Friday, January 28, 2011

हरियाणा में और घटा लड़कियों की पैदाइश का औसत


केंद्र और राज्य सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद हरियाणा में कन्याओं के प्रति लोगों की सोच बदल नहीं पा रही है। राज्य में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या के आनुपातिक आंकड़े की खाई इस बार और चौड़ी हो गई है। मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और गृहमंत्री के घर (गृह जनपद) समेत 17 जिलों में लिंगानुपात में गिरावट आई है । पिछले साल की तुलना में अनुपात का आंकड़ा 854 से घटकर 834 हो गया है। एक जनवरी को आए लिंगानुपात के ताजा आंकड़े डरावनी तसवीर पेश कर रहे हैं। राज्य में इस वर्ष लड़का-लड़की का लिंगानुपात सुधरने की बजाए करीब 20 प्वाइंट गिरा है। ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, प्रदेश में प्रति हजार लड़कों पर 834 लड़कियां है, जबकि पिछले साल यह संख्या 854 थी। ताजा आंकड़े इस लिहाज से और भी निराशाजनक कहे जा सकते हैं कि केंद्र और राज्य के स्वास्थ्य विभाग ने 2010 में लिंगानुपात सुधारने को कई योजनाएं चलाईं, पर नतीजा नकारात्मक रहा। 17 जिलों में लिंगानुपात में 30 प्वाइंट तक की गिरावट आई है। मुख्यमंत्री के गृह जिले में लिंगानुपात 20 अंक गिरकर 804 हो गया है जो 2009 में 824 था। दो वर्ष पूर्व लिंगानुपात में तेजी से सुधार के लिए पुरस्कृत स्वास्थ्य मंत्री के गृह जिला झज्जर में इस वर्ष भी गिरावट दर्ज की गई है। इस दफा लिंगानुपात 804 रहा, जबकि पिछले वर्ष लिंगानुपात 810 था। भिवानी का लिंगानुपात 863 से गिरकर 835, जींद का 860 से गिरकर 857, करनाल का 850 से गिरकर 835, कुरुक्षेत्र का 810 से गिरकर 765, अंबाला का 829 से 798, नारनौल का अनुपात 779 से गिरकर 773 लड़कियां प्रति हजार लड़के हो गया है। रेवाड़ी जिले में तो अनुपात 764 बना हुआ है, जो राज्य में सबसे कम है। राज्य के चार जिलों पानीपत, मेवात, यमुनानगर तथा पंचकूला में लिंगानुपात में सुधार दर्ज किया गया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पानीपत में लड़का-लड़की का अनुपात 837 से सुधरकर 853, मेवात में 889 से सुधरकर 894 हो गया है। विभिन्न जिलों के सिविल सर्जन बिगड़ते लिंगानुपात के लिए जागरूकता का अभाव व दिल्ली में लिंग जांच व गर्भपात के सुलभ साधनों को कारण मान रहे हैं। अनेक सिविल सर्जन ने बताया कि वे दिल्ली में लिंग जांच और गर्भपात की अधिक संभावना के चलते प्रदेश सरकार को इस बारे में पत्र लिख रहे है।

Wednesday, January 26, 2011

हर साल कोख में 7 लाख कन्याओं का कत्ल


राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) का कहना है कि जन्म लेने से पहले ही देश में हर साल सात लाख लड़कियों की हत्या कर दी जाती है। एनएचआरसी के सदस्य और पूर्व राजदूत रहे सत्यब्रत पाल ने यहां कहा, जैसे ही कोई महिला गर्भवती होती है, उसे बच्चे के लिंग के बारे मे चिंता सताने लगती है। गैरकानूनी तरीके से गर्भ परीक्षण कराने पर जब भ्रूण के लड़की होने का पता चलता है तो उसकी हत्या कर दी जाती है। उन्होंने कहा, भारत में हर साल एक वर्ष की उम्र से पहले ही 10 लाख 72 हजार बच्चों की मौत हो जाती है। लैंगिक भेदभाव वाली हमारी सोच इसकी सबसे बड़ी वजह है। लड़कों के बजाय लड़कियों की मृत्यु दर ज्यादा है। एक-तिहाई नवयुवतियां अल्पपोषित महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर किए गए एक सरकारी सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि भारत में तकरीबन एक तिहाई नवयुवतियां अल्पपोषित हैं और तकरीबन 56.2 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं रक्त की कमी से पीडि़त हैं। 


