Thursday, September 29, 2011

मातृत्व अवकाश का सवाल


हाल में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यह स्वीकार किया कि विश्वविद्यालय से जुडे़ सभी कॉलेजों में महिला शिक्षक अब अपने चाइल्ड केयर लीव का उपयोग आसानी से कर पाएंगी। दरअसल विकल्प के अभाव में कई कॉलेजों की महिला शिक्षक बच्चों की देखभाल वाली छुट्टियां नहीं ले पा रही थीं। यूजीसी के स्पष्टीकरण के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने कहा है कि चाइल्ड केयर लीव पर जाने वाली शिक्षिकाओं की जगह तदर्थ तथा गेस्ट लेक्चरर की नियुक्ति की जाएगी। यह सही है कि छात्रों के लिए वैकल्पिक इंतजाम जरूरी हैं ताकि उनकी पढ़ाई बाधित न हो, लेकिन यूजीसी से यह अवश्य पूछा जाना चाहिए कि वह चाइल्ड केयर की सुविधा सिर्फ महिलाओं को किन वजहों से दे रहा है? वैसे तो यह नियम केंद्र सरकार ने बनाया है और उससे भी यह पूछना चाहिए कि बच्चों की देखभाल बच्चों के पिता क्यों नहीं करेंगे? मातृत्व अवकाश तो महिलाओं को ही मिलना चाहिए और यह सही है कि उसे तीन महीने से बढ़ाकर छह माह किया गया है। इस समय मांओं को स्वास्थ्य लाभ के साथ नवजात शिशु को स्तनपान भी कराना होता है इसलिए यदि मातृत्व अवकाश को जरूरत पड़ने पर कुछ माह और बढ़ा दिया जाए तो वह वाजिब होगा, लेकिन चाइल्ड केयर लीव की सुविधा तो बच्चे की शुरुआती उम्र से लेकर 18 वर्ष के होने तक कभी भी ली जा सकती है। बच्चों की जरूरतें ऐसी होती हैं, जिसमें माता-पिता को छुट्टी लेनी पड़ती है और नौकरी के दौरान कर्मचारी को ऐसा मौका अवश्य मिलना चाहिए कि वह अपने बच्चे की परवरिश ठीक से कर पाए। याद रहे कि जब गृह मंत्रालय ने महिलाओं के लिए ढाई साल के देखभाल अवकाश को मंजूरी दी तो मीडिया ने उसे महिलापक्षी कदम बताया था। लोगों ने कहा और लिखा कि आजकल के एकल परिवारों में जहां पति-पत्नी दोनों नौकरी पर जाते हों वहां बच्चे बेचारे उपेक्षित रह जाते हैं। साथ ही सरकार ने यह कहा कि ऐसी सुविधा वह इसलिए दे रही है ताकि महिलाएं बच्चों की जिम्मेदारी के कारण अपनी नौकरी न छोड़ें और समाज उनके अनुभव का लाभ उठा सके। हो सकता है इन बातों में कुछ सच्चाई भी हो, लेकिन यदि किसी साधारण समझ के इंसान से भी हम समझना चाहें तो जान सकते हैं कि आज के उदारवाद और निजीकरण के जमाने में जहां परफार्मेस ही नौकरी में बने रहने का मूल तत्व हो और प्रतियोगी माहौल सर्वत्र व्याप्त हो तो उसमें ढाई साल तक भले टुकड़े टुकड़े में ही छुट्टी ली गई हो वह अपने कार्यक्षेत्र से बाहर रहेगी तो क्या वह लौटने पर अच्छा नतीजा दे पाएगी? यहां प्रमुख मुद्दा यह है कि जो काम माता-पिता में से कोई भी कर सकता है उसके लिए विकल्प खुला क्यों नहीं रखा जाता ताकि माता-पिता स्वयं तय करें कि वह जिम्मेदारी कौन निभाए? आज के समय में यह सुविधा सिर्फ महिलाओं को देना लिंगभेद के दृष्टिकोण का परिचायक है, क्योंकि एक तो यह जिम्म्ेादारी उठाने के लिए बाध्य करेगा दूसरी बात आज के समय में परफॉर्मेस एक महत्वपूर्ण कारक है। उल्लेखनीय है कि यह छुट्टी दो बच्चों के 18 साल का होने तक कभी भी ढाई-ढाई साल की ली जा सकती है। यानी सभी छुट्टी जोड़ लें तो कुल छह साल तक वह नौकरी पर रहते हुए घर में बिता सकती है। इसे सिर्फ सहूलियत के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि वह एक कर्मचारी और सेवाप्रदाता भी है जिसे सरकारी और सामूहिक खजाने से वेतन मिलता है। बराबर काम के लिए बराबर दाम के साथ बराबर की जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है। यह