Monday, March 28, 2011

नशे में चूर जीवनसाथी की प्रताड़ना


 स्पेन में ग्रेनेडा यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन नतीजे के मुताबिक दस में से छह किसी न किसी प्रकार के नशा करने वाले नशेड़ी अपने जीवनसाथी को प्रताडि़त करते हैं। नशे के आदी पुरुष अपना आपा खो देते हैं और जीवनसाथी के प्रति उपेक्षाभाव रखते हंै, उसे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल और उसका यौन शोषण करते हैं। शारीरिक प्रताड़ना 6.5 से 21 प्रतिशत तक रहती है, जबकि भावनात्मक प्रताड़ना 7.3 से 72.5 तक रहती है। अध्ययन में यह भी पता चला कि 51 प्रतिशत पुरुष नशेड़ी जानते हैं कि इस प्रकार की हिंसा से उनके साथी को आघात पहुंचता है। यदि हम भारतीय समाज की बात करें तो यहां की स्थिति कई गुना और बदतर होगी, क्योंकि यहां तुलनात्मक रूप से महिलाएं ज्यादातर दूसरे पर निर्भर तथा कमजोर सामाजिक, आर्थिक स्थिति में हंै। यों तो आज कल पीना-पिलाना सामाजिक स्टेटस की भी बात हो गई है। किसी शादी-ब्याह या पार्टी में इसके बिना रुतबा कहां है। धीरे-धीरे आधुनिक रहन-सहन के साथ वह नत्थी होता जा रहा है। हुक्का पीना तो ग्रामीण संस्कृति में पहले से ही रचा-बसा था, लेकिन उसे अब फैशनेबल जामा पहनाकर शहरी युवाओं में खासा प्रचलित किया जा रहा है। पिछले दिनों एक अखबार के रविवारी अंक में इस पर बाकायदा स्टोरी आई थी। इसमें बताया गया है कि हुक्के के चस्के में युवा लड़के-लड़कियां दोनों शामिल हैं। बार या मशहूर रेस्तरां की तरह अब पॉश इलाकों में हुक्का बार, हुक्का कैफे, हुक्का लाउंज या शीशा पार्लर नाम से खुले हैं। नशे के सौदागरों को तो कभी भी इस्तेमाल करने वालों की सेहत से मतलब नहीं होता, उल्टे वे गुमराह करते हैं। दिल्ली के दर्जनों ऐसे ठिकाने हंै, जो देर रात तक चलते हैं। 250-300 रुपये में कई घंटा हुक्का पीया जा सकता है। घरेलू हिंसा के मामलों में एक बड़ा प्रतिशत नशे के कारण आता है। दिल्ली पुलिस के महिला अपराध शाखा में आने वाले तथा घरेलू हिंसा कानून के तहत दर्ज होने वाले मुकदमों के अलावा राष्ट्रीय तथा राज्य महिला आयोगों एवं विविध महिला संगठनों के पास नशे में प्रताड़ना तथा घर की संपत्ति और पैसा बर्बाद कर देने के मामलों का अंबार लगा रहता है। शाहबाद की सर्वेश का पति कुछ कमाता नहीं तथा वह घरों में झाड़ू-पोछा करके जो कमाकर ले आती है, वह भी पीने के लिए उसका पति छीन लेता है। तीन बच्चे हंै, जिनकी पढ़ाई बीच में छूट गई है। कभी बच्चों के तो कभी मां के शरीर पर मार खाने का निशान लगा रहता है। यह स्थिति दिल्ली के भलस्वा, बवाना, सरदार कालोनी तथा कई अन्य जगहों की श्रमजीवी महिलाओं की रोज की कहानी है। वहीं मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की महिलाएं भी नशे के कारण हिंसा की शिकार होती हैं। हो सकता है कि वहां की संख्या थोड़ी कम हो या उनकी प्रताड़ना घर की ऊंची दीवारों के बाहर नहीं पहुंच पाती हो। आखिर उन्हें भी समाज में परिवार की इज्जत बचाकर ही तो रखनी है। मोना एक अच्छी संस्था में ठीक-ठाक ओहदे पर काम करती है। आजकल की प्राइवेट नौकरियों की तरह उसका भी काम का घंटा अधिक है। दफ्तर के बाद बसों में धक्का खाते जब आठ बजे रात तक घर पहुंचती है, तब तक उसके पति अक्सर नशे में जा चुके होते हैं। फिर कभी बोलकर थका देते हंै तो कभी घर में उठा-पटक मचा देते हंै। मोना को फिर अगले दिन के ऑफिस की चिंता रहती है। बस में, सड़क पर, मेट्रो में भी इन पियक्कड़ों को झेलना समस्या है। उनकी शरारत और बदतमीजी के बाद भी अन्य सवारियों से नशे में होने की सहानुभूति मिल जाती है। अक्सर यह कहते लोग मिल जाएंगे कि छोड़ो, नशे में है। उसके मुंह क्या लगना। सवाल यह उठता है कि नशे में सफर करने वाला कोई व्यक्ति यूरोप के किसी देश में क्या उसी ढंग से व्यवहार करेगा, जैसी कि छूट की कोई नशेड़ी यहां अपेक्षा करता है। दूसरे के अधिकारों का हनन करने के मामले में या अपने पार्टनर के साथ हिंसा के मामले में भारतीय पुरुष कितना अव्वल होते हैं, यह एक अन्य खबर से भी स्पष्ट हो जाता है। दुनिया के छह अलग-अलग देशों में अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानकों के आधार पर आठ हजार पुरुषों और 3,500 स्ति्रयों के बीच किया गया प्रस्तुत सर्वेक्षण भारतीय पुरुषों की चरम हिंसक प्रवृत्ति को उजागर करता है। इंटरनेशनल सेंटर फार रिसर्च ऑन वुमेन, अमेरिका और इंस्टीट्यूटो प्रोमुंडोन, ब्राजील द्वारा संयुक्त रूप से किया अध्ययन बताता है कि अपने जिंदगी में कभी न कभी 24 फीसदी भारतीय पुरुष यौन हिंसा को अंजाम देते हैं, सिर्फ 17 फीसदी भारतीय पुरुष ऐसे कहे जा सकते हैं, जो समानतामूलक संबंधों के हिमायती हैं। चिली, रवांडा, क्रोएशिया, ब्राजील और मैक्सिको जैसे देशों के बीच भारतीय पुरुष सबसे अधिक हिंसक कहे जा सकते हैं। यौन हिंसा को अंजाम देने वाले 24 प्रतिशत भारतीय पुरुषों के बरअक्स महज दो फीसदी ब्राजील के पुरुष या अन्य चार देशों- चिली, रवांडा, क्रोएशिया और मैक्सिको- के महज 9 फीसदी पुरुष यौन हिंसा को अंजाम देते हैं। ध्यान देने लायक है कि इन छह देशों में से पांच देशों में जहां औरत और पुरुष के बीच बराबरी के लिए सहमति जताई, जबकि भारतीय पुरुषों का मानना था कि यदि परिवार को जोड़े रखना है तो औरत को हिंसा बर्दाश्त कर लेनी चाहिए। यह भी पाया गया कि जो घर के अंदर बहुत हिंसक होते हैं और अपने पार्टनर के साथ शारीरिक और यौनिक हिंसा करते हैं, वे बाहर ऐसा नहीं करते। देशभर में 70-80 के दशक में शुरू हुए स्त्री आंदोलनों में एक मुख्य मुद्दा शराबबंदी आंदोलनों का रहा है। देश के विभिन्न कोनों से खबरें अभी तक कभी कभार आ जाती हंै कि महिलाओं ने शराब का ठेका बंद करवाया। अकारण ही महिलाएं नशे के खिलाफ लामबंद नहीं होती रही हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि महिलाएं नशा नहीं करती हैं, बल्कि मुद्दा यह है कि नशे में आकर कौन दूसरों का या अपने पार्टनर का सुकून अधिक छीनता है। नशे में होने के कारण या मात्र इसके बहाने भी हिंसा तथा उत्पीड़न को बर्दाश्त करने लायक नहीं माना जा सकता है। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