उत्तराखंड: दम तोड़ रही नंदा देवी कन्या योजना


उत्तराखंड सरकार की नंदा देवी कन्या योजना प्रचार प्रसार के अभाव में पात्र लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। आलम यह है कि पिछले वर्ष महज सोलह हजार कन्याओं को इसका लाभ मिला। इस वर्ष अभी तक तेरह हजार कन्याओं का चयन किया गया है, हालांकि इन्हें अभी तक कल्याण राशि नहीं दी गई है, जबकि सरकारी खजाने में योजना के मद में आठ करोड़ पड़ा हुआ है। बीपीएल परिवारों को आर्थिक सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से महिला एवं बाल विकास विभाग ने वर्ष 2009 में नंदादेवी कन्या योजना की शुरुआत की। योजना के तहत बीपीएल परिवार की पहली दो कन्याओं को पांच हजार रुपए दिए जाने का प्रस्ताव है। योजना के रिस्पांस को देखते हुए इसके विस्तार की भी योजना बनाई गई लेकिन प्रचार-प्रसार के अभाव में योजना दम तोड़ती नजर आ रही है। योजना के बारे में मैदानी क्षेत्रों में जिला स्तर पर तो लोगों को थोड़ी बहुत जानकारी भी है लेकिन गांव के स्तर पर बिल्कुल नहीं। ऐसे में पर्वतीय जिलों में योजना की गति कैसी होगी, समझा जा सकता है। यही वजह है कि 2009 में महज सोलह हजार कन्याओं को ही इसका लाभ मिला। इस साल तो स्थिति और भी नाजुक है, वित्तीय वर्ष के समाप्ति की ओर है अब तक तेरह हजार कन्याओं का ही चयन किया गया है, जबकि सरकारी खजाने में योजना के मद में आठ करोड़ पड़ा हुआ है। हाल ही में हुई विभागीय बैठक में बताया गया कि निदेशालय की ओर से प्रचार प्रसार के संबंध में भेजे गए प्रस्ताव पर वित्त विभाग ने अड़ंगा लगा दिया है। जिलों में विभागीय अफसरों के पास योजना का रिकार्ड दुरुस्त करने को स्टेशनरी तक नहीं है, विज्ञापन आदि तो बहुत दूर की बात है। जाहिर है विभाग का यह रवैया सरकार की इस महत्वपूर्ण योजना को पलीता लगा रहा है। महिला एवं बाल विकास विभाग की सचिव मनीषा पंवार के मुताबिक, योजना को सफल बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। इस बारे में भारतीय जीवन बीमा निगम से एमओयू किया गया है। स्वास्थ्य विभाग से भी वार्ता की जा रही है। संबंधित अफसरों को आवश्यक निर्देश दिए गए हैं।



Sunday, January 23, 2011

इंद्रावती का नाम सुनते ही डर जाते हैं अफसर


गोरखपुर। सचमुच, इंद्रावती के हौसले का जवाब नहीं है। अफसरों से लड़ते भिड़ते 80 महिलाओं का जॉब कार्ड और उन्हें नियमित काम दिलाकर इस अनपढ़ महिला ने नारी सशक्तिकरण की अनूठी मिसाल पेश की है। अब हाल यह है कि इंद्रावती का नाम सुनते ही अफसर कांप उठते हैं। डरते हैं कि कहीं फिर शासन से जांच न बैठ जाए। मनरेगा के स्टेट हेल्पलाइन को उसने प्रशासनिक कामकाज के खिलाफ बतौर हथियार इस्तेमाल किया है।
आप सोच रहे होंगे कि इंद्रावती कोई वीआईपी महिला है। जी नहीं, वह कैंपियरगंज के कुंजलगