Saturday, March 26, 2011

कन्या भ्रूण हत्या


 राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने पंजाब विश्वविद्यालय में वीमेन इन ड्राइवर ऑफ राइजिंग इंडिया विषय पर केंद्रित अपने भाषण में देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की लगातार कम होती संख्या के प्रति सतर्क किया है। उन्होंने अपने भाषण में साफ तौर पर कहा कि अगर यही प्रवृत्ति जारी रही तो हमारे समाज पर इसके बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। पंजाब व हरियाणा राज्य में पहले से ही ऐसे संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं। दरअसल, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का मकसद पूरे राष्ट्र का ध्यान उस रिपोर्ट की ओर दिलाना था जो उनके इस भाषण से ठीक एक दिन पहले भारतीय अखबारों में छपी थी। यह रिपोर्ट एक तरफ हमारे समाज के लिए चेतावनी है तो दूसरी तरफ भारत सरकार को आगाह करती है कि कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए बने कानून का सख्ती से अमल नहीं होने के कारण आज हालात किस तरह बद से बदतर होते जा रहे हैं। लंदन स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल हेल्थ एंड डेवलपमेंट का अनुमान है कि 20 साल बाद भारत में प्रति 120 लड़कों पर सिर्फ 100 लड़कियां होंगी। लंदन के डॉ. थेरेस हेस्केथ ने कनाडा मेडिकल एसोसिएशन की पत्रिका के ताजा अंक में खुलासा किया है कि भारत में लिंग अनुपात बिगड़ने की आशंका है। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है कि अभी भी ज्यादातर भारतीय लोग बेटी की बजाय बेटा चाहते हैं। भारत, चीन और कोरिया में किए अपने शोध से डॉ. थेरेस ने पता लगाया है कि अभी भी संतान के लिंग चुनाव परीक्षण कराने के मामले में भारतीय दूसरे मुल्कों से आगे हैं। दो दशकों के बाद भारत में सौ पुरुषों पर सिर्फ 80 महिलाएं ही होंगी यानी 120 लड़कों पर सिर्फ 100 लड़कियां होंगी। गौरतलब है कि यह अनुपात पहले ही 113 पर 100 तक पहंुच चुका है। भारत में क्षेत्र के हिसाब से लिंग का अनुपात बढ़ता -घटता रहता है। उत्तर और पश्चिम क्षेत्र में बसे पंजाब, दिल्ली व गुजरात में लिंग अनुपात की खाई बहुत ज्यादा है। इन राज्यों में छह साल से कम उम्र वाले 125 लड़कों पर 100 लड़कियां हैं, जबकि दक्षिण और पूर्व में स्थित केरल, आंध्र प्रदेश में 100 लड़कियों के मुकाबले 105 लड़के हैं। हालंाकि इस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि देश में जन्म के तुरंत बाद पंजीकरण नहीं होने से लिंग अनुपात का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल होता है। डॉ. थेरेस हेस्केथ ने अपने अध्ययन में यह कहा है कि भारत में कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कानून तो है मगर उसका धड़ल्ले से उल्लंघन भी हो रहा है। इस समस्या ने हमारी सरकार को भी कटघरे में खड़ा किया है। इस कानून का उल्लंघन करने वालों का एक गिरोह है, जिसमें पंजीकृत डॉक्टर, अस्पताल और क्लीनिक आदि सभी शमिल हैं। अपने देश में 34 हजार से ऊपर पंजीकृत क्लीनिक हैं, जिनमें से अधिकांश में तो कोख में पल रहे शिशु का लिंग जानने का ही धंधा होता है। देश की राजधानी दिल्ली में ही लिंग प्रतिषेध अधिनियम 1994 को दरकिनार कर दिया गया है। राज्य सरकार बेशक अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर महिला सशक्तीकरण के बड़े- बड़े विज्ञापन देकर अपनी योजनाओं का ढिंढोरा पीटे, लेकिन हकीकत यह है कि राज्य सरकार को यह जानने कि फुर्सत नहीं है कि किस पंजीकृत केंद्र में कितनी मशीनों का पंजीयन हुआ है। लिंग चयन में अल्ट्रासाउंड मशीनों के दुरुपयोग के मद्देनजर क्या इस बिंदु पर चर्चा होनी चाहिए कि आबादी के अनुपात से ऐसी मशीनों के लाइसेंस जारी किए जाने चाहिए। लोग बैंक से कर्ज लेकर घरों से ही ऐसी मशीनों