Saturday, March 26, 2011

कन्या भ्रूण हत्या


 राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने पंजाब विश्वविद्यालय में वीमेन इन ड्राइवर ऑफ राइजिंग इंडिया विषय पर केंद्रित अपने भाषण में देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की लगातार कम होती संख्या के प्रति सतर्क किया है। उन्होंने अपने भाषण में साफ तौर पर कहा कि अगर यही प्रवृत्ति जारी रही तो हमारे समाज पर इसके बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। पंजाब व हरियाणा राज्य में पहले से ही ऐसे संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं। दरअसल, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का मकसद पूरे राष्ट्र का ध्यान उस रिपोर्ट की ओर दिलाना था जो उनके इस भाषण से ठीक एक दिन पहले भारतीय अखबारों में छपी थी। यह रिपोर्ट एक तरफ हमारे समाज के लिए चेतावनी है तो दूसरी तरफ भारत सरकार को आगाह करती है कि कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए बने कानून का सख्ती से अमल नहीं होने के कारण आज हालात किस तरह बद से बदतर होते जा रहे हैं। लंदन स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल हेल्थ एंड डेवलपमेंट का अनुमान है कि 20 साल बाद भारत में प्रति 120 लड़कों पर सिर्फ 100 लड़कियां होंगी। लंदन के डॉ. थेरेस हेस्केथ ने कनाडा मेडिकल एसोसिएशन की पत्रिका के ताजा अंक में खुलासा किया है कि भारत में लिंग अनुपात बिगड़ने की आशंका है। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है कि अभी भी ज्यादातर भारतीय लोग बेटी की बजाय बेटा चाहते हैं। भारत, चीन और कोरिया में किए अपने शोध से डॉ. थेरेस ने पता लगाया है कि अभी भी संतान के लिंग चुनाव परीक्षण कराने के मामले में भारतीय दूसरे मुल्कों से आगे हैं। दो दशकों के बाद भारत में सौ पुरुषों पर सिर्फ 80 महिलाएं ही होंगी यानी 120 लड़कों पर सिर्फ 100 लड़कियां होंगी। गौरतलब है कि यह अनुपात पहले ही 113 पर 100 तक पहंुच चुका है। भारत में क्षेत्र के हिसाब से लिंग का अनुपात बढ़ता -घटता रहता है। उत्तर और पश्चिम क्षेत्र में बसे पंजाब, दिल्ली व गुजरात में लिंग अनुपात की खाई बहुत ज्यादा है। इन राज्यों में छह साल से कम उम्र वाले 125 लड़कों पर 100 लड़कियां हैं, जबकि दक्षिण और पूर्व में स्थित केरल, आंध्र प्रदेश में 100 लड़कियों के मुकाबले 105 लड़के हैं। हालंाकि इस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि देश में जन्म के तुरंत बाद पंजीकरण नहीं होने से लिंग अनुपात का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल होता है। डॉ. थेरेस हेस्केथ ने अपने अध्ययन में यह कहा है कि भारत में कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कानून तो है मगर उसका धड़ल्ले से उल्लंघन भी हो रहा है। इस समस्या ने हमारी सरकार को भी कटघरे में खड़ा किया है। इस कानून का उल्लंघन करने वालों का एक गिरोह है, जिसमें पंजीकृत डॉक्टर, अस्पताल और क्लीनिक आदि सभी शमिल हैं। अपने देश में 34 हजार से ऊपर पंजीकृत क्लीनिक हैं, जिनमें से अधिकांश में तो कोख में पल रहे शिशु का लिंग जानने का ही धंधा होता है। देश की राजधानी दिल्ली में ही लिंग प्रतिषेध अधिनियम 1994 को दरकिनार कर दिया गया है। राज्य सरकार बेशक अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर महिला सशक्तीकरण के बड़े- बड़े विज्ञापन देकर अपनी योजनाओं का ढिंढोरा पीटे, लेकिन हकीकत यह है कि राज्य सरकार को यह जानने कि फुर्सत नहीं है कि किस पंजीकृत केंद्र में कितनी मशीनों का पंजीयन हुआ है। लिंग चयन में अल्ट्रासाउंड मशीनों के दुरुपयोग के मद्देनजर क्या इस बिंदु पर चर्चा होनी चाहिए कि आबादी के अनुपात से ऐसी मशीनों के लाइसेंस जारी किए जाने चाहिए। लोग बैंक से कर्ज लेकर घरों से ही ऐसी मशीनों से लिंग परीक्षण कर रहे हैं। आज लोग आबादी में तब्दील हो गए हैं और लड़कियां पैदा होने से पहले ही कोख में मारी जा रही हैं। पांच साल पूर्व वरिष्ठ नारीवादी वीणा मजूमदार ने ऐसे खतरनाक निष्कर्षो के प्रति सचेत करते हुए एक सेमीनार में कहा था कि ऐसे निष्कर्ष में परिवार का आकार छोटा रखने के लिए लड़कियों की भ्रूण हत्या इन लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखता। आम रुझान यही है कि अगर पहली संतान लड़की है तो दूसरी लड़की के जन्म लेने की संभावना 54 प्रतिशत घट जाती है और अगर एक परिवार में पहली दोनों संतान लड़कियां ही हैं तो तीसरी लड़की के पैदा होने की संभावना 20 प्रतिशत घट जाती है। पंजाब के लोग यह शिकायत तो करते हैं कि बेटे नकारा होते हैं। बेटे न तो खेती-बाड़ी करते हैं और न नौकरी-धंधा करते हैं। पढ़ाई में उनका मन लगता नही हैं और वे बूढ़े माता-पिता की परवाह तक नहीं करते। मगर इस सबके बावजूद वहां कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में खास कमी नहीं दर्ज की गई। लड़कियों के प्रति दुर्भावना आज के आधुनिक व मजबूत आर्थिक विकास दर की ओर अग्रसर भारत व समाज दोनों के लिए चिंता का विषय है। लैटिन अमेरिका, सहारा अफ्रीका और कैरेबियाई मुल्कों का समाज जो भारतीय समाज की तुलना में आर्थिक रूप से काफी पिछड़े हुए हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या में शमिल नहीं हैं। पुत्र मोह से मोह भंग अथवा लड़कियों को अलग नजरिए से देखने के रुझान को जानने के लिए अमेरिका व दक्षिण कोरिया का जिक्र यहां किया जा सकता है। अमेरिका में 1985 में कराए गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में 50 फीसदी महिलाओं ने बेटे की इच्छा जताई थी, लेकिन 2003 में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत से गिरकर 15 प्रतिशत तक पहुंच गया। व‌र्ल्ड बैंक में जनांकिकी विशेषज्ञ मोनिका दासगुप्ता ने द अटलाटिंक पत्रिका के हाल में छपे अंक में टिप्पणी की है कि सिर्फ पश्चिम में ही नहीं, बल्कि कभी पितृसत्तात्मक मूल्यों के लिए जाना जाने वाले दक्षिण कोरिया जैसे मुल्क जो अब विकसित हैं तक में बाल शिशुओं के प्रति प्राथमिकता खत्म हो गई है। कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए भारत, चीन व दक्षिण कोरिया में कानून तो लागू है, लेकिन उसका पालन जिस कड़ाई से दक्षिण कोरिया में हो रहा है, वह कड़ाई भारत व चीन में दिखाई नहीं देती। यह खुलासा हाल में ही जारी एक अध्ययन से हुआ है। अपने यहां एक तरफ पितृसत्तात्मक सोच है तो दूसरी तरफ कानून के उल्लंघन के चलते सालाना पांच से सात लाख माताएं प्रतिदिन 2000 कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मार देती हैं। आर्थिक रूप से देश के सबसे बेहतर सूबों में शमिल हरियाणा का लिंगानुपात बहुत ही कम हो गया है। यह एक हजार लड़कों के पीछे महज 834 है कि जबकि 2006 में यह आंकड़ा 857 था। यह उस राज्य का हाल है जहां कि लड़कियों ने कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण व रजत पदक जीतकर सबको चौंका दिया और दुनिया में देश का नाम रोशन किया। पिछले महीने रांची में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में भी हरियाणा की महिला हॉकी टीम ने स्वर्ण पदक जीता है। आज महिलाएं विपरीत माहौल में भी आगे बढ़ रही हैं फिर भी उनकी संख्या घटती जा रही है। सवाल यह है कि लंदन स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल हेल्थ एंड डेवलपमेंट के जिस अध्ययन ने भारत को लड़कियों की घटती संख्या के प्रति चेतावनी दी है, उसे हम कितनी गंभीरता से लेते हैं। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
अलका आर्य,दैनिक जागरण(राष्ट्रीय संस्करण), २६ मार्च २०११, पृष्ठ संख्या ९

