Friday, November 25, 2011

एक तिहाई महिलाएं कुपोषण की शिकार

विभिन्न मंत्रालयों द्वारा पोषण के अलग-अलग दावों के बावजूद हालत यह है कि 35 फीसद से ज्यादा महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं और इनमें मुस्लिम महिलाओं की संख्या ज्यादा है। ये महिलाएं 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की है। कुपोषित महिलाओं के चलते ही पांच वर्ष तक नवजात शिशुओं की मौत सबसे ज्यादा भारत में हो रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सव्रेक्षण से पता चला है कि 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की लड़कियों व महिलाओं में कराए गए सव्रेक्षण से पता चला है कि 36.4 फीसद हिंदू महिलाएं और 35.1 फीसद मुस्लिम महिलाएं अभी भी कुपोषण का शिकार हैं। इन महिलाओं का बॉडी मास इंडेक्स का पता लगाने के लिए एक विशेष तरह की रक्त जांच एवं वजन कराया गया है जिसमें पता चला है कि इन महिलाओं के स्वास्थ्य शरीर के सूचकांक में गिरावट आ रही है। इससे ज्यादा चौंकाने वाली बात उक्त सव्रे से यह पता चली है कि हिंदू एवं मुस्लिम महिलाएं क्रमश: 55.9 एवं 54.7 फीसद एनीमिया से प्रभावित हैं। उधर महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ का कहना है कि महिलाओं के कुपोषण के कारण ही नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य में जन्मजात गिरावट आ रही है। हालांकि कुपोषण से निपटने के लिए कई मंत्रालय एक साथ काम कर रहे हैं मगर सव्रे से जो स्थिति सामने आई है उसको देखते हुए लगता है कि समन्वित कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि मिड-डे मील योजना, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, समन्वित बाल विकास योजना सहित कई योजनाएं है जो महिलाओं एवं बच्चों के कुपोषण से निपटने के लिए चलाई गई है और इस दिशा में कई मंत्रालय मिल कर काम करेंगे।

Friday, November 18, 2011

अनचाहे नाम की विडम्बना

मराठी भाषा में एक शब्द है नकुशाजिसका शाब्दिक अर्थ है अनचाही या अवांछित। महाराष्ट्र के अनेक ग्रामीण इलाकों में एक प्रचलित कुरीति के चलते आज भी अनेक लड़कियों का नाम नकुशा रखा जाता है। लोकमान्यता के मुताबिक यदि किसी दंपत्ति के यहां एक या दो लड़कियों के बाद फिर लड़की पैदा होती है तो उसका नाम नकुशा यानी अनचाही रख दिया जाता है क्योंकि माता-पिता चाहते तो बेटा थे लेकिन हो गई बेटी। मान्यता है कि अनचाही बेटी को नकुशा पुकारने से अगली संतान के रूप में बेटा ही जन्म लेगा, जबकि अक्सर ऐसा होता नहीं है। इस सामाजिक धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। बल्कि यह लड़कियों को खुले तौर पर अपमानित करने, उनके भीतर हीन भावना भरने, परवरिश में उपेक्षा भाव व उन्हें सक्षम न समझने वाली मानसिकता का द्योतक है। मगर हाल में बेटी बचाओ सरकारी अभियान के तहत महाराष्ट्र के सतारा जिले में नकुशा नाम की लड़कियों की पहचान कर उनका नाम बदलकर समाज में सार्थक संदेश देने वाली नायाब पहल का अपना महत्व है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र देश के उन पांच राज्यों में एक है,जहां बाल लिंग अनुपात बहुत असंतुलित है। 2011 की जनगणना के प्रारंभिक आंकड़ों के मुताबिक यहां प्रति हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या 883 है जबकि दस साल पहले 2001 में यह 914 थी। यूनाइटड नेशंस पॉपुलेशन फंड एजेंसी के हालिया सव्रे में दावा किया गया है कि महाराष्ट्र में हर साल 55,053 से अधिक कन्या भ्रूण का गर्भपात विकसित अवस्था में कराया जाता है। सतारा, जो राज्य के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण का गृह जिला है, में यह आंकड़ा 881 का है। सतारा आर्थिक दृष्टि से कमजोर या पिछड़ा नहीं है मगर पुत्र प्राप्ति के नाम पर आज भी पुरातनपंथी सोच में जकड़ा है। यह पुष्टि जनगणना के आंकड़ों के साथ-साथ यहां लड़कियों के प्रति प्रचलित सामाजिक परपंराएं भी करती हैं। मसलन बेटी होने पर नामकरण संबंधी समारोह न करना, मां को बेटियों को स्तनपान कराने की इजाजत न देना, परिवार में पहले बेटों को भोजन देना और जो बच जाए वह बेटियों के हिस्से आना यहां का आम रिवाज है। लब्बोलुआब यह कि यहां का समाज लड़कियों के पौष्टिक आहार, शिक्षा व कल्याण पर कुछ खर्च नहीं करना चाहता है। यही नहीं, कई परिवारों में उन्हें नकुशा नाम देकर यानी अनचाही अर्थ वाले नाम से पुकार कर उनकी गरिमा पर सार्वजनिक हमला किया जाता है। इतिहास बताता है कि छत्रपति शिवाजी के व्यक्तित्व निर्माण में उनकी मां जीजाबाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन यह बात समझ से परे हैं कि एक महिला के रूप में जीजाबाई के योगदान को सतारा ने क्यों और कैसे भुला दिया है। यह आभास वहां नकुशा नाम कराता है। बहरहाल, क्षेत्र में नकुशा की जगह नया नाम देकर समाज में उनके प्रति नजरिया बदलने वाली पहल करीब दो महीने पहले शुरू हुई। जिलाधिकारी डॉ. एन. रामास्वामी ने घर-घर जाकर यह नाम पता लगाने वाला अभियान छेड़ा और करीब 18 साल से कम उम्र वाली 900 ऐसी लड़कियों का पता चला है। पाटण तहसील में 92, कराड़ में 16, महाबलेर में 12, सतारा में 11, खंडाला में 11 और जावली तहसील में पांच नकुशा नाम की लड़कियां मिलीं। इस मुहिम के तहत हाल में करीब 222 लड़कियों के नाम बदले गए। अब वे प्रसन्न हैं क्योंकि उन्हें न तो कोई इनके नाम के आधार पर चिढ़ाएगा और न ही वे अपने भीतर हीन भाव महसूस करेंगी। गरीब परिवारों की इन लड़कियों के नए नाम रखने का जिम्मा बालिकाओं के ग्रुप,परिवारों व सरकारी अधिकारियों को सौंपा गया था। किसी का ऐर्या तो किसी का नाम पूजा रखा गया है। 11 महीने की एक बच्ची का नाम नकुशा से बदलकर निकिता रखा गया है। यूं कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है? लेकिन ऐसा नाम जिसका मतलब ही अनचाही, अवांछित हो और जो ताउम्र समाजीकरण की प्रक्रिया में एक बोझ साबित होता हो तो उससे निजात पाना ही बेहतर विकल्प है। नाम से जिंदगी को नई दिशा, समाज में लड़कियों के महत्व को पहचान व उनके प्रति जागरूकता पैदा करने वाले लक्ष्यों के मददेनजर इस सार्थक पहल में समाज की भागीदारी अहम भूमिका निभा सकती है। साझा प्रयासों से ही इस सामाजिक कुरीति को मिटाया जा सकता है।