से लिंग परीक्षण कर रहे हैं। आज लोग आबादी में तब्दील हो गए हैं और लड़कियां पैदा होने से पहले ही कोख में मारी जा रही हैं। पांच साल पूर्व वरिष्ठ नारीवादी वीणा मजूमदार ने ऐसे खतरनाक निष्कर्षो के प्रति सचेत करते हुए एक सेमीनार में कहा था कि ऐसे निष्कर्ष में परिवार का आकार छोटा रखने के लिए लड़कियों की भ्रूण हत्या इन लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखता। आम रुझान यही है कि अगर पहली संतान लड़की है तो दूसरी लड़की के जन्म लेने की संभावना 54 प्रतिशत घट जाती है और अगर एक परिवार में पहली दोनों संतान लड़कियां ही हैं तो तीसरी लड़की के पैदा होने की संभावना 20 प्रतिशत घट जाती है। पंजाब के लोग यह शिकायत तो करते हैं कि बेटे नकारा होते हैं। बेटे न तो खेती-बाड़ी करते हैं और न नौकरी-धंधा करते हैं। पढ़ाई में उनका मन लगता नही हैं और वे बूढ़े माता-पिता की परवाह तक नहीं करते। मगर इस सबके बावजूद वहां कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में खास कमी नहीं दर्ज की गई। लड़कियों के प्रति दुर्भावना आज के आधुनिक व मजबूत आर्थिक विकास दर की ओर अग्रसर भारत व समाज दोनों के लिए चिंता का विषय है। लैटिन अमेरिका, सहारा अफ्रीका और कैरेबियाई मुल्कों का समाज जो भारतीय समाज की तुलना में आर्थिक रूप से काफी पिछड़े हुए हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या में शमिल नहीं हैं। पुत्र मोह से मोह भंग अथवा लड़कियों को अलग नजरिए से देखने के रुझान को जानने के लिए अमेरिका व दक्षिण कोरिया का जिक्र यहां किया जा सकता है। अमेरिका में 1985 में कराए गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में 50 फीसदी महिलाओं ने बेटे की इच्छा जताई थी, लेकिन 2003 में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत से गिरकर 15 प्रतिशत तक पहुंच गया। व‌र्ल्ड बैंक में जनांकिकी विशेषज्ञ मोनिका दासगुप्ता ने द अटलाटिंक पत्रिका के हाल में छपे अंक में टिप्पणी की है कि सिर्फ पश्चिम में ही नहीं, बल्कि कभी पितृसत्तात्मक मूल्यों के लिए जाना जाने वाले दक्षिण कोरिया जैसे मुल्क जो अब विकसित हैं तक में बाल शिशुओं के प्रति प्राथमिकता खत्म हो गई है। कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए भारत, चीन व दक्षिण कोरिया में कानून तो लागू है, लेकिन उसका पालन जिस कड़ाई से दक्षिण कोरिया में हो रहा है, वह कड़ाई भारत व चीन में दिखाई नहीं देती। यह खुलासा हाल में ही जारी एक अध्ययन से हुआ है। अपने यहां एक तरफ पितृसत्तात्मक सोच है तो दूसरी तरफ कानून के उल्लंघन के चलते सालाना पांच से सात लाख माताएं प्रतिदिन 2000 कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मार देती हैं। आर्थिक रूप से देश के सबसे बेहतर सूबों में शमिल हरियाणा का लिंगानुपात बहुत ही कम हो गया है। यह एक हजार लड़कों के पीछे महज 834 है कि जबकि 2006 में यह आंकड़ा 857 था। यह उस राज्य का हाल है जहां कि लड़कियों ने कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण व रजत पदक जीतकर सबको चौंका दिया और दुनिया में देश का नाम रोशन किया। पिछले महीने रांची में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में भी हरियाणा की महिला हॉकी टीम ने स्वर्ण पदक जीता है। आज महिलाएं विपरीत माहौल में भी आगे बढ़ रही हैं फिर भी उनकी संख्या घटती जा रही है। सवाल यह है कि लंदन स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल हेल्थ एंड डेवलपमेंट के जिस अध्ययन ने भारत को लड़कियों की घटती संख्या के प्रति चेतावनी दी है, उसे हम कितनी गंभीरता से लेते हैं। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
अलका आर्य,दैनिक जागरण(राष्ट्रीय संस्करण), २६ मार्च २०११, पृष्ठ संख्या ९

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