Friday, March 18, 2011

इस दखलंदाजी का दर्शन क्या है


 हाल में दिल्ली हाईकोर्ट में तलाक के एक मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस कैलाश गंभीर ने कहा कि शादीशुदा लड़की के जीवन में माता-पिता को बिन बुलाए जज नहीं बन जाना चाहिए। उन्होंने माता-पिता की अनावश्यक दखलंदाजी पर नाराजगी जताई। लड़के की तरफ से यह बताया गया था कि उसके सास-ससुर हमेशा उसके वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप करते हैं। निरपेक्ष ढंग से देखें तो जज साहब का नजरिया बिल्कुल सही है, क्योंकि किसी को भी किसी के निजी जीवन में जब तक कि मदद मांगी न जाए, दखल नहीं देना चाहिए। मगर तीसरी दुनिया के हमारे मुल्क में हकीकत यही नजर आती है कि माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्ग दरअसल बड़े हो चुके तथा अपनी गृहस्थी को स्वयं चलाने वाले बच्चों को भी व्यावहारिक रूप से नासमझ मानते हैं। अक्सर ही बड़ों को यह मुगालता होता है कि वह जो बता रहे हैं, वह सही और उचित है। जबकि नदी की अविरल धारा की तरह चलने वाली जिंदगी में उनकी तमाम बातें उस अतीत को संदर्भित किए होती हैं, जो कभी लौटने वाली नहीं होती। अगर जज साहब की टिप्पणी की ओर लौटें तो गौर कर सकते हैं कि उनकी टिप्पणी शादीशुदा बेटियों के लिए है, शादीशुदा बेटों के लिए नहीं।। हो सकता है यह फैसला देते वक्त किसी केस की विशेष परिस्थिति रही हो, लेकिन आमतौर पर परिवारों में सिर्फ लड़की के मां-बाप ही नहीं लड़के के मां बाप भी हस्तक्षेप करते हैं और रिश्तों में तनाव इस वजह से भी आता है। हमारे समाज में यही रीति चली आ रही है कि लड़की का दूसरा घर हो जाता है और लड़के का वही रहता है। कई बार देखा गया है कि जहां पति-पत्नी के आपसी संबंध भी इसी वजह से टकराव में बदल जाते हैं, जब लड़के के माता-पिता की उनके परिवार में साधिकार होती दखलंदाजी के मसले को दोनों हल नहीं कर पाते हैं। कुछ मातृवंशी समुदायों में लड़की माता-पिता के घर में रहती थी, लेकिन वहां भी स्थिति बदली है और अब ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है। परंपरा और संस्कृति से बदलाव में सामंजस्य लड़की को करना होता है। ससुराल की संस्कृति में उसे रचने-बसने की अपेक्षा होती है। यह अलग बात है कि लड़के कभी भी अपने ससुराल की संस्कृति में नहीं खपते हंै यानी विस्थापित लड़कियां होती हंै, लड़के नहीं। इस विस्थापन के कई सारे प्रतिकूल असर रिश्तों पर भी पड़ते ही है। यह तो सही है कि दोनों जगह बराबर नहीं हो सकता है, क्योंकि इसमें दोनों पक्षों के सामने कई तरह की व्यावहारिक दिक्कतें भी आ सकती हैं। पर इतना तो है ही कि इसमें हमारे यहां इस तरह के गैर-बराबरीपूर्ण रिश्तों का प्रतिबिंब भी देखा जा सकता है। भारतीय परिवार में लड़का-लड़की बराबर नहीं समझे जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण लड़की का दूसरे घर जाना होता है। इसमें उसके द्वारा वंश परंपरा का आगे नहीं बढ़ना भी शामिल होता है तथा माना जाता है कि वह मां-बाप के बुढ़ापे का सहारा नहीं है। परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि व्यावहारिक रूप से जो भी समस्याएं आए उनका जवाब तलाशने की कोई कोशिश ही न की जाए। कल्पना करें बेटा या बेटी शादी के बाद जब अपनी नई गृहस्थी बसाने योग्य बन जाते हैं तब यदि वे अपनी नई गृहस्थी न इस घर में और न उस घर में बसाकर स्वतंत्र रूप से बसाएं ताकि कोई भी विस्थापित न हो तथा हर माता-पिता के घर में बेटा-बेटी बराबर का दर्जा भी पाएं तो इसमें किस तरह की समस्या हो सकती है? इसमें एक प्रतिक्रिया यह भी आ सकती है कि यह तो परिवार को और छोटा करके तोड़ देने वाली बात है। हमारे यहां तो संयुक्त परिवार की परंपरा रही है और उसका महिमामंडन आज भी होता है, बिना इस बात की परवाह किए कि वहां पति और पत्नी के रिश्ते कितने तनावपूर्ण थे और महिलाओं की वास्तविक स्थिति क्या थी? संयुक्त परिवारों के प्रति यह सम्मोहन इस हकीकत से बिल्कुल विपरीत दिखता है जो उन सर्वेक्षणों में उजागर होती है, जिनसे पता चलता है कि अब ऐसे परिवार नाममात्र को ही रह गए हैं और अधिकतर जोर नाभिकीय परिवार अथवा न्यूक्लियर फैमिली बनने की तरफ ही है। वर्तमान समय में यह समझने की आवश्यकता है कि जिम्मेदारी बोध साथ-साथ रहने से आ ही जाएगा यह कोई जरूरी नहीं। अलग-अलग रहकर भी दोनों पक्षों द्वारा अपनी जिम्मेदारी निभाई जा सकती है। माता-पिता अथवा परिवार के अन्य सदस्य जब अशक्त हो जाएं या फिर जब जरूरत हो तब वह उनके साथ रह सकते हैं या उन्हें अपने साथ रखा जा सकता है। परंतु अधिकतर माता-पिता बच्चों की शादी के बाद भी शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं तथा अपनी गृहस्थी स्वयं चलाने में पूरी तरह सक्षम होते हैं। यहां एक बात और स्वीकार करने लायक है कि बच्चे का परिवार भी माता-पिता के जीवन में दखलंदाजी करने लगता है। खुद दिल्ली के तथा दूसरे जगहों के न्यायालयों में ऐसे केस दर्ज हुए हंै जिसमें माता-पिता ने शिकायत दर्ज कराई कि उनके बेटे या बहू ने उनकी संपत्ति पर कब्जा कर रखा है। नोएड़ा की एक महिला जो विधवा हंै उन्हें उनके बेटे ने घर से निकाल दिया तथा वे किराए के घर में रहती हंै और पति की पेंशन जो उन्हें मिलती है उसी से अपना गुजारा करती हैं, जबकि उनके पास लाखों की अचल संपत्ति होती है। इस संदर्भ में दिल्ली स्थित तीस हजारी कोर्ट के एक मजिस्ट्रेट का भिक्षुकगृह के एक दौरे का अनुभव चौंकाने वाला लग सकता है। मालूम हो कि भिक्षुक गृह वह जगह होती है जहां शहर में भीख मांगते पकड़े गए लोग एक तरह से बंदी बनाकर रखे जाते हैं। जब संबंधित मजिस्ट्रेट ने लामपुर भिक्षुकगृह का अचानक दौरा किया तो 50 भिक्षुक ऐसे मिले जिनका अपना मकान और संपत्ति है तथा वे पढ़े-लिखे हैं, लेकिन बच्चों ने उन्हें घर से निकाल दिया है। दरअसल बैकुंठ शर्मा नाम के एक बुजुर्ग ने कोर्ट में केस दायर किया था कि उनके साथ दोहरा अन्याय हुआ है। एक तो बच्चों ने उन्हें उनके अपने मकान से निकाल दिया और जब वे मजबूर होकर भीख मांग रहे थे तो दिल्ली पुलिस ने पकड़कर उन्हें भिक्षु सुधारगृह में डाल दिया। उन्होंने अदालत में अपील की कि उनके भरण पोषण इंतजाम किया जाए। वैसे बुजुर्गो का मामला तो आज के समाज में एक अलग से ही चर्चा का विषय है, लेकिन यह घटनाएं बताती हैं कि किस तरह समाज में उनकी उपेक्षा की जा सकती है। रही बात रिश्तों की अथवा माता-पिता या बेटा-बेटी के जीवन में हस्तक्षेप की तो इस बात का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि कहां उनके सहयोग और समर्थन की जरूरत है और कब वह गैर जरूरी हो जाता है। काउंसलिंग का एक बुनियादी नियम है कि जब तक कोई सलाह नहीं मांगे तब तक उसे देना नहीं चाहिए। भारत में तो व्यक्तिगत अधिकारों के प्रति अहसास इतना कम है कि लोग राह चलते भी दूसरों को सलाह देना नहीं भूलते, बल्कि वह इसे अपना जरूरी फर्ज समझते हैं। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

Friday, March 11, 2011

शिक्षा ही सशक्तिकरण


कल ही हमने ’महिला दिवस‘ मनाया है, तमाम बड़ी - बड़ी बातों के बीच जिन चीजों को हम भूल जाते हैं, उनमें खास है पाठय़पुस्तकों में मौजूद लिंग के आधार पर भेदभाव। फिर बात चाहे छोटे स्कूलों की हो या बड़े नामी स्कूलों की। पढ़ाई-लिखाई से लेकर खेलकूद, लाइब्रेरी, लैबोरेट्री में भेदभाव का शिकार हो रहीं लड़कियां भला कैसे वह पाठ समझ पाएंगी, जो उन्हें सशक्तिकरण की ओर ले जाएगा। सही व उचित शिक्षा पण्राली से बेजार सरकार का ध्यान इन मुद्दों की तरफ नहीं जाता, आंकड़ों सहित बता रहे हैं शिरीष खरे-

सरकार ने लड़कियों के हकों की खातिर सशक्तिकरण के लिए शिक्षा का नारा दिया है लेकिन नारा देना जितना आसान लगता है, लक्ष्य उतना ही मुश्किल हो रहा है क्योंकि देश में इशाका जैसी 50 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती हैं। आखिरी जनगणना के अनुसार, भारत की 49.46 करोड़ महिलाओं में से सिर्फ 53.67 प्रतिशत साक्षर हैं। मतलब 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। ‘क्राई’ के अनुसार, भारत में 5 से 9 साल की 53 प्रतिशत लड़कियां पढ़ना नहीं जानतीं। इनमें से अधिकतर रोटी के चक्कर में घर या बाहर काम करती हैं। यहां वे यौन-उत्पीड़न या र्दुव्‍यवहार की शिकार बनती हैं। 4 से 8 साल के बीच 19 प्रतिशत लड़कियों के साथ बुरा व्यवहार होता है। इसी तरह 8 से 12 साल की 28 प्रतिशत और 12 से 16 साल की 35 प्रतिशत लड़कियों के साथ भी ऐसा ही होता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉड् र्स ब्यूरो को पता चला कि बलात्कार, दहेज प्रथा और महिला शोषण से जुड़े मुकदमों की तादाद देश में सालाना 1 लाख से ऊपर है। देश में महिलाओं की कम होती संख्या मौजूदा संकटों में से एक बड़ा संकट है। समय के साथ महिलाओं की संख्या और उनकी स्थितियां बिगड़ती जा रही हैं। जहां 1960 में 1000 पुरु षों पर 976 महिलाएं थीं, वहीं आखिरी जनगणना के मुताबिक यह अनुपात 1000 : 927 ही रह गया। यह उनके स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में गिरावट का अनुपात भी है। कुल मिलाकर, सामाजिक और आर्थिक संतुलन गड़बड़ा चुका है। सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए तमाम योजनाएं बनायी हैं। जैसे- घरों के पास स्कूल खोलना, स्कॉलरशिप देना, मिड-डे-मील चलाना और समाज में जागरूकता बढ़ाना। इसके अलावा, ग्रामीण और गरीब लड़कियों के लिए कई ब्रिज कोर्स चलाए गए हैं। बीते 3 बरसों में प्राथमिक स्तर पर 2000 से अधिक आवासीय स्कूल मंजूर हुए हैं। राष्ट्रीय बालिका शिक्षा कार्यक्रम के तहत 31 हजार आदर्श स्कूल खुले जिनमें 2 लाख शिक्षकों को लैंगिक संवेदनशीलता में ट्रेनिंग दी गई। इन सबका मकसद शिक्षा व्यवस्था को लड़कियों के अनुकूल बनाना है। ऐ सी महात्वाकांक्षी योजनाएं सरकारी स्कूलों के भरोसे हैं। लड़कियों की बड़ी संख्या इन्हीं स्कूलों में है, इसलिए स्कूली व्यवस्था में सुधार से लड़कियों की स्थितियां बदल सकती हैं लेकिन समाज का पितृसत्तात्मक रवैया यहां भी रुकावट खड़ी करता है। एक तो क्लासरूम में लड़कियों की संख्या कम रहती है और दूसरा उनके महत्व को भी कम करके आंका जाता है। हर जगह भेदभाव की यही दीवार होती है। चाहे पढ़ाई-लिखाई हो या खेलकूद, लाइब्रेरी हो लेबोरेट्री या अन्य सुविधाओं का मामला। दीवार के इस तरफ खड़ी भारतीय लड़कियां अपनी अलग पहचान के लिए जूझती हैं । हमारा समाज भी उन्हें बेटी, बहन, पत्नी, अम्मा या अम्मी के दायरों से बाहर निकलकर नहीं देखना चाहता। दरअसल, इस गैरबराबरी को लड़कियों की कमी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद हालातों के तौर पर देखना चाहिए। अगर लड़की है तो उसे ऐसा ही होना चाहिए, ऐसी सोच उसके बदलाव में बाधाएं बनती हैं। एक तरफ स्कूल को सशक्तिकरण का माध्यम माना जा रहा है और दूसरी तरफ ज्यादातर स्कूल औरतों के हकों से बेपरवाह हैं। पाठय़पुस्तकों में ही लिंग के आधार पर भेदभाव की झलक देखी जा सकती है। ज्यादातर पाठों के विषय, चित्र और चरित्र लड़कों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। इन चरित्रों में लड़कियों की भूमिकाएं या तो कमजोर होती हैं या सहयोगी। ऐसी बातें घुल-मिलकर बच्चों के दिलो-दिमाग को प्रभावित करती हैं, फिर वह पूरी उम्र परंपरागत पैमानों से अलग नहीं सोच पाते। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनकी गली, मोहल्लों और घरों में महिलाओं के साथ मारपीट होती है। इसके कारण उनके दिलो-दिमाग में कई तरह की भावनाएं या जिज्ञासाएं पनपती हैं लेकिन स्कूलों में उनके सवालों के जवाब नहीं मिलते, जबकि ऐसे मामलों में बच्चों को जागरूक बनाने के लिए स्कूल मददगार बन सकता है। दरअसल, हमारी शिक्षा पण्राली में ही अभद्र भाषा, पिटाई और लैंगिक-भेदभाव मौजूद है, इसलिए स्कूलों के मार्फत समाज को बदलने के पहले स्कूलों को बदलना चाहिए। आज भी कई जगहों पर लड़कियों की सुरक्षा के लिए चारों तरफ दीवार का होना जरूरी माना जा रहा है। दीवारें बनने के बाद दीवारों के समर्थक हो सकता है गाडरे की तैनाती को जरूरी मानने लगें। दरअसल, हमारे स्कूल उस समाज से घिरे हुए हैं, जहां लड़कियों को सुरक्षा के नाम पर कैद करने का रिवाज है। आज भी ज्यादातर लड़कियों के लिए शिक्षा का मतलब केवल साक्षर बनाने तक ही है। बचपन से ही उनकी शिक्षा का कोई मकसद नहीं होता। लड़कियों को बीए और एमए कराने के बाद भी उनकी शादी करा दी जाती है इसलिए लड़कियों की शिक्षा को लेकर रचनात्मक ढंग से सोचना जरूरी है। गांधीजी ने कहा था- एक महिला को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार पढ़ेगा। उन्होंने 23 मई, 1929 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा- जरूरी यह है कि शिक्षा पण्राली को दुरुस्त किया जाए। उसे आम जनता को ध्यान में रखकर बनाया जाए। गांधीजी मानते थे- ऐसी शिक्षा होनी चाहिए जो लड़कों-लड़कियों को खुद के प्रति उत्तरदायी और एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना पैदा करे। लड़कियां के भीतर अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह पैदा हो। इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा, इसलिए महिला आंदोलनों को तर्कसंगत प्रतिरोध के लिए अपने एजेंडा में लड़कियों की शिक्षा को केंद्रीय स्थान देना चाहिए। महिलाओं की अलग पहचान के लिए भारतीय शिक्षा- पद्धति, शिक्षक और पाठय़क्रमों की कार्यपण्राली पर नए सिरे से सोचना भी जरूरी है। (लेखक क्राई से जुड़े हैं )

Thursday, March 10, 2011

नारी कहां सुरक्षित !


जनता चाहेगी तो चुनाव भी लड़ूंगी : संपत


 विद्रोह की चिंगारी कब व कैसे फूटी? घर में ही महिला-पुरुष का भेदभाव था, सो इसकी शुरुआत भी परिवार से ही हुई। फिर आस-पास के घरों में महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज बुलंद की। बात आस-पास के गांवों में फैल गई और फिर महिलाएं साथ में जुड़ने लगीं। इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा होगा? 20 साल पहले की बात है, बांदा के राउली गांव में गुलाब नाम के एक दलित को प्रधान बनवाने की मुहिम चलाई, सफलता भी मिली। उस समय गुलाब के घर का पानी पीने पर मुझे पति व बच्चों के साथ ससुराल छोड़नी पड़ी थी। महिलाओं के साथ उत्पीड़न के लिए किसे दोषी मानती हैं? महिलाएं खुद जिम्मेदार हैं। इसके लिए उन्हें शिक्षित व आत्मनिर्भर बनाना होगा। दहेज प्रथा बंद करानी होगी। बाल विवाह पर रोक लगानी होगी, तभी स्त्री जाति के साथ अन्याय रुक सकेगा। महिला सशक्तीकरण के लिए सरकार को क्या करना चाहिए? काहे का सशक्तीकरण, सिर्फ दिखावा है। लड़की अपनी इच्छा से पति नहीं चुन सकती है। 16 साल की लड़की अपनी मर्जी से विवाह करती है, तो घरवाले उसे नाबालिग करार देकर रिपोर्ट दर्ज करा देते हैं, जबकि यही परिवार वाले जब बाल विवाह कराते हैं तो ठीक है। लड़कियां 16 साल की उम्र में बालिग हो जाती हैं, उन्हें कानूनी तौर पर इसकी मान्यता दी जानी चाहिए। प्रदेश में महिला उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी हैं? बांदा के शीलू कांड जैसी घटनाएं देश भर में हजारों होती हैं, इसमें विधायक का नाम आया तो मामला उछला। अन्यथा ऐसे कई मामले रोजाना दफन हो जाते हैं। आप राजनीति में आना चाहेंगी? अगर जनता की मर्जी होगी, तो वर्ष 2012 में विधानसभा चुनाव लड़ने पर विचार करूंगी। वैसे मैं खुद को किसी विधायक से कम नहीं मानती हैं, जनता के काम लड़कर करा लेती हूं। आप दुनिया की शीर्ष सौ प्रेरक महिलाओं में शामिल हुई हैं, कैसा लगा? बहुत खुशी हुई, किए गए कार्यो को मान्यता मिली। मां विंध्यवासिनी के दरबार में माथा टेककर आगे का संघर्ष जारी रखने का संकल्प किया है|

