, लिविंग रिलेशनशिप वाली महिलाओं को भी र्पयाप्त अधिकार दिए गए हैं। इन महिलाओं को भी इस कानून में शामिल किया गया है और उन्हें भी इसका लाभ मिलेगा। साथ ही, पीड़िता को पुलिस के पास जाने की जरूरत नहीं है। कानून के तहत दो अधिकारियों, ‘प्रोटेक्शन अफसरऔर र्सविस प्रोवाइडरकी नियुक्ति की गई है। यदि महिलाओं को घर में मारा-पीटा जाता है तो उनके पुर्नवास या रहने या सुरक्षा की जिम्मेदारी प्रोटेक्शन अफसर की होगी। इस पर होने वाले र्खच को पति या फिर संबंधित दूसरे लोगों से वसूला जाएगा। यदि प्रताड़िता कोर्ट जाने में अक्षम है तो र्सविस प्रोवाइडर उसके बदले कोर्ट में पेश होगा और सारी कार्यवाही में उसके बदले प्रस्तुत होगा। प्रताड़िता के मैंटेनेंस, शिक्षा, टेलीफोन आदि की सुविधा, यदि नहीं दी जाती है तो उसके उपाय भी इस कानून के जरिए किए गए हैं। घरेलू उत्पीड़न से जुड़े किसी भी मामले की सुनवाई 60 दिनों के भीतर किए जाने को भी सुनिश्चित किया गया। 2001 में मुआवजे को लेकर भी महिलाओं का सशक्त किया गया। तलाक के बाद पत्नी को गुजारा-भत्ता के तौर पर दिए जाने वाले रकम को लेकर कानून में साफ-साफ कुछ भी नहीं लिखा था। केस चलता था लेकिन महिला या पुरुष को कोई भत्ता नहीं मिलता था। अंतरिम मैंटेनेंस पाने की अवधि नहीं होती थी, लेकिन अब केस के दौरान यदि महिलाओं को पैसे की जरूरत होगी तो पुरुष को देना होगा, खासकर डोमेस्टिक वायलेंस मामले में। हां, इसके तहत भी 60 दिनों के भीतर फैसले आने को सुनिश्चित किया गया। 24 सितम्बर, 2001 में सीआरपीसी यानी आपराधिक प्रक्रिया संहिता में भी बदलाव किए गए। धारा-125 के तहत चाहें तो मां-बाप अपने बच्चे से या बच्चे अपने मां-बाप से मैंटेनेंस मांग सकते हैं। पत्नी भी अपने पति से और पति भी अपनी पत्नी से मैंटेनेंस के लिए पैसे मांग सकता है। भारत में चूंकि, ज्यादातर महिलाएं नहीं कमाती हैं या पति पर आश्रित रहती हैं, इसलिए यह काफी अहम है। अभी तक इस कानून के तहत पर व्यक्ति के हिसाब से 500 रुपए निश्चित किया गया था। यानी माता-पिता दोनों को मैंटेनेंस देनी हो तो 1000 रुपए में काम चल जाता था। लेकिन, अब यह अनलिमिटेड हो गया है और बच्चों के रहने-खाने के स्टैंर्डड पर यह रकम तय होगी। सेक्सुअल हैरसमेंट एट र्वकिग-प्लेस इसी दौर में संसद में पेश हुआ था। विशाखा मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया, वह अहम है। कम से कम अब महिलाएं अच्छे माहौल में दफ्तरों में कामकाज कर सकेंगी। शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाना भी इस दशक में अहम रहा। साथ ही, पत्नी के साथ जबरदस्ती करने को रेप की श्रेणी में शामिल किया जाना, महिलाओं के सशक्तिकरण की नई तस्वीर पेश करता है। और भी, कई छिटपुट कानून आए और बदलाव हुए हैं जिससे महिलाएं काफी सशक्त हुई हैं। सही मायने में देखें तो आज पुरुषों की तुलना में महिलाएं काफी ताकतवर हुई हैं बशत्रे, वे उसका प्रयोग सोच-समझकर करें। अब अन्याय का विरोध वह कर सकती हैं। जरूरी नहीं कि कानून आने पर झगड़े किए ही जाएं। इसके अलावा राइट टू एजुकेशन, राइट टू इनफॉम्रेशन से भी महिलाओं को काफी फायदा हुआ है।

Thursday, December 23, 2010

जारी करो फतवा

बात-बात में फतवा देने वाले मौलानाओं/इमामों से मुसलमान औरतें गुजारिश करती हैं कि वे फैलती दहेज प्रथा और मादा भ्रूण  हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करें और समाज में फैल रही कुरीतियों से औरतों को बचाएं। इस्लाम में इस तरह की सामाजिक बुराइयों की पारंपरिक रूप से कोई जगह नहीं रही है। आधुनिक लड़कियां जो पढ़-लिख रही हैं, इन बुराइयों से नयी पीढ़ी को बचाना चाहती हैं। फिरदौस खान की रिपोर्ट
दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फीसद, गुजरात में 50 फीसद और आंध््रा प्रदेश में 40 फीसद लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है।
हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहेज प्रथा और कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयां तेजी से पांव पसार रही हैं। खास बात यह है कि यह सब आधुनिकता के नाम पर हो रहा है। हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वाल्देन लड़की के गुणों से ज्यादा दहेज को तरजीह (प्राथमिकता) दे रहे हैं। एक तरफ जहां बहुसंख्यक तबका दहेज और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहा है, वहीं शरीयत के अलम्बरदार मुस्लिम समाज में फैलती इन बुराइयों के मुद्दे पर आंखें मूंदे बैठे हैं। काबिलेगौर है कि दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनकी पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है। इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफी रकम खर्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता। खास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रकम तय करते वक्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को ताक पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है। उत्तर प्रदेश में तो हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के परिजनों की जेब कटनी शुरू हो जाती है। जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं तो सबसे पहले देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गई हैं, यानी कितने तरह की मिठाई, सूखे मेवे और फल रखे गए हैं। इतना ही नहीं, दावतें भी मुग्रे की ही चल रही हैं, यानी चिकन बिरयानी, चिकन कोरमा वगैरह। फिलहाल 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है। शादी में दहेज के तौर पर जेबरात, फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कीमती कपड़े और तांबे-पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं। इसके बावजूद, दहेज में कार और मोटर साइकिल मांगी जा रही है। भले ही, लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वह तेल का खर्च भी उठा सके। जो वाल्देन अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं। मुरादाबाद की किश्वरी उम्र के 45 वसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेंहदी नहीं सजी। वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं, इसलिए उनके वाल्देन रिश्ते का इंतजार करते रहे। वे बेहद गरीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए। अगर उनके वाल्देन दहेज देने की हैसियत रखते तो शायद आज वह अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता। उनके अब्बू कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए। घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं। सबकी अपनी खुशहाल जिंदगी है। किश्वरी दिनभर बीड़ियां बनाती हैं और घर का कामकाज करती हैं। अब बस यही उनकी जिंदगी है। उनकी अम्मी को हर वक्त यही फिक्र सताती है कि उनके बाद बेटी का क्या होगा, यह अकेली किश्वरी का किस्सा नहीं है। मुस्लिम समाज में ऐसी हजारों लड़कियां हैं, जिनकी खुशियां दहेज रूपी लालच निगल चुका है। राजस्थान के बाड़मेर की रहने वाली आमना के शौहर की मौत के बाद पिछले साल 15 नवम्बर को उनका दूसरा निकाह बीकानेर के शादीशुदा उस्मान के साथ हुआ, जिसके पहली पत्‍नी से तीन बच्चे भी हैं। आमना का कहना है कि उसके वाल्देन ने दहेज के तौर पर उस्मान को 10 तोले सोने, एक किलो चांदी के जेवर, कपड़े और घरेलू सामान दिया था। निकाह के कुछ बाद ही उसके शौहर और उसकी दूसरी बीवी जेबुन्निसा कम दहेज के लिए उसे तंग करने लगे। यहां तक कि उसके साथ मारपीट भी की जाने लगी। वे उससे एक स्कॉर्पियो गाड़ी और दो लाख रु पए और मांग रहे थे। आमना कहती हैं कि उनके वाल्देन इतनी महंगी गाड़ी और इतनी बड़ी रकम देने के काबिल नहीं हैं। आखिर जुल्मोसितम से तंग आकर आमना को पुलिस की शरण लेनी पड़ी। राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का करीब एक साल पहले सद्दाम से निकाह हुआ था। शादी के वक्त दहेज भी दिया गया था, इसके बावजूद उसका शौहर और उसके ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे। उसके साथ मारपीट की जाती। जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया तो पिछले साल 18 अक्टूबर को उसके ससुरालवालों ने मारपीट कर उसे घर से निकाल दिया। अब वो अपने मायके में है। मुस्लिम समाज में आमना और गुड्डी जैसी हजारों औरतें हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है।यूनिसेफके सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फीसद, गुजरात में 50 फीसद और आंध््रा प्रदेश में 40 फीसद लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है। दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं। जहां कुछ मुसलमान दहेज को गैर इस्लामी करार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज मानते हैं । उनका तर्क है कि हजरत मुहम्मद साहब ने भी तो अपनी बेटी फातिमा को दहेज (कुछ सामान) दिया था। खास बात यह है कि दहेज की हिमायत करने वाले मुसलमान भूल जाते हैं कि पैगंबर ने अपनी बेटी को विवाह में बेशकीमती चीजें नहीं दी थीं। इसलिए उन चीजों की दहेज से तुलना नहीं की जा सकती। यह उपहार के तौर पर थीं। उपहार मांगा नहीं जाता, बल्कि देने वाले पर निर्भर करता है कि वह उपहार के तौर पर क्या देता है, जबकि दहेज के लिए लड़की के वाल्देन को मजबूर किया जाता है। लड़की के वाल्देन अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े। मुसलमानों में बढ़ती दहेज प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई भी पनप रही है। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में 13.4 फीसद मुसलमान हैं और लिंगानुपात 936 है। मुरादाबाद की शकीला कहती हैं कि उनके ससुराल वाले बेटा चाहते थे, इसलिए हर बार बच्चे के लिंग की जांच कराते और लड़की होने पर गर्भपात करवा दिया जाता है। उनके चार बेटे हैं, इन चार बेटों के लिए वह अपनी पांच बेटियों को खो चुकी हैं। उन्हें इस बात का बेहद दुख है। लाचारी जाहिर करते हुए वह कहती हैं कि एक औरत कर भी क्या सकती है। इस मर्दाने समाज में औरत के जज्बात की कौन कद्र करता है। मुसलमानों में लिंग जांचने और कन्या भ्रूण हत्या को लेकर दारूल उलूम नदवुल उलमा (नदवा) और फिरंगी महल के दारूल इता फतवे जारी कर चुके हैं। फतवों में कहा गया था कि शरीयत गर्भ का लिंग आधारित जांच की इजाजत नहीं देती, इसलिए यह नाजायज है। ऐसा करने से माता-पिता और इस घृणित कृत्य में शामिल लोगों को गुनाह होगा। काबिलेगौर बात यह है कि इस तरह के फतवों का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाता। ऐसे फतवे कभी-कभार ही आते हैं, जबकि बेतुके फतवों की बाढ़ आई रहती है।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि पिछले काफी अरसे से आ रहे ज्यादातर फतवे महज मनोरंजन का साधन ही साबित हो रहे हैं। भले ही, मिस्र में जारी मुस्लिम महिलाओं द्वारा कुंवारे पुरुष सहकर्मिंयों को अपना दूध पिलाने का फतवा हो या फिर महिलाओं के नौकरी करने के खिलाफ जारी फतवा। अफसोस है कि मजहब की नुमाइंदगी करने वाले लोग समाज से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेते। हालांकि इसी साल मार्च में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता जाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने का फैसला किया था। बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य जफरयाब जिलानी के मुताबिक, मुस्लिम समाज में शादियों में फिजूलखर्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ मस्जिदों में ही करवाया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें। साथ ही, इस बात का भी ख्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर खर्च का ज्यादा बोझ न पड़े, जिससे गरीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके। इस्लाह-ए- मुआशिरा (समाज सुधार) की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों को बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीका क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है जिसमें सबसे कम खर्च हो। साथ ही, इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रायश्चित किए जाने पर जोर दिया गया था सिर्फ बयानबाजी से कुछ होने वाला नहीं है। दहेज और कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने की जरूरत है। इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं। जुमे की नमाज के बाद इमाम नमाजियों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि ये बुराइयां किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है। इसके अलावा, औरतों को भी जागरूक करने की जरूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच मर्दाें से ज्यादा औरतों को होता है। अफसोस की बात तो यह भी है कि मुस्लिम समाज अनेक हिस्सों में बंट गया है। अमूमन सभी तबके खुद को असली मुसलमान साबित करने में ही जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान जाता ही नहीं है। बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर मजहब के ठेकेदार कुछ सार्थक काम भी कर लें, तो मुसलमान औरतों का कुछ तो भला हो ही जाएगा।

Monday, December 20, 2010

कब तक मारी जाएंगी औरतें

एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर द्वारा अपनी पत्नी की निर्मम हत्या बेशक इस तरह की पहली घटना नहीं है। लेकिन लगातार ऐसी संवेदनशून्यता परिवार और समाज के लिए चिंता का विषय तो है ही। इस समाज में ऐसे भी अभागे बच्चे होंगे, जिन्होंने अपनी मां को पिता के हाथों मरते देखा होगा। मां की ममता से वंचित कर दिए गए ऐसे बच्चे शायद ही इस सदमे से कभी मुक्त हो सकें।
अपने लिए तमाम तरह की आजादी चाहने वाले पुरुष की दृष्टि में स्त्री का किसी और से संबंध होना इतना बड़ा अपराध है कि वह उसके जीवन को ही खत्म कर दे सकता है। यह जंगल न्याय ही है, क्योंकि शक्ति संतुलन पुरुष के पक्ष में है। यह तथ्य स्त्री को दूसरे दरजे का नागरिक बना देता है।
ऐसी हत्याओं के बीज समाज की संरचना में ही छिपे हैं, चाहे वह भ्रूण हत्या हो, पिता या भाई के हाथों ऑनर किलिंगहो, दहेज हत्या हो, बलात्कार हो अथवा विवादित स्त्री के अवैध संबंधों के कारण हुई हत्या हो। इससे पहले कि यह चुप्पी इन हत्याओं की मौन स्वीकृति बन जाए, इसे तोड़ना जरूरी है। सवाल स्त्री के विवाहेतर संबंधों को समर्थन देने या न देने का नहीं है। सवाल यह है कि इसी मामले में पुरुष अपने लिए अलग मापदंड क्यों रखता है। समाज विवाहेतर संबंधों की तसदीक नहीं करता, लेकिन क्या दूसरी स्त्रियों से संबंधों के कारण किसी पुरुष को कभी जलील होना पड़ता है? फिर कोई विवाहित स्त्री अगर किसी दूसरे पुरुष के प्रति भावुक या संवेदनशील हो जाए, तो पुरुषवर्चस्ववादी समाज कानून अपने हाथ में क्यों ले लेता है?
सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि यदि स्त्री भी शारीरिक-सामाजिक रूप से पुरुष जितनी ही मजबूत होती, तो अपनी ओर उठते हाथों को मोड़ने की ताकत वह रखती। साफ है, इस सामाजिक अन्याय के लिए पुरुष और स्त्री के बीच का प्राकृतिक शक्ति असंतुलन ही जिम्मेदार है। इसी कारण सैकड़ों वर्षों से स्त्री पुरुषों का अत्याचार चुपचाप सहन करती आ रही है।
ऐसी घटनाएं स्त्री में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करती हैं। जब स्त्री ऐसी असुरक्षा के साथ जिएगी, तो उस परिवार का वातावरण कैसा होगा, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं। जिस देश की स्त्रियां इतनी असहाय होंगी, उस देश का भविष्य क्या होगा? यह विडंबना ही है कि सृष्टि की संरक्षिका और जन्मदात्री स्त्री की हत्या इस काबिल भी नहीं कि वह समाज के लिए चिंता और चर्चा का विषय बन सके, भर्त्सना की तो बात ही छोड़ दें।
हर रिश्ते में आजादी चाहने वाले पुरुष को आधी आबादी की आजादी के बारे में भी सोचना होगा। ऐसी सामाजिक चेतना की जरूरत है, जिसमें औरतों के लिए भी संवेदना हो। महिला संगठनों को इस दिशा में सचेत-सक्रिय होना होगा। पहले कहा जाता था कि पुलिस-प्रशासन और राजनीति में महिलाओं की पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं है। आज ऐसी बात नहीं है। प्रशासन से लेकर राजनीति तक में महिलाएं चोटी पर पहुंच गई हैं। इसके बावजूद औरतों पर अत्याचार बदस्तूर जारी है। इसकी वजह दरअसल चोटी पर पहुंची उन महिलाओं का वैचारिक पिछड़ापन और पुरुषों की वैचारिक छाया में रहना है। उन्हें अपनी यह छवि तोड़नी होगी। ऐसी ही सोच महिलाओं को एक मां के रूप में अपने पुत्र में विकसित करनी होगी, ताकि वह स्वस्थ सोच के साथ बढ़े।
विवाहेतर संबंधों को भी आज के सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखना उचित होगा। सबसे पहले तो यह समझ लेना होगा कि ऐसे मामले आपराधिक नहीं हैं, क्योंकि विवाह एक सामाजिक समझौता है, पति-पत्नी के आपसी विश्वास का समझौता। प्रेम और आवश्यकता इसकी दो अनिवार्य शर्तें हैं। साथ रहते हुए मन में प्रेम नहीं पनप पाया, तो समझना चाहिए कि समझौते की नींव हिली हुई है और वह सिर्फ आवश्यकता की दीवार पर टिकी है। इस स्थिति के लिए मौजूदा कॉरपोरेट कल्चर भी जिम्मेदार है, जिसमें पुरुष और स्त्री साथ-साथ काम करते हैं। पश्चिम में तो यह स्थिति पहले से ही थी, अब भूमंडलीकरण के कारण यहां भी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं। लिहाजा ऐसी स्थिति में पति-पत्नी, दोनों को एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसे घर में ही सुलझाना होगा। तथ्य यह है कि दुनिया की कोई भी वैवाहिक व्यवस्था, चाहे वह कितनी भी सुदृढ़ क्यों न हो, इन्हें रोक नहीं पाई है। लिहाजा इसके समाधान परिवार अथवा कानून की परिधि में तलाशना ही उचित है।