सही है कि बच्चे की जिम्मेदारी उठाकर वह दूसरे रूप में समाज की जिम्मेदारी उठाती है, लेकिन यह जिम्म्ेादारी का बोध पुरुषों में भी डालना जरूरी है। दरअसल, आज के समय में किसी न किसी रूप में यह मुद्दा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में एजेंडा पर आया है कि जब महिलाएं सार्वजनिक दायरे की जिम्मेदारी बराबरी से निभा रही हैं तो निजी दायरा सिर्फ उन्हीं के हिस्से में क्यों माना जाए? शहरी मध्यवर्ग के परिवार इसका एक सतही समाधान निकाल लेता है कि जो काम पहले सिर्फ औरत करती थी, उसके लिए मेड रख ली जाती हैं, लेकिन घर में चाहे जितनी मदद करने वाले रख लिए जाएं, घर मेहनत की मांग करता है और इसीलिए घर के अंदर के काम में साझेदारी एक मुद्दा है। भले ही इसके प्रति असहजता रहे। यही कारण है कि सरकारें भी महिलाओं द्वारा बिना आंदोलन चलाए स्वत: ही यह अधिकार उनकी झोली में डालने के लिए आगे बढ़ी हैं। हालांकि महिलाएं कब से मांग कर रही हैं कि कार्यस्थल को सुरक्षित करने के लिए कानून बने। असंगठित क्षेत्र में आज भी बराबर काम की बराबर मजदूरी का मसला सुनिश्चित नहीं हो पाया है। जिन नौकरियों में महिलाओं की संख्या कम है, वहां उनकी भागीदारी बढ़ाने का खासतौर से उच्च पदों पर कोई विशेष उपाय किए जाएं। इन पर सरकार चिंतित नहीं है, लेकिन परंपरागत रूप से चूंकि घर के अंदर की जिम्मेदारी जिसमें बच्चे भी शामिल हैं महिलाएं ही संभालती आई हैं और समाज में अभी भी यह जिम्मेदारी परिवार के पुरुष सदस्य संभालने को तैयार नहीं हैं। इस कारण सरकार ने भी इस मानसिकता पर अपनी मुहर लगा दी है। जहां तक सहयोग का मसला है उसकी जरूरत पहले भी होती थी किंतु अब यह ज्यादा जरूरी हो गया है, क्योंकि एक तो महिलाओं के काम का दायरा बढ़ गया है तथा दूसरे पूरा पारिवारिक ढांचा बदल गया है। आमतौर पर घर के अंदर काम की जिम्मेदारी औरत के पास तथा बाहर के काम की जिम्मेदारी पुरुष के पास होती थी। गैर बराबरी के खिलाफ जंग में औरत ने बाहर के काम पर दावा ठोंका और जहां-जहां अवसर हासिल होता गया वह साबित करती गई कि वह उस काम को कर सकती है। अब स्वाभाविक ही है कि घर के अंदर के काम में पुरुष के हिस्सेदारी की मांग बनेगी और देर-सबेर पुरुष को यह काम करना होगा अन्यथा यह परिवार में तनाव का कारण भी बनेगा। इस मुद्दे के एक दूसरे पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिए। चाइल्ड केयर लीव सिर्फ स्थायी सरकारी कर्मचारी के लिए है। यदि विश्विद्यालय के संदर्भ में इसे देखें तो जिन शिक्षिकाओं की छुट्टी के दौरान तदर्थ या गेस्ट लेक्चरर की नियुक्ति होगी उसमें भी महिला टीचर होगी। चाइल्ड केयर लीव तो उन्हें नहीं ही मिलेगी, क्योंकि वे स्थायी नहीं हैं, लेकिन विश्वविद्यालय के पास उनके मातृत्व अवकाश के लिए भी कोई स्पष्ट नीति नहीं है। ज्ञात हो कि ये नियुक्तियां कुछ-कुछ महीनों के लिए ही होती हैं। जो टीचर कई कई वर्षो से तदर्थ तौर पर पढ़ा रही है उनका सर्विस भी ब्रेक करके नियमानुसार पुनर्नियुक्ति दी जाती है। लिहाजा, वे मातृत्व अवकाश का कानूनी हकदार नहीं बन पाती हैं। महिलाओं का यह उत्पीड़न शिक्षण संस्थाओं में बदस्तूर जारी है। यद्यपि 15 दिन के लिए पिताओं को भी पितृत्व अवकाश का कानूनी प्रावधान है, किंतु आमतौर पर इसके प्रति जागरूकता की कमी है। पिता ऐसी छुट्टी मांगने से संकोच करते हैं और प्राइवेट कंपनियां छुट्टी देती भी नहीं हैं। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Wednesday, September 28, 2011

मप्र में बेटियों वाले माता-पिता को सबला कार्ड देने की पहल


बालाघाट में बेटियों वाले माता-पिता को सबला कार्ड देने का निर्णय लिया गया है। बेटी बचाओ अभियान की तैयारियों के दौरान जिला प्रशासन के सामने यह बात आई कि ऐसे माता-पिता जिनकी केवल बेटियां हैं, वे अपनी जमीन पर किसी अन्य के द्वारा कब्जा कर लेने या लड़ाई-झगड़ा होने की स्थिति मे स्वयं को असहाय पाते हैं। बेटे न होने के कारण उन्हें बिजली बिल जमा करने, गैस सिलेंडर लाने और अन्य जरूरी कामों के लिए अपनी बेटी को भेजने में असहजता महसूस होती है। ऐसे माता-पिता की परेशानियों को देखते हुए जिला प्रशासन ने निर्णय लिया कि उन्हें पांच अक्टूबर को बेटी बचाओ अभियान के अवसर पर एक विशेष कार्ड दिया जाए। इस कार्ड का नाम सबला कार्ड होगा। इसके साथ ही जिला स्तर पर एक कंट्रोल रूम भी खोलने का निर्णय लिया गया है। जिस पर सबला कार्ड वाले माता-पिता मदद के लिए सूचना दे सकेंगे। कंट्रोल रूम को सूचना मिलने पर प्रशासन आगे की कार्रवाई करेगी। जिले में सबला कार्ड वाले दंपत्तियों को बिजली बिल जमा करने या बैंक आदि में कतार में न लगकर विशेष प्राथमिकता दिलाने पर भी विचार किया जा रहा है।

