Thursday, July 28, 2011

पाकके पास जल्द होंगी भारतीय शहरों तक मार करने वाली मिसाइलें


पाकिस्तान जल्द ही अपनी सेना में कम दूरी तक मार करने वाली 24 परमाणु मिसाइलें शामिल करने जा रहा है। ये हवा से हवा और सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलें सात सौ से एक हजार किमी दूर स्थित लक्ष्य भेद सकती हैं। पाकिस्तान से इतनी ही दूरी पर भारत के सभी बड़े शहर स्थित हैं। ऐसे में भारत के सभी प्रमुख शहर उसके हमले के दायरे में आ जाएंगे। पाकिस्तानी अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया है। अखबार के मुताबिक, यदि पाकिस्तान सरकार अपने लक्ष्य को हासिल कर लेती है, तो यह पाकिस्तान द्वारा एक साल में विकसित सबसे ज्यादा मिसाइल होंगी। अखबार ने लिखा है कि यह योजना सरकारी नीति के तहत है। वह नीति जिसमें पड़ोसी देशों, खासकर भारत के साथ शक्ति संतुलन स्थापित करने पर जोर दिया गया है। पाकिस्तान के परमाणु जखीरे पर नजर रखने वाली संस्था स्ट्रैटेजिक प्लांस डिविजन (एसपीडी) इन नई मिसाइलों के निर्माण पर नजर रख रही है। एसपीडी नेशनल कमांड अथॉरिटी के तहत काम करता है, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं और तीनों सेनाओं के प्रमुख इसके सदस्य होते हैं। पाकिस्तान का यह प्रयास उन खबरों को बल देता है, जिनमें कहा जा रहा था कि आने वाले समय में परमाणु हथियारों के मामले में पाकिस्तान फ्रांस को भी पीछे छोड़ सकता है।

बाजार में औरत और औरत का बाजार


Wednesday, July 27, 2011

पंचायत में स्त्री का दखल


 केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद अब पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीट देशभर में आरक्षित हो गई। हालांकि कई राज्य सरकारों ने यह नीति राज्य स्तर पर पहले ही लागू कर रखी थी, लेकिन केंद्र की मंजूरी के बाद यह देश भर में लागू हो गई है। अब 28.18 लाख पंचायत प्रतिनिधियों में से कम से कम आधी महिलाएं होंगी। यह भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में एक अहम बदलाव के रूप में दर्ज किया जाएगा। अगर महिलाओं की संख्या इन जगहों पर अपने आप ही बढ़कर पुरुषों की बराबरी पर पहुंच गई होती तो ज्यादा खुशी की बात होती, लेकिन वह तो संभव होता नहीं नजर आ रहा था। इसलिए आरक्षण जरूरी कदम था और इसके द्वारा सार्वजनिक दायरे में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ेगी। इससे पूरे सामाजिक वातावरण में स्त्री-पुरुष के बीच की पृथकता घटेगी तथा जेंडर फ्रेंडली माहौल का निर्माण होगा। पुरुष भी मजबूरी में ही सही, लेकिन महिलाओं के साथ मिलकर राजकाज चलाना सीखेंगे। आगे कुछ और कदम इस दिशा में उठाने की पहल करनी चाहिए। जैसे कि जिला पंचायतों में भी आरक्षण द्वारा भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए, क्योंकि पंचायतों को जिला पंचायतों के साथ मिलकर कई योजनाओं को लागू करना होता है। दूसरी बात यह कि इन चुनी गई प्रतिनिधियों को सशक्त तथा आत्मनिर्भर बनाने के लिए विशेष कार्यक्रम लिए जाने की जरूरत है, जिसकी योजना भी ऊपर से ही बननी चाहिए ताकि एक तरह के कार्यक्रम देशभर में लिए जा सकें। महिलाएं स्वतंत्र होकर ठीक से काम कर पाए, इसके लिए पारिवारिक, सामाजिक दबावों पर लगाम कसना भी जरूरी है और साथ ही उन्हें अपना प्रशिक्षण तथा राजनीतिकरण भी जरूरी है। खासतौर से उत्तर भारत के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की जो स्थिति और हैसियत है, उसमें उन्हें सशक्त प्रतिनिधि बनाने के लिए निश्चित कार्य योजना तत्काल लागू की जानी चाहिए। इसके पहले भी कई बार यह साबित हुआ है कि चुनी गई महिलाओं के पास वास्तविक सत्ता तथा निर्णय का अधिकार नहीं रहने दिया जाता है। इन महिला प्रतिनिधियों के द्वारा परिवार के सदस्यों की उपस्थिति पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए तथा दूसरे चुने हुए पुरुष प्रतिनिधि भी चुनी हुई महिला प्रतिनिधियों पर अपना वर्चस्व न बना पाएं, इसकी निगरानी भी जरूरी है। इन महिला प्रतिनिधियों के साथ कुछ निश्चित अंतराल पर पितृसत्ता तथा जेंडरभेद के मुद्दे पर कार्यशाला तथा प्रशिक्षण होता रहे ताकि उन्हें पितृसत्ता के ढांचे और वर्चस्व की राजनीति की ठीक से जानकारी हो तथा साथ ही वे स्वयं की पितृ सत्तात्मक मानसिकता को भी पहचान सकें। पहले से ही यह मान लेना सही नहीं होगा कि महिला होने के नाते वे महिला मुद्दों पर काम करेंगी ही। खासतौर से उत्तर भारत के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की जो स्थिति और हैसियत है, उसमें उन्हें सशक्त प्रतिनिधि बनाने के लिए निश्चित कार्ययोजना तत्काल लागू की जानी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण के सहारे पंचायतों में जो भी महिला प्रतिनिधि चुन कर आई, उनकी शक्ति को हथियाने या प्रभावहीन बनाने की भरसक कोशिश भी हुई है इस पुरुष प्रधान समाज में। कभी उन्हें मात्र रबर की मुहर कहा गया तो कभी चुनी हुई प्रतिनिधियों के घर के पुरुष सदस्यों ने वह पद अपने प्रभाव में रखा। प्रधानपति या सरपंचपति जैसे शब्दों का प्रचलन इसी का उदाहरण है। इन महिलाओं के पति या ससुर माला पहनकर चुनाव प्रचार करने से लेकर पंचायती निर्णयों में हावी होने की कोशिश करते दिखते हैं। पंचायतों के अन्य पुरुष सदस्यों ने भी उन्हें बराबरी का हक न देकर अपना दबदबा कायम रखा है। इसी के साथ नामांकन से लेकर चुनाव प्रचार तथा चुने जाने के बाद पंचायतों के काम के दौरान विभिन्न स्तरों पर हिंसा का सामना भी उन महिलाओं को करना पड़ा है। लेकिन इन सब बुराइयों या कमियों की वजह हमें आरक्षण की नीति में नहीं, बल्कि समाज में औरत की कमजोर स्थिति में देखनी होगी। यदि समाज में बराबरी होती तो आरक्षण जैसी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। अगर आरक्षण लागू नहीं हुआ होता तो इतनी महिलाओं को भी अपने दम पर वहां पहुंचने में दशकों लग जाते। पिछले दिनों गुजरात और हिमाचल प्रदेश की पंचायती राज संस्थाओं पर किए गए अध्ययन में यही बात सामने आई कि अधिकतर महिलाएं पंचायतों की नामधारी सदस्य होती हैं और परिवार के पुरुष ही असली सत्ता संभालते हैं। मौजूदा पितृसत्तात्मक ढांचे में इन महिलाओं का घरों के अंदर सशक्तिकृत न होना एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। गुजरात और हिमाचल प्रदेश जैसे दो अलग किस्म के राज्यों में सर्वेक्षण में एक भी पंचायत सदस्य नहीं मिली, जिसके नाम जमीन का टुकड़ा था या मकान उसके नाम पर था। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इनके परिवार कोई गरीब या भूमिहीन थे। इन प्रतिनिधियों में से 66 फीसदी परिवारों के पास 20 एकड़ या उससे अधिक जमीन थी। पंचायतों में स्ति्रयों के आरक्षण के मसले का एक अन्य पहलू भी अहम है। पिछली दफा जब केंद्र सरकार की तरफ से घोषणा हुई कि पंचायतों में महिलाओं का आरक्षण 33 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी किया जाएगा, उसके दो दिन बाद ही बुंदेलखंड प्रखंड से खबर आई कि दो महिला सरपंचों को गांव से बाहर खदेड़ दिया गया है। दोनों दलित समुदाय से थीं। गुंडियाबाई अहिरवार जहां विक्रमपुरा गांव की सरपंच हैं, जो सामान्य सीट से जीती हैं, वहीं प्रेमाबाई प्रजापति चंदवारा गांव की सरपंच थी। दोनों को गांव के दबंग तथा ऊंची जाति के लोगों ने मारपीट करके गांव से निकलने के लिए मजबूर किया। गुंडियाबाई तो इस उत्पीड़न से तंग आकर पहले से ही अपने परिवार सहित गांव से बाहर रह रही थीं और अब प्रेमाबाई ने भी सपरिवार गांव छोड़ दिया। दोनों ने भविष्य में कभी चुनाव न लड़ने का फैसला लिया। यह इस बात का ही प्रमाण है कि संविधानप्रदत्त बराबरी के अधिकार मिलने के बावजूद हमारा समाज आसानी से जेंडरगत और जातिगत न्याय और बराबरी को लागू नहीं होने देगा। इसीलिए आरक्षण तथा कानूनी संशोधनों द्वारा मिले अधिकारों को हासिल करने के लिए पूरे समाज में आंदोलन और अभियान चलाने होंगे। सरकार को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि वह लागू कैसे हो। यह भी एक विचारणीय मसला है कि आखिर यही सरकारें जो पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण देने के मसले पर कभी विवाद या बहस में नहीं फंसती और ऐसा करके स्ति्रयों के हक में अपनी छवि बनाने में कामयाब भी होती हैं, उन्हीं की पार्टी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं करा पा रही हैं। यही पार्टियां पंचायत प्रतिनिधियों के सहयोग समर्थन और काम के द्वारा जनता के बीच अपना आधार तैयार कर संसद और विधानसभाओं में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहेंगी, लेकिन सीधे महिलाएं वहां जाकर प्रतिनिधित्व करें, इसके लिए अभी लगता है कि वे तैयार नहीं हैं। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं).

