Wednesday, July 27, 2011

पंचायत में स्त्री का दखल


 केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद अब पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीट देशभर में आरक्षित हो गई। हालांकि कई राज्य सरकारों ने यह नीति राज्य स्तर पर पहले ही लागू कर रखी थी, लेकिन केंद्र की मंजूरी के बाद यह देश भर में लागू हो गई है। अब 28.18 लाख पंचायत प्रतिनिधियों में से कम से कम आधी महिलाएं होंगी। यह भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में एक अहम बदलाव के रूप में दर्ज किया जाएगा। अगर महिलाओं की संख्या इन जगहों पर अपने आप ही बढ़कर पुरुषों की बराबरी पर पहुंच गई होती तो ज्यादा खुशी की बात होती, लेकिन वह तो संभव होता नहीं नजर आ रहा था। इसलिए आरक्षण जरूरी कदम था और इसके द्वारा सार्वजनिक दायरे में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ेगी। इससे पूरे सामाजिक वातावरण में स्त्री-पुरुष के बीच की पृथकता घटेगी तथा जेंडर फ्रेंडली माहौल का निर्माण होगा। पुरुष भी मजबूरी में ही सही, लेकिन महिलाओं के साथ मिलकर राजकाज चलाना सीखेंगे। आगे कुछ और कदम इस दिशा में उठाने की पहल करनी चाहिए। जैसे कि जिला पंचायतों में भी आरक्षण द्वारा भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए, क्योंकि पंचायतों को जिला पंचायतों के साथ मिलकर कई योजनाओं को लागू करना होता है। दूसरी बात यह कि इन चुनी गई प्रतिनिधियों को सशक्त तथा आत्मनिर्भर बनाने के लिए विशेष कार्यक्रम लिए जाने की जरूरत है, जिसकी योजना भी ऊपर से ही बननी चाहिए ताकि एक तरह के कार्यक्रम देशभर में लिए जा सकें। महिलाएं स्वतंत्र होकर ठीक से काम कर पाए, इसके लिए पारिवारिक, सामाजिक दबावों पर लगाम कसना भी जरूरी है और साथ ही उन्हें अपना प्रशिक्षण तथा राजनीतिकरण भी जरूरी है। खासतौर से उत्तर भारत के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की जो स्थिति और हैसियत है, उसमें उन्हें सशक्त प्रतिनिधि बनाने के लिए निश्चित कार्य योजना तत्काल लागू की जानी चाहिए। इसके पहले भी कई बार यह साबित हुआ है कि चुनी गई महिलाओं के पास वास्तविक सत्ता तथा निर्णय का अधिकार नहीं रहने दिया जाता है। इन महिला प्रतिनिधियों के द्वारा परिवार के सदस्यों की उपस्थिति पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए तथा दूसरे चुने हुए पुरुष प्रतिनिधि भी चुनी हुई महिला प्रतिनिधियों पर अपना वर्चस्व न बना पाएं, इसकी निगरानी भी जरूरी है। इन महिला प्रतिनिधियों के साथ कुछ निश्चित अंतराल पर पितृसत्ता तथा जेंडरभेद के मुद्दे पर कार्यशाला तथा प्रशिक्षण होता रहे ताकि उन्हें पितृसत्ता के ढांचे और वर्चस्व की राजनीति की ठीक से जानकारी हो तथा साथ ही वे स्वयं की पितृ सत्तात्मक मानसिकता को भी पहचान सकें। पहले से ही यह मान लेना सही नहीं होगा कि महिला होने के नाते वे महिला मुद्दों पर काम करेंगी ही। खासतौर से उत्तर भारत के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की जो स्थिति और हैसियत है, उसमें उन्हें सशक्त प्रतिनिधि बनाने के लिए निश्चित कार्ययोजना तत्काल लागू की जानी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण के सहारे पंचायतों में जो भी महिला प्रतिनिधि चुन कर आई, उनकी शक्ति को हथियाने या प्रभावहीन बनाने की भरसक कोशिश भी हुई है इस पुरुष प्रधान समाज में। कभी उन्हें मात्र रबर की मुहर कहा गया तो कभी चुनी हुई प्रतिनिधियों के घर के पुरुष सदस्यों ने वह पद अपने प्रभाव में रखा। प्रधानपति या सरपंचपति जैसे शब्दों का प्रचलन इसी का उदाहरण है। इन महिलाओं के पति या ससुर माला पहनकर चुनाव प्रचार