क्या हैं महिला अधिकार


देश में महिला अधिकार की बात बड़े ही जोर-शोर से उठाई जा रही है लेकिन देश की ज्यादातर महिलाओं को सही मायनों में उनके मौलिक अधिकारों अथवा संवैधानिक अधिकारों की जानकारी ना के बराबर है। आइए, जानते हैं कि भारतीय संविधान के अनुसार महिलाओं को क्या-क्या हक प्रदान किये गए हैं-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 14, 15 और 16 में देश के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार दिया गया है। समानता का मतलब समानता’, इसमें किसी प्रकार का लिंग भेद नहीं है। समानता, स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार महिला-पुरुष दोनों को समान रूप से दिया गया है। शारीरिक और मानसिक तौर पर नर-नारी में किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक माना गया है। हालांकि आवश्यकता महसूस होने पर महिलाओं और पुरुषों का वर्गीकरण किया जा सकता है। अनुच्छेद-15 में प्रावधान किया गया है कि स्वतंत्रता, समानता और न्याय के साथ महिलाओं/लड़कियों की सुरक्षा और संरक्षण का काम भी सरकार का कर्तव्य है। जैसे बिहार में लड़कियों के लिए साइकिल और पोशाक की योजना, मध्य प्रदेश में लड़कियों के लिए लाडली लक्ष्मीयोजना, दिल्ली में मेट्रो में महिलाओं के लिए रिजर्व कोच की व्यवस्था आदि।ा अधिकार
स्वतंत्रता और समानता का अधिकार : अनुच्छेद-19 में महिलाओं को यह अधिकार दिया गया है कि वे देश के किसी भी हिस्से में नागरिक की हैसियत से स्वतंत्रता के साथ आ-जा सकती हैं रह सकती हैं। व्यवसाय का चुनाव भी स्वतंत्र रूप से कर सकती हैं। महिला होने के कारण किसी भी कार्य के लिए मना करना उसके मौलिक अधिकार का हनन होगा। ऐसा होने पर वे कानून की मदद ले सकती हैं। महिल्
नारी की गरिमा का अधिकार : अनुच्छेद-23 नारी की गरिमा की रक्षा करते हुए उनको शोषण-मुक्त जीवन जीने का अधिकार देता है। महिलाओं की खरीद-बिक्री, वेश्यावृत्ति के धंधे में जबरदस्ती लाना, भीख मांगने पर मजबूर करना आदि दंडनीय अपराध है। ऐसा कराने वालों के लिए भी भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत सजा का प्रावधान है। संसद ने अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956 पारित किया है। भारतीय दंड संहिता की धारा-361, 363, 366, 367, 370, 372, 373 के अनुसार ऐसे अपराधी को 7 साल से लेकर 10 साल तक की कैद और जुर्माने की सजा भुगतनी पड़ क्या ह सकती है। अनुच्छेद-24 के अनुसार 14 साल से कम उम्र के लड़के या लड़कियों से काम करवाना बाल अपराध है।
घरेलू हिंसा का कानून : घरेलू हिंसा अधिनियम , 2005 जिसके तहत वे सभी महिलाएं जिनके साथ किसी भी तरह की घरेलू हिंसा की जाती है, उनको प्रताड़ित किया जाता है, वे सभी पुलिस थाने जाकर दर्ज करा सकती हैं तथा पुलिसकर्मी बिना समय गंवाए प्रतिक्रिया करेंगे।
दहेज निवारक कानून : दहेज लेना ही नहीं, देना भी अपराध है। अगर वधू पक्ष के लोग दहेज लेने के आरोप में वर पक्ष को कानूनी सजा दिलवा सकते हैं तो वर पक्ष भी इस कानून के ही तहत वधू पक्ष को दहेज देने के जुर्म में सजा करवा सकता है। 1961 से लागू इस कानून के तहत वधू को दहेज के नाम पर प्रताड़ित करना भी संगीन जु र्म है।
नौकरी/स्व व्यवसाय करने का अधिकार : संविधान के अनुच्छेद-16 में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि हर वयस्क लड़की व महिला को कामकाज के बदले वेतन प्राप्त करने का अधिकार पुरु षों के बराबर है। केवल महिला होने के नाते रोजगार से वंचित करना, किसी नौकरी के लिए अयो ग्य घोषित करना लैंगिक भेदभाव माना जाएगा।
प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार : अनुच्छेद-21 एवं 22 दैहिक स्वाधीनता का अधिकार प्रदान करता है। हर व्यक्ति को इज्जत के साथ जीने का मौलिक अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किया गया है। अपनी देह व प्राण की सुरक्षा करना हरेक का मौलिक अधिकार है।
राजनीतिक अधिकार : प्रत्येक महिला व वयस्क लड़की को चुनाव की प्रक्रिया में स्वतंत्र रूप से भागीदारी करने और स्व विवेक के आधार पर वोट देने का अधिकार प्राप्त है। कोई भी संविधान-सम्मत योग्यता रखने पर किसी भी तरह के चुनाव में उम्मीदवारी कर सकती है।

Tuesday, September 27, 2011

सऊदी अरब की महिलाओं को मिला वोट का हक


..लेकिन 2015 से पहले नहीं
पश्चिम एशिया में लोकतांत्रिक और सामाजिक सुधारों के लिए चल रहे आंदोलनों के बीच सऊदी अरब के शाह अब्दुल्ला बिन अब्दुल अजीज अल साद ने महिलाओं को मतदान और चुनाव लड़ने का अधिकार देने की घोषणा की है। श्री अब्दुल्ला ने अपने पांच मिनट के भाषण में कहा कि महिलाओं को शूरा परिषद में शामिल होने की अनुमति दी जाएगी। शूरा निर्वाचित संस्था नहीं है और इसके द्वारा बनाए कानून बाध्यकारी नहीं हैं। उन्होंने कहा, हमने शीर्ष उलेमा और अन्य विद्वानों से सलाह-मशविरा करके महिलाओं को अगले कार्यकाल से शूरा परिषद का सदस्य बनाने की अनुमति देने का फैसला किया है। महिलाएं निगम चुनावों में चुनाव लड़ सकती हैं और उन्हें मतदान का अधिकार होगा। सऊदी अरब में अगले सप्ताह होने वाले निगम चुनावों में केवल पुरुषों को ही मतदान का अधिकार होगा लेकिन महिलाओं को 2015 में होने वाले चुनावों में मतदान का अधिकार हासिल होगा। सऊदी अरब में इस कदम को बड़े सामाजिक बदलाव का द्योतक माना जा रहा है। अमेरिका ने इस कदम का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे महिलाओं को उनकी जिंदगी से जुड़े मुद्दे पर होने वाले फैसलों में भागीदारी का मौका मिलेगा। व्हाइट हाउस ने एक बयान में कहा कि यह सऊदी अरब में महिला को उनके अधिकार देने की दिशा में एक अहम कदम है।



