Monday, March 7, 2011

अलग हैं इंडिया और भारत के महिला सशक्तीकरण


महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बावजूद आज भी महिलाओं को व्यावहारिक स्तर पर कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। आज हर क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी पुरुषों को टक्कर दे रही हैं। पिछले कुछ सालों में कामकाजी महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसके बावजूद पुरुष मानसिकता अब भी इस बदलाव को पूरी तरह पचा नहीं पा रही है। दरअसल, अस्मिता और सामाजिक सरोकार का संघर्ष हमेशा से चलता आया है। संक्रमण के इस दौर में नारी दोराहे पर खड़ी है। वह अस्मिता और सामाजिक सरोकार के संघर्ष में उन्हें संतुलन बिठाते हुए आगे बढ़ना है। वहीं महिला सशक्तीकरण के तमाम नारों के बावजूद सामाजिक संतुलन में पुरुष विमर्श हावी रहा है। जब महिला परिधि से केंद्र की ओर आएगी तो पुरुषों का गुस्सा स्वाभाविक है। महिलाओं को व्यावहारिक जीवन में जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, वह इस गुस्से की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इन सबके बावजूद मेरा मानना है कि स्थितियां बदलेंगी। थोड़ा वक्त लगेगा। हमें यह भी याद रखना होगा अच्छे-बुरे की परिभाषाएं स्थितियों के सापेक्ष बदलती रहती हैं। यानी यह निश्चित नहीं है कि आज का सत्तावान कल भी उसी रूप में रहे। आज अगर पुरुष केंद्र में हैं और महिलाएं परिधि पर, तो ऐसा सम्भव नहीं है कि यही स्थिति हमेशा बरकरार रहे। अब सवाल उठता है कि जो महिलाओं के पक्ष में जो बदलाव हो रहा है, वह कितना सही है? सशक्तीकरण के साथ खुलापन बढ़ रहा है और एक तरह से सांस्कृतिक असंतुलन कायम हो रहा है। यह देश मुख्य तौर पर दो भागों में बंटा हुआ है। एक तरफ महानगरों में रहने वाला और हर तरह से सम्पन्न इंडिया है। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाले और बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करने के संघर्ष में शामिल भारत है। भारत का मतलब अब भी थोड़ी धीमी चाल है। यहां अब भी रूढ़ियों और संस्कारों के आधार पर सम्बंधों का निर्वाह हो रहा है। वहीं इंडिया के मापदंड अलग हैं। ऐसे में महिलाओं की स्थिति में दोनों वगरें में बदलाव की स्थितियां भी स्वाभाविक तौर पर अलग हैं। इस दशा में बढ़ते खुलेपन व सांस्कृतिक असंतुलन को लेकर भी स्थितियां अलग- अलग हैं। पर इन दोनों वर्ग के बीच भी भारत में एक वर्ग उभर रहा है। इसे बौद्धिक वर्ग का नाम दिया जा सकता है। यह समाज और दुनिया में हो रहे बदलावों पर आलोचनात्मक रुख अपनाते हुए बातचीत करता है। कई स्तर पर हो रहे बदलावों की स्वीकारता भी है तो गलत लगने पर यह वर्ग किसी बदलाव को खारिज करने में भी पीछे नहीं हटता है। सही मायने में महिलाओं का सशक्तीकरण इसी वर्ग में हो रहा है और यही वर्ग वास्तविक सशक्तीकरण को गति देने का काम कर रहा है और आगे भी करेगा। जिस वर्ग में तथाकथित सशक्तीकरण के नाम पर खुलापन या सांस्कृतिक असंतुलन बढ़ने की बात हो रही है, वह इंडिया का वर्ग है और यह वर्ग उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण से संचालित हो रहा है। इन तीनों शब्दों के अंग्रेजी प्रतिरूप के पहले अक्षर को लें तो शब्द बनता है एलपीजी। अगर आप एलपीजी का इस्तेमाल सही ढंग से रसोई में करते हैं तो इससे खाना पकता है पर अगर आप इसका गलत इस्तेमाल करें तो इसमें विस्फोट भी हो सकता है। ऐसे में इंडिया में सशक्तीकरण के नाम पर जिस तरह की सतही जिंदगी लोग जी रहे हैं, वह तो किसी भी वक्त खतरनाक साबित हो सकता है। यह वर्ग ऐसा है जो वर्चुअल दुनिया में जी रहा है। ऐसी स्थिति में सशक्तीकरण का मतलब अनुकरण हो जाता है और फिल्मों-टीवी पर दिखने वाली अभिनेत्रियां आदर्श बन जाती हैं। सही मायने में सशक्तीकरण की स्थिति तो वह है जब अस्मिता से ज्ञान पैदा हो। सशक्तीकरण भेड़चाल नहीं है। यह तब होता है जब अपने समाज से आलोचनात्मक दृष्टि के साथ जुड़ते हैं। देखा जाए तो महिला सशक्तीकरण के मामले में हम नारे से खेल रहे हैं। इसमें तत्व नहीं है। सशक्तीकरण विचार स्तर पर तो है लेकिन व्यवहार में नहीं। (लेखिका प्रख्यात समाजशास्त्री हैं)


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