Saturday, July 16, 2011

भाजपा के युवाओं पर भारी पड़ा महिला मोर्चा


भाजपा संगठन के विभिन्न राष्ट्रीय मोर्चो में पार्टी के सबसे अग्रणी युवा मोर्चा पर पार्टी का महिला मोर्चा भारी पड़ा है। पार्टी नेतृत्व ने अपने सभी राष्ट्रीय मोर्चो, प्रकोष्ठ व अन्य संगठनों की समीक्षा बैठक में उनके साल भर के क्रियाकलापों तथा संगठनात्मक गतिविधियों की समीक्षा की है। युवा मोर्चे ने इस दौरान राष्ट्रीय एकता यात्रा का सफल कार्यक्रम तो किया, लेकिन अन्य मामलों में वह महिला मोर्चा से पिछड़ गया है। महिला मोर्चा कोई बड़ा कार्यक्रम तो नहीं कर सका, लेकिन फिर भी संगठन स्तर पर उसके काम को बेहतर माना गया है। भाजपा संगठन में उसका युवा मोर्चा मुख्य संगठन के बाद सबसे प्रभावी भूमिका में रहता है। इसलिए पार्टी नेतृत्व की सबसे कड़ी नजर उस पर रहती है। बीते एक साल में युवा मोर्चा ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर के नेतृत्व में सबसे बड़ा कार्यक्रम कोलकाता से कश्मीर तक की एकता यात्रा का किया, जिसे भारी सफलता भी मिली। लेकिन संगठन स्तर पर वह कमजोर रहा। कई राज्यों में उसके संगठन प्रभावी कार्यक्रम नहीं कर सके। दूसरी तरफ स्मृति ईरानी की अध्यक्षता वाले महिला मोर्चा ने कोई बड़ा कार्यक्रम किए बगैर प्रदेश स्तर पर संगठनों को काफी सक्रिय रखा और कई छोटे-मझोले कार्यक्रम किए। अन्य मोर्चो में किसान मोर्चा समय-समय पर कार्यक्रम करता रहा, लेकिन भट्टा पारसौल जैसे बड़े मुद्दे पर वह अपनी पूरी ताकत नहीं दिखा सका। पार्टी के अन्य मोर्चो व प्रकोष्ठों का प्रदर्शन मिला-जुला रहा। गडकरी ने सभी मोर्चो व प्रकोष्ठों की सराहना की, लेकिन और बेहतर करने को कहा, ताकि मिशन 2014 के लिए वोटो में दस फीसदी की बढ़ोतरी का लक्ष्य हासिल कर सके।

Saturday, July 2, 2011

महिला कैदियों से हमदर्दी का सवाल


बीते दिनों सर्वोच्च अदालत ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में अभियुक्त के तौर पर द्रमुक सांसद कनिमोरी की जमानत याचिका खारिज करते हुए उनका यह तर्क स्वीकार नहीं किया कि महिला होने के नाते उन्हें धारा 437 के तहत जमानत दी जाए। जस्टिस जीएस सिंघवी और बीएस चौहान की खंडपीठ ने इस वीवीआइपी सांसद से पूछा कि आपमें ऐसा क्या खास बात है, जो आप 437 के तहत जमानत मांग रही हैं? आपकी तरह सैकड़ों विचाराधीन महिला कैदी जेल में हैं और वे अपने बच्चों से दूर हैं। अदालत की इस टिप्पणी में एक संदेश है कि कानून की नजर में सब एक समान हैं। कानून से ऊपर कोई नहीं है। गौरतलब है कि द्रमुक प्रमुख करुणानिधि की बेटी व सांसद कनिमोरी 20 मई से दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैद की सजा काट रही हैं। 20 मई से पहले ही कनिमोरी ने अग्रिम जमानत की याचिका दायर कर दी थी और उनके पक्ष में जाने-माने वकील राम जेठमलानी ने अदालत में दलील दी थी कि कनिमोरी को एक महिला होने के नाते धारा 437 के तहत जमानत मिलनी चाहिए। यह भी कहा गया कि उनका एक दस साल का लड़का है और उसकी देखभाल के लिए घर में कोई दूसरा नहीं है, क्योंकि लड़के के पिता अक्सर कामकाज के सिलसिले में देश से बाहर रहते हैं। लिहाजा, लड़के की देखभाल के लिए ही इस मां को जमानत दे दी जाए, लेकिन निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक ने इस दलील को ठुकरा दिया और जमानत मंजूर नहीं की। सर्वोच्च अदालत में तो कनीमोरी के वकीलों का यहां तक कहना था कि यदि सीबीआइ को डर है किवह अपने राजनीतिक रसूखों से गवाहों और जंाच को प्रभावित कर सकती हैं तो उन्हें उनके घर में नजरबंद रखा जा सकता है। उनके घर पर 24 घंटे पहरेदारी तथा इलेक्ट्रॉनिक निगरानी रखी जा सकती है। कनीमोरी के वकीलों ने जमानत याचिका में जिस धारा 437 का जिक्र किया है उसके तहत अभियुक्त यदि महिला है या 16 साल से कम उम्र का है अथवा अपंग या बीमार है तो उसे जमानत दी जा सकती है। बहरहाल द्रमुक सांसद कनीमोरी के इस जमानत प्रसंग के बहाने जेलों में महिला कैदियों और उनके बच्चों से जुड़े कई सवाल बहस की मांग करते हैं। इस समय देशभर में विभिन्न राज्यों की जेलों में कई हजार महिलाएं बंद हैं। उनमें सजायाफ्ता व विचाराधीन दोनों ही तरह की महिला कैदी हैं। कई हजार छोटे बच्चे भी अपनी मांओं के साथ जेल में हैं। भारतीय कानून के अनुसार 0-6 आयुवर्ग के शिशु जेल में अपनी कैदी मां के साथ रह सकते हैं। उसके बाद अगर परिवार में उनकी देखभाल करने के लिए कोई नहीं है या उनके द्वारा अनिच्छा जाहिर किया जाता है तो उसके देखभाल का बंदोबस्त करना राज्य का दायित्व है। कई बार ऐसा भी होता है कि सजा सुनाए जाने के बाद महिलाएं अपने बच्चों को जेल के छाए से भी दूर रखना चाहती हैं। उदाहरण के लिए पंजाब की एकमात्र महिला जेल लुधियाना में है और वहां अपने पति की हत्या के जुर्म में सजा काट रही एक महिला ने बताया था कि जब वह जेल में आई थी, तब अपनी दो बेटियों को अमृतसर के एक अनाथालय में छोड़कर आई थी। उसके बाद कई साल गुजर गए, लेकिन उसे उनकी कोई खबर नहीं। वह नहीं जानती कि उसकी बेटियां जीवित भी हैं या नहीं। जेल प्रशासन ने भी उसके बच्चों की जानकारी लेने की कोई कोशिश नहीं की। इसी तरह तिहाड़ जेल में सजायाफ्ता एक महिला कैदी ने बताया था कि वह अपने छोटे लड़के को मां के पास छोड़ आई है, क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसके बच्चे पर इसका बुरा प्रभाव पड़े। ऐसी अन्य हजारों महिला कैदी हैं जो जेल में अपने बच्चों से अलग रह रही हैं और जिनका जिक्र हाल के में सर्वोच्च अदालत ने कनीमोरी की जमानत याचिका को खारिज करने के फैसले में सुनाया था। अपने बच्चों से दूर रहने वाली इन महिलाओं व उनसे से दूर रहने वाले उनके बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर इन परिस्थितियों का काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस सबसे जेल में सजा काट रही ये महिलाएं कुंठित और तनावग्रस्त रहती हैं। उनकी ज्यादातर चिंता अपने घर जाने, बच्चों के भविष्य निर्माण और उनके साथ रहने की होती है। इसके अलावा इन महिलाओं में अपने बच्चों के प्रति समाज की प्रतिक्रिया को लेकर भी भय रहता है, क्योंकि ऐसे बच्चों के साथ अक्सर नफरत व अलगाव का व्यवहार किया जाता है। यह वे सवाल हैं जिनका पीछा वह नहीं छुड़ा पातीं। इसी चिंता के कारण न केवल उनका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है, बल्कि शारीरिक भी। 1986 में गठित कृष्णा अय्यर समिति ने भी पाया कि जेलों में मानसिक देखभाल की कमी एक गंभीर समस्या है जो महिला कैदियों की सेहत पर बुरा असर डालती है। महिला कैदियों का मानसिक स्वास्थ्य इसलिए भी ठीक नहीं रहता, क्योंकि कैद की जिंदगी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर विपरीत असर डालती है। महिला कैदियों को यह चिंता भी सताती है कि जेल से छूटने के बाद उनकी घर वापसी होगी भी या नहीं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व महानिदेशक शंकर सेन का कहना है कि उनकी जेल यात्राओं के दौरान कुछ महिला कैदियों ने बताया कि उनके पति अब उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे। गरीब महिला कैदियों की मानसिक स्वास्थ्य अधिक प्रभावित होने की आंशका इसलिए रहती है, क्योंकि वे गरीब होने के कारण अपना वकील नहीं कर पातीं और राज्य द्वारा उपलब्ध कराया गया सरकारी वकील ऐसे मामलों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाता। जितनी लंबी तारीखें पड़ती हैं उतना ही महिला कैदियों के तनाव का पारा बढ़ता चला जाता है। इनसे उनके परिवार वाले/रिश्तेदार पहले तो मिलने ही नहीं आते या बहुत कम आते हैं। ऐसे में वह अक्सर अपने घर और बच्चों से बिल्कुल कट जाती है। उन्हें इस बात की भी जानकारी नहीं होती कि उनके बच्चे कहां और किस हालात में होंगे। मानवाधिकारों व समाज के दबाव में आकर सरकार ने जेल सुधार व्यवस्था के लिए कई सुधार समितियों का गठन किया है। इन समितियों ने सुधार के लिए कई सिफारिशें की। ऐसी ही एक मुल्ला सुधार समिति की राय में महिलाओं की स्थिति सुधारने को ज्यादा तवज्जो शायद इसलिए नहीं दिया जाता, क्योंकि वे संख्या में बहुत कम हैं। यह तथ्य गौरतलब है कि एक कैदी होना और दूसरा महिला कैदी होने का मनौवैज्ञानिक असर महिला जेलों व महिला वार्डो में साफ देखा जा सकता है। वे सामाजिक अपराध की भावना के अलावा खुद को औरत होने के कारण कमजोर इकाई मान लेती हैं। इस तरह वह एक तरह के यथास्थिति की विवशता वाले विचार का हिस्सा बन जाती हैं। वह जेल के अधिकारियों और संबधित विभाग का नजरिया भी कैदी के आगे महिला शब्द जुड़ा देखकर उपेक्षित दृष्टिकोण अपनाया जाता है। वे औरत होने के नाते उसकी कुछ सीमाएं मानकर चलते हैं। वे महिला कैदियों के स्वभाव और मनोविज्ञान को समझते हुए मान लेते हैं कि इन्हें जो कुछ दे दिया जाएगा वही स्वीकार कर लेंगी। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).