कहीं नहीं सुरक्षित


समाज में बढ़ते अपराधों की चर्चा के क्रम में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की फेहरिस्त बहुत लंबी मानी जाएगी। और इनमें सबसे जघन्य माना जाने वाला बलात्कार और यौन हिंसा का अपराध तो ऐसा नासूर है जिसका उपचार मौजूदा सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी ढांचे में खोजना फिलहाल संभव नहीं दिखता। हालांकि इस अपराध पर नियंतण्रपाने की हरसंभव कोशिशों की बात पंचायत स्तर से लेकर देश की संसद तक में लगातार की जाती रही है, इसके लिए कड़े कानूनों का भी प्रावधान है और शासन-प्रशासन भी इस अपराध को काबू में करने के दावे जब-तब करता रहता है लेकिन समय- समय पर जारी होने वाले सव्रे सारी पोल खोल देते हैं। सेंटर फॉर सोशल रिसर्च (सीएसआर) द्वारा कराये गये ऐसे ही एक सव्रे के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली में यौन हिंसा के मामले में महिलाएं दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। वे दिन-दहाड़े और घर-बाहर कहीं भी बलात्कार की शिकार हो सकती हैं। जुलाई 2009 से 2011 के बीच दिल्ली के बारे में जारी इस सव्रे के अनुसार बलात्कार पीड़िताओं द्वारा दर्ज पुलिस रिपोर्ट और चिकित्सकों की रिपोर्ट बताती हैं कि राजधानी में यह जघन्य अपराध रात के अंधेरे में ही नहीं बल्कि दिन की उजाले में भी बेखौफ अंजाम दिया जाता रहा है। उक्त रिपोर्ट महिलाओं के प्रति यौन अपराध या अत्याचार के मामले में एक नहीं अनेक कोणों से खुलासा करती नजर आती है जिसमें हमारे सामाजिक ताने-बाने के विद्रूप हो जाने की तस्वीर साफ-साफ उजागर होती दिखती है। यह स्थिति हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के लिए ऐसा अभिशाप साबित हो रही है, जहां मनुष्य और पशु के बीच कोई भेद नहीं रह जाता। किसी अनजान वहशी द्वारा राह चलती युवती को हवस का शिकार बनाना बेशक नई खबर न हो लेकिन सामाजिक विद्रूपता का एक भयावह सच यह सामने आ रहा है कि अधिकतर मामलों में बलात्कार पीड़िता अपने किसी नजदीकी सगे-संबंधी, पास- पड़ोसी या जान-पहचान वाले द्वारा छली जाती रही है। यह स्थिति समाज में अपनों पर अविास और भावनाओं के क्षरण के वातावरण की ऐसी निर्मिति कर रही है, जहां न कोई पिता है, न भाई, न पति और न ही मित्र। जहां केवल एक नारी देह है जो कहीं भी किसी भी समय किसी लोलुप कामी की हवस का शिकार होने को अभिशप्त है। अध्ययन इस आशय से भी महत्वपूर्ण है कि यह देश की राजधानी को आधार मानकर किया गया है जो पूरे देश की स्थिति समझने के लिए पर्याप्त है। इसलिए कि राजधानी होने के कारण पुलिस सुरक्षा या अन्य सुविधाओं के मामले में दिल्ली देश के बाकी हिस्सों से ज्यादा सम्पन्न मानी जाती है। और जब राजधानी में ही दिन-दहाड़े बलात्कार की घटनाएं घट रही हों तो दूर-दराज के शहर या गांव- कस्बों की महिलाएं कितनी सुरक्षित होंगी, यह बखूबी समझा जा सकता है। एक बात और कि बलात्कार के खिलाफ पर्याप्त जागरूकता के बावजूद हमारा समाज अब भी खुलकर बोलने में हिचकता है। दिल्ली जैसे महानगर तक में जब करीब आधे ही वारदात के तुरंत बाद पुलिस के सामने आते हैं और कुछेक एक या दो दिन बाद और कुछ उसके भी कई दिनों बाद तो न जाने कितने तो दबे ही रह जाते होंगे जो बलात्कारियों का हौसला बढ़ाने का काम करते होंगे।