Monday, March 7, 2011

जमीन पर महिलाओं की हिस्सेदारी


आधुनिकता के दौर में भले ही हम महिला-पुरुष में गैर बराबरी के खत्म होने का जितना दम भर लें, पर यह रोग जल-जंगल-जमीन से जुड़े कानूनों में भी मौजूद है। आम जनमानस ने महिलाओं के भूमि अधिकारों के सवाल को हमेशा संपत्ति के सवाल से जोड़ कर ही देखा है। सिर्फ पारिवारिक विरासत को लेकर बने कानूनों के आधार पर ही नारियों को भूमि पर अधिकार दिए जाने की बात की जाती रही है। पर सचाई यही है कि ऐसे मामलों में भी उन्हें स्वतंत्र अधिकार नहीं दिया जाता। यह सुखद है कि देश के इतिहास में पहली बार वनाधिकार कानून-2006 में महिलाओं को वनभूमि पर समान अधिकार को मान्यता देने की बात की गई है।
वनाधिकार कानून में पहली बार महिलाओं के मालिकाना हक को दर्ज करने के कानूनी प्रावधान किए गए हैं। लेकिन इस कानून में वनक्षेत्रों में रहने वाले गरीब दलित आदिवासी तबकों का वन एवं वन भूमि पर नियंत्रण स्थापित हो जाने के डर से इन समुदायों को मालिकाना हक देने के लिए सरकार कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखा रही है। सरकार इसलिए सुस्त है, क्योंकि जब वनाधिकार कानून के अनुसार महिलाओं व वंचित समुदायों के मालिकाना हक में जंगल आ जाएंगे, तो वह बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को बड़े पैमाने पर न तो कौड़ियों के दाम वनभूमि उपलब्ध करा पाएगी और न प्राकृतिक संसाधनों का कोई सौदा ही होगा। इसके अलावा वन विभाग, पुलिस विभाग, प्रशासनिक अधिकारियों व माफियाओं की जंगल से होने वाली अवैध कमाई भी खतरे में पड़ जाएगी।
वनाधिकार कानून जनजातीय समुदायों के पिछले 250 वर्षों के संघर्ष का नतीजा है। पहली बार संसद ने वन भूमि व वनों पर महिलाओं के अधिकारों को व्यक्तिगत भूमि अधिकार सहित सामुदायिक और प्रबंधन के अधिकार को मान्यता दी। हालांकि अभी पूरी तरह से इन अधिकारों को महिला को केंद्र में रख कर दर्ज नहीं किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखें, तो महिलाएं पुरुषों की तुलना में प्रकृति के कहीं ज्यादा करीब होती हैं और उनमें सामुदायिकता का भाव अधिक होता है। इसलिए वनाधिकार कानून में नारियों के जिन अधिकारों को मान्यता दी गई है, उनका अपना महत्व है। अब वनों पर केवल पुरुषों का ही एकाधिकार नहीं होगा, बल्कि ये अधिकार उन्हें तभी मिलेंगे, जब उनके साथ परिवार की महिला का अधिकार भी दर्ज होगा। यही नहीं, अगर कहीं पर एकल महिला है या परिवार की मुखिया महिला है, तो भी यह अधिकार उसी के नाम से दर्ज होगा।
मेहनतकश, भूमिहीन व खेतिहर मजदूर महिलाओं द्वारा किसानी में 90 प्रतिशत से अधिक योगदान देने के बावजूद आज तक उन्हें किसान का दरजा नहीं दिया गया। देश में जितने भी भूमि कानून बने हैं, उनके अनुसार घर के पुरुष अथवा पति के देहांत होने पर सारे अधिकार बेटे अथवा परिवार के अन्य पुरुषों को विरासत में मिल जाते हैं। महिलाओं के लिए वनाधिकार कानून इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आंशिक अधिकार मिलने के बावजूद वे उनसे अपने बच्चों के भोजन और कुछ हद तक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा भी प्राप्त कर सकती हैं। अगर वनाधिकार कानून के अनुरूप महिलाएं अपना अधिकार पाने में सफल हो जाती हैं, तो इन महिलाओं को पति अथवा परिवार के पुरुष आसानी से घर से बाहर नहीं निकाल पाएंगे। यही नहीं महिलाओं के अधिकार बढ़ने से वन भी बढ़ेंगे। झारखंड में महिला आयोग की सदस्या वासवी कीरो द्वारा किए गए अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि जहां-जहां घने वन हैं, वहां महिलाओं का अनुपात पुरुषों के मुकाबले कहीं ज़्यादा है।
वनाधिकार कानून में भले ही वन समुदायों के साथ हुए अन्यायों की बात को स्वीकार किया गया है, पर वन संपदा पर काबिज अभिजात्य शक्तियां इसे वास्तविक रूप से स्थापित नहीं होने देना चाहतीं। वनाधिकार कानून को अमली जामा पहनाने के लिए महिलाओं को ही चेतना पड़ेगा, नहीं तो वन विभाग इन वन संपदाओं को देशी-विदेशी कंपनियों के साथ सौदा करके उन्हें बेच देगा। महिलाओं को स्वयं आगे बढ़कर इस कानून को समझना होगा और आम नागरिक समाज का समर्थन भी हासिल करना होगा, क्योंकि यह कानून महिलाओं के अधिकार ही नहीं, बल्कि पर्यावरण और पृथ्वी के अस्तित्व की सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है

