Saturday, July 2, 2011

महिला कैदियों से हमदर्दी का सवाल


बीते दिनों सर्वोच्च अदालत ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में अभियुक्त के तौर पर द्रमुक सांसद कनिमोरी की जमानत याचिका खारिज करते हुए उनका यह तर्क स्वीकार नहीं किया कि महिला होने के नाते उन्हें धारा 437 के तहत जमानत दी जाए। जस्टिस जीएस सिंघवी और बीएस चौहान की खंडपीठ ने इस वीवीआइपी सांसद से पूछा कि आपमें ऐसा क्या खास बात है, जो आप 437 के तहत जमानत मांग रही हैं? आपकी तरह सैकड़ों विचाराधीन महिला कैदी जेल में हैं और वे अपने बच्चों से दूर हैं। अदालत की इस टिप्पणी में एक संदेश है कि कानून की नजर में सब एक समान हैं। कानून से ऊपर कोई नहीं है। गौरतलब है कि द्रमुक प्रमुख करुणानिधि की बेटी व सांसद कनिमोरी 20 मई से दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैद की सजा काट रही हैं। 20 मई से पहले ही कनिमोरी ने अग्रिम जमानत की याचिका दायर कर दी थी और उनके पक्ष में जाने-माने वकील राम जेठमलानी ने अदालत में दलील दी थी कि कनिमोरी को एक महिला होने के नाते धारा 437 के तहत जमानत मिलनी चाहिए। यह भी कहा गया कि उनका एक दस साल का लड़का है और उसकी देखभाल के लिए घर में कोई दूसरा नहीं है, क्योंकि लड़के के पिता अक्सर कामकाज के सिलसिले में देश से बाहर रहते हैं। लिहाजा, लड़के की देखभाल के लिए ही इस मां को जमानत दे दी जाए, लेकिन निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक ने इस दलील को ठुकरा दिया और जमानत मंजूर नहीं की। सर्वोच्च अदालत में तो कनीमोरी के वकीलों का यहां तक कहना था कि यदि सीबीआइ को डर है किवह अपने राजनीतिक रसूखों से गवाहों और जंाच को प्रभावित कर सकती हैं तो उन्हें उनके घर में नजरबंद रखा जा सकता है। उनके घर पर 24 घंटे पहरेदारी तथा इलेक्ट्रॉनिक निगरानी रखी जा सकती है। कनीमोरी के वकीलों ने जमानत याचिका में जिस धारा 437 का जिक्र किया है उसके तहत अभियुक्त यदि महिला है या 16 साल से कम उम्र का है अथवा अपंग या बीमार है तो उसे जमानत दी जा सकती है। बहरहाल द्रमुक सांसद कनीमोरी के इस जमानत प्रसंग के बहाने जेलों में महिला कैदियों और उनके बच्चों से जुड़े कई सवाल बहस की मांग करते हैं। इस समय देशभर में विभिन्न राज्यों की जेलों में कई हजार महिलाएं बंद हैं। उनमें सजायाफ्ता व विचाराधीन दोनों ही तरह की महिला कैदी हैं। कई हजार छोटे बच्चे भी अपनी मांओं के साथ जेल में हैं। भारतीय कानून के अनुसार 0-6 आयुवर्ग के शिशु जेल में अपनी कैदी मां के साथ रह सकते हैं। उसके बाद अगर परिवार में उनकी देखभाल करने के लिए कोई नहीं है या उनके द्वारा अनिच्छा जाहिर किया जाता है तो उसके देखभाल का बंदोबस्त करना राज्य का दायित्व है। कई बार ऐसा भी होता है कि सजा सुनाए जाने के बाद महिलाएं अपने बच्चों को जेल के छाए से भी दूर रखना चाहती हैं। उदाहरण के लिए पंजाब की एकमात्र महिला जेल लुधियाना में है और वहां अपने पति की हत्या के जुर्म में सजा काट रही एक महिला ने बताया था कि जब वह जेल में आई थी, तब अपनी दो बेटियों को अमृतसर के एक अनाथालय में छोड़कर आई थी। उसके बाद कई साल गुजर गए, लेकिन उसे उनकी कोई खबर नहीं। वह नहीं जानती कि उसकी बेटियां जीवित भी हैं या नहीं। जेल प्रशासन ने भी उसके बच्चों की जानकारी लेने की कोई कोशिश नहीं की। इसी तरह तिहाड़ जेल में सजायाफ्ता एक महिला कैदी ने बताया था कि वह अपने छोटे लड़के को मां के पास छोड़ आई है, क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसके बच्चे पर इसका बुरा प्रभाव