करने से लेकर पंचायती निर्णयों में हावी होने की कोशिश करते दिखते हैं। पंचायतों के अन्य पुरुष सदस्यों ने भी उन्हें बराबरी का हक न देकर अपना दबदबा कायम रखा है। इसी के साथ नामांकन से लेकर चुनाव प्रचार तथा चुने जाने के बाद पंचायतों के काम के दौरान विभिन्न स्तरों पर हिंसा का सामना भी उन महिलाओं को करना पड़ा है। लेकिन इन सब बुराइयों या कमियों की वजह हमें आरक्षण की नीति में नहीं, बल्कि समाज में औरत की कमजोर स्थिति में देखनी होगी। यदि समाज में बराबरी होती तो आरक्षण जैसी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। अगर आरक्षण लागू नहीं हुआ होता तो इतनी महिलाओं को भी अपने दम पर वहां पहुंचने में दशकों लग जाते। पिछले दिनों गुजरात और हिमाचल प्रदेश की पंचायती राज संस्थाओं पर किए गए अध्ययन में यही बात सामने आई कि अधिकतर महिलाएं पंचायतों की नामधारी सदस्य होती हैं और परिवार के पुरुष ही असली सत्ता संभालते हैं। मौजूदा पितृसत्तात्मक ढांचे में इन महिलाओं का घरों के अंदर सशक्तिकृत न होना एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। गुजरात और हिमाचल प्रदेश जैसे दो अलग किस्म के राज्यों में सर्वेक्षण में एक भी पंचायत सदस्य नहीं मिली, जिसके नाम जमीन का टुकड़ा था या मकान उसके नाम पर था। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इनके परिवार कोई गरीब या भूमिहीन थे। इन प्रतिनिधियों में से 66 फीसदी परिवारों के पास 20 एकड़ या उससे अधिक जमीन थी। पंचायतों में स्ति्रयों के आरक्षण के मसले का एक अन्य पहलू भी अहम है। पिछली दफा जब केंद्र सरकार की तरफ से घोषणा हुई कि पंचायतों में महिलाओं का आरक्षण 33 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी किया जाएगा, उसके दो दिन बाद ही बुंदेलखंड प्रखंड से खबर आई कि दो महिला सरपंचों को गांव से बाहर खदेड़ दिया गया है। दोनों दलित समुदाय से थीं। गुंडियाबाई अहिरवार जहां विक्रमपुरा गांव की सरपंच हैं, जो सामान्य सीट से जीती हैं, वहीं प्रेमाबाई प्रजापति चंदवारा गांव की सरपंच थी। दोनों को गांव के दबंग तथा ऊंची जाति के लोगों ने मारपीट करके गांव से निकलने के लिए मजबूर किया। गुंडियाबाई तो इस उत्पीड़न से तंग आकर पहले से ही अपने परिवार सहित गांव से बाहर रह रही थीं और अब प्रेमाबाई ने भी सपरिवार गांव छोड़ दिया। दोनों ने भविष्य में कभी चुनाव न लड़ने का फैसला लिया। यह इस बात का ही प्रमाण है कि संविधानप्रदत्त बराबरी के अधिकार मिलने के बावजूद हमारा समाज आसानी से जेंडरगत और जातिगत न्याय और बराबरी को लागू नहीं होने देगा। इसीलिए आरक्षण तथा कानूनी संशोधनों द्वारा मिले अधिकारों को हासिल करने के लिए पूरे समाज में आंदोलन और अभियान चलाने होंगे। सरकार को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि वह लागू कैसे हो। यह भी एक विचारणीय मसला है कि आखिर यही सरकारें जो पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण देने के मसले पर कभी विवाद या बहस में नहीं फंसती और ऐसा करके स्ति्रयों के हक में अपनी छवि बनाने में कामयाब भी होती हैं, उन्हीं की पार्टी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं करा पा रही हैं। यही पार्टियां पंचायत प्रतिनिधियों के सहयोग समर्थन और काम के द्वारा जनता के बीच अपना आधार तैयार कर संसद और विधानसभाओं में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहेंगी, लेकिन सीधे महिलाएं वहां जाकर प्रतिनिधित्व करें, इसके लिए अभी लगता है कि वे तैयार नहीं हैं। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं).

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