Monday, March 7, 2011

जमीन पर महिलाओं की हिस्सेदारी


आधुनिकता के दौर में भले ही हम महिला-पुरुष में गैर बराबरी के खत्म होने का जितना दम भर लें, पर यह रोग जल-जंगल-जमीन से जुड़े कानूनों में भी मौजूद है। आम जनमानस ने महिलाओं के भूमि अधिकारों के सवाल को हमेशा संपत्ति के सवाल से जोड़ कर ही देखा है। सिर्फ पारिवारिक विरासत को लेकर बने कानूनों के आधार पर ही नारियों को भूमि पर अधिकार दिए जाने की बात की जाती रही है। पर सचाई यही है कि ऐसे मामलों में भी उन्हें स्वतंत्र अधिकार नहीं दिया जाता। यह सुखद है कि देश के इतिहास में पहली बार वनाधिकार कानून-2006 में महिलाओं को वनभूमि पर समान अधिकार को मान्यता देने की बात की गई है।
वनाधिकार कानून में पहली बार महिलाओं के मालिकाना हक को दर्ज करने के कानूनी प्रावधान किए गए हैं। लेकिन इस कानून में वनक्षेत्रों में रहने वाले गरीब दलित आदिवासी तबकों का वन एवं वन भूमि पर नियंत्रण स्थापित हो जाने के डर से इन समुदायों को मालिकाना हक देने के लिए सरकार कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखा रही है। सरकार इसलिए सुस्त है, क्योंकि जब वनाधिकार कानून के अनुसार महिलाओं व वंचित समुदायों के मालिकाना हक में जंगल आ जाएंगे, तो वह बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को बड़े पैमाने पर न तो कौड़ियों के दाम वनभूमि उपलब्ध करा पाएगी और न प्राकृतिक संसाधनों का कोई सौदा ही होगा। इसके अलावा वन विभाग, पुलिस विभाग, प्रशासनिक अधिकारियों व माफियाओं की जंगल से होने वाली अवैध कमाई भी खतरे में पड़ जाएगी।
वनाधिकार कानून जनजातीय समुदायों के पिछले 250 वर्षों के संघर्ष का नतीजा है। पहली बार संसद ने वन भूमि व वनों पर महिलाओं के अधिकारों को व्यक्तिगत भूमि अधिकार सहित सामुदायिक और प्रबंधन के अधिकार को मान्यता दी। हालांकि अभी पूरी तरह से इन अधिकारों को महिला को केंद्र में रख कर दर्ज नहीं किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखें, तो महिलाएं पुरुषों की तुलना में प्रकृति के कहीं ज्यादा करीब होती हैं और उनमें सामुदायिकता का भाव अधिक होता है। इसलिए वनाधिकार कानून में नारियों के जिन अधिकारों को मान्यता दी गई है, उनका अपना महत्व है। अब वनों पर केवल पुरुषों का ही एकाधिकार नहीं होगा, बल्कि ये अधिकार उन्हें तभी मिलेंगे, जब उनके साथ परिवार की महिला का अधिकार भी दर्ज होगा। यही नहीं, अगर कहीं पर एकल महिला है या परिवार की मुखिया महिला है, तो भी यह अधिकार उसी के नाम से दर्ज होगा।
मेहनतकश, भूमिहीन व खेतिहर मजदूर महिलाओं द्वारा किसानी में 90 प्रतिशत से अधिक योगदान देने के बावजूद आज तक उन्हें किसान का दरजा नहीं दिया गया। देश में जितने भी भूमि कानून बने हैं, उनके अनुसार घर के पुरुष अथवा पति के देहांत होने पर सारे अधिकार बेटे अथवा परिवार के अन्य पुरुषों को विरासत में मिल जाते हैं। महिलाओं के लिए वनाधिकार कानून इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आंशिक अधिकार मिलने के बावजूद वे उनसे अपने बच्चों के भोजन और कुछ हद तक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा भी प्राप्त कर सकती हैं। अगर वनाधिकार कानून के अनुरूप महिलाएं अपना अधिकार पाने में सफल हो जाती हैं, तो इन महिलाओं को पति अथवा परिवार के पुरुष आसानी से घर से बाहर नहीं निकाल पाएंगे। यही नहीं महिलाओं के अधिकार बढ़ने से वन भी बढ़ेंगे। झारखंड में महिला आयोग की सदस्या वासवी कीरो द्वारा किए गए अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है कि जहां-जहां घने वन हैं, वहां महिलाओं का अनुपात पुरुषों के मुकाबले कहीं ज़्यादा है।
वनाधिकार कानून में भले ही वन समुदायों के साथ हुए अन्यायों की बात को स्वीकार किया गया है, पर वन संपदा पर काबिज अभिजात्य शक्तियां इसे वास्तविक रूप से स्थापित नहीं होने देना चाहतीं। वनाधिकार कानून को अमली जामा पहनाने के लिए महिलाओं को ही चेतना पड़ेगा, नहीं तो वन विभाग इन वन संपदाओं को देशी-विदेशी कंपनियों के साथ सौदा करके उन्हें बेच देगा। महिलाओं को स्वयं आगे बढ़कर इस कानून को समझना होगा और आम नागरिक समाज का समर्थन भी हासिल करना होगा, क्योंकि यह कानून महिलाओं के अधिकार ही नहीं, बल्कि पर्यावरण और पृथ्वी के अस्तित्व की सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है

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