पड़े। ऐसी अन्य हजारों महिला कैदी हैं जो जेल में अपने बच्चों से अलग रह रही हैं और जिनका जिक्र हाल के में सर्वोच्च अदालत ने कनीमोरी की जमानत याचिका को खारिज करने के फैसले में सुनाया था। अपने बच्चों से दूर रहने वाली इन महिलाओं व उनसे से दूर रहने वाले उनके बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर इन परिस्थितियों का काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस सबसे जेल में सजा काट रही ये महिलाएं कुंठित और तनावग्रस्त रहती हैं। उनकी ज्यादातर चिंता अपने घर जाने, बच्चों के भविष्य निर्माण और उनके साथ रहने की होती है। इसके अलावा इन महिलाओं में अपने बच्चों के प्रति समाज की प्रतिक्रिया को लेकर भी भय रहता है, क्योंकि ऐसे बच्चों के साथ अक्सर नफरत व अलगाव का व्यवहार किया जाता है। यह वे सवाल हैं जिनका पीछा वह नहीं छुड़ा पातीं। इसी चिंता के कारण न केवल उनका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है, बल्कि शारीरिक भी। 1986 में गठित कृष्णा अय्यर समिति ने भी पाया कि जेलों में मानसिक देखभाल की कमी एक गंभीर समस्या है जो महिला कैदियों की सेहत पर बुरा असर डालती है। महिला कैदियों का मानसिक स्वास्थ्य इसलिए भी ठीक नहीं रहता, क्योंकि कैद की जिंदगी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर विपरीत असर डालती है। महिला कैदियों को यह चिंता भी सताती है कि जेल से छूटने के बाद उनकी घर वापसी होगी भी या नहीं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व महानिदेशक शंकर सेन का कहना है कि उनकी जेल यात्राओं के दौरान कुछ महिला कैदियों ने बताया कि उनके पति अब उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे। गरीब महिला कैदियों की मानसिक स्वास्थ्य अधिक प्रभावित होने की आंशका इसलिए रहती है, क्योंकि वे गरीब होने के कारण अपना वकील नहीं कर पातीं और राज्य द्वारा उपलब्ध कराया गया सरकारी वकील ऐसे मामलों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाता। जितनी लंबी तारीखें पड़ती हैं उतना ही महिला कैदियों के तनाव का पारा बढ़ता चला जाता है। इनसे उनके परिवार वाले/रिश्तेदार पहले तो मिलने ही नहीं आते या बहुत कम आते हैं। ऐसे में वह अक्सर अपने घर और बच्चों से बिल्कुल कट जाती है। उन्हें इस बात की भी जानकारी नहीं होती कि उनके बच्चे कहां और किस हालात में होंगे। मानवाधिकारों व समाज के दबाव में आकर सरकार ने जेल सुधार व्यवस्था के लिए कई सुधार समितियों का गठन किया है। इन समितियों ने सुधार के लिए कई सिफारिशें की। ऐसी ही एक मुल्ला सुधार समिति की राय में महिलाओं की स्थिति सुधारने को ज्यादा तवज्जो शायद इसलिए नहीं दिया जाता, क्योंकि वे संख्या में बहुत कम हैं। यह तथ्य गौरतलब है कि एक कैदी होना और दूसरा महिला कैदी होने का मनौवैज्ञानिक असर महिला जेलों व महिला वार्डो में साफ देखा जा सकता है। वे सामाजिक अपराध की भावना के अलावा खुद को औरत होने के कारण कमजोर इकाई मान लेती हैं। इस तरह वह एक तरह के यथास्थिति की विवशता वाले विचार का हिस्सा बन जाती हैं। वह जेल के अधिकारियों और संबधित विभाग का नजरिया भी कैदी के आगे महिला शब्द जुड़ा देखकर उपेक्षित दृष्टिकोण अपनाया जाता है। वे औरत होने के नाते उसकी कुछ सीमाएं मानकर चलते हैं। वे महिला कैदियों के स्वभाव और मनोविज्ञान को समझते हुए मान लेते हैं कि इन्हें जो कुछ दे दिया जाएगा वही स्वीकार कर लेंगी। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

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