महिला सशक्तिकरण का यक्ष प्रश्न


भारत अपनी स्वतंत्रता के छह दशक बिता चुका है और इन वर्षो में भारत में बहुत कुछ बदला है। विश्व के सबसे मजबूत गणतंत्र में सभी को अपनी इच्छा से जीने, सोचने और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता मिली है, जिसका हम उपभोग भी कर रहे हैं। हालांकि एक वर्ग ऐसा भी है जो आज भी इस सुखानुभूति से वंचित है और वह हैं स्ति्रयां। स्त्री और पुरुष के बीच भेद आज भी कायम है और यह तथ्य आंकड़ों से उद्घाटित होता है जो विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों द्वारा समय-समय पर किए गए सर्वेक्षणों पर आधारित है। एसोचैम की रिपोर्ट बताती है कि भारतीय महिलाएं घर और दफ्तर दोनों ही जगह भेदभाव का शिकार हैं। काम के बढि़या अवसर तो दूर उन्हें पदोन्नति के समान अवसर तक नहीं मिलते, जिस कारण वह उच्च पदों पर नहीं पहुंच पाती हैं। महज 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं। भारत में महिला आर्थिक गतिविधि दर केवल 42.5 प्रतिशत है, जबकि नार्वे में यह 60.3 प्रतिशत और चीन में 72.4 प्रतिशत है। यह आंकड़े बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों के हैं। विश्व के कुल उत्पादन में लगभग 160 खरब डॉलर का योगदान अदृश्य सेवा का होता है, इसमें भारतीय महिलाओं का योगदान काफी बड़ा है। इसके बावजूद समाज के आर्थिक वर्गो की गणना करते हुए घरेलू महिलाओं के श्रम का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाता और उनकी तुलना नगण्य माने जाने वाले पेशों के तहत होती है। देश के नीति-निर्धारकों की ओर से आर्थिक वर्गाीकरण करते हुए देश की आधी आबादी को इस दृष्टिकोण से देखा जाना न केवल उनके श्रम की गरिमा के प्रति घोर असंवेदनशीलता का परिचायक है, बल्कि यह भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा है। विगत दो दशक में महिला सशक्तीकरण की अवधारणा ने जोर पकड़ा है। यह वह प्रक्रिया है जो महिलाओं को सत्ता की कार्यशैली समझने की न केवल समझ देता है अपितु सत्ता के स्रोतों पर नियंत्रण कर सकने की क्षमता भी प्रदान करता है। सामाजिक विकास अंतर्निहित रूप से राजनीतिक होता है, इसलिए यदि यह असमानतापूर्ण और गैर सहभागितापूर्ण हो तो इससे समाज का विकास प्रभावित होगा। इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन के अनुसार विभिन्न देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व वहां की संसद में भारत की अपेक्षा बहुत अधिक है। यूं तो पंचायत और शहरी निकायों के माध्यम से विकास प्रक्रियाओं एवं निर्णयन की प्रक्रिया में सहभागिता बढ़ाने के लिए पचास प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई है। हालांकि अध्ययन बताते हैं कि सत्ता का उपभोग वास्तविक रूप में पदासीन महिलाओं की बजाय उनके परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं। यदि कभी ऐसा नहीं होता तो उसके घातक परिणाम भी देखने में आए हैं। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में एक महिला सरपंच को पूर्व सरपंच तथा उसके साथियों ने बस स्टैंड पर नग्न करके मात्र इसलिए पीटा कि, क्योंकि कार्यभार संभालने के एवज में उसने पंचायत फंड से सात हजार रुपये नहीं दिए। देश का संविधान, विभिन्न कानूनी प्रावधान और व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयास स्त्री को उबारने में लगे हैं, लेकिन महिलाओं की परेशानियां कम नहीं हो रही हैं। देश में शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहां महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस करती हों। बस, ट्रेन, ऑफिस, स्कूल-कॉलेज अथवा भीड़भाड़ वाले स्थानों से लेकर सुनसान रास्तों में फब्तियां कसने, घूरने, छेड़छाड़ आदि की घटनाएं आम हैं। सन 2009 में बलात्कार के 21 हजार मुकदमे दर्ज हुए। इनमें से 15 से 17 वर्ष वाली लड़कियों का प्रतिशत 12 फीसदी रहा तो उनसे छोटी लड़कियों की तादाद 29 प्रतिशत रही। हाल में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले वर्ष, हर तीन में से दो महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हुई। आंकड़े बताते हैं कि लड़कियां और स्ति्रयां बाहर की तरह अपने घरों में भी असुरक्षित हैं। पति और रिश्तेदारों द्वारा होने वाले अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। महिलाओं पर हो रही घरेलू हिंसा के आंकड़े जितने लंबे-चौड़े हैं उतने ही डरावने भी। उत्पीड़न, प्रताड़नाओं और अवहेलनाओं के कंटीले तारों से बींधता भारतीय स्त्री का जीवन इस धरा पर आने के लिए भी संघर्ष करता है। जन्म से पूर्व ही लिंग के प्रति भेदभाव आरंभ हो जाता है। भारत में बालिका भू्रणहत्या के संदर्भ में नोबेल पुरस्कार विजेता अम‌र्त्य सेन ने इस चिंता से सहमति जताई है कि इस कुप्रथा के चलते देश में ढाई करोड़ बच्चियां जन्म से पूर्व ही गुम हो गई। यही नहीं, डब्ल्यूईएफ ने बच्चियों के स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के आंकड़ों के हिसाब से भी पुरुष-महिला समानता की सूची में इन्हें निचले पायदान पर पाया है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मसलों में पुरुष और महिलाओं के बीच लगातार अंतर बना हुआ है। भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है जो कि स्पष्ट करता है कि महिलाएं मानव विकास की उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित हैं। विकसित देशों में प्रति लाख प्रसव पर 16-17 की मातृत्व मृत्युदर की तुलना में भारत में 540 की मातृत्व मृत्युदर, स्वास्थ्य रक्षा और पोषक आहार सुविधाओं में ढांचागात कमियों की ओर इशारा करती है। जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित देश की महिलाएं अनवरत रूप से असमानताओं के दंश झेल रही है। भारतीय महिलाओं में साक्षरता की कमी है सामंती समाज येन-केन प्रकारेण महिलाओं के अधिकारों का हनन परंपराओं के नाम पर करता है। यह विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को ऐसे कटघरे में ला खड़ा करता है जहां उसके पास मानवता के हनन को रोकने का कोई उत्तर नहीं है। जब स्ति्रयां आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ता है, गांव आगे बढ़ता है और राष्ट्र अग्रसर होता है। पर क्या हम वाकई इस तथ्य को आत्मसात कर पाए हैं या फिर स्त्री सशक्तीकरण की नियति महिला दिवस पर चर्चाओं और नारेबाजी तक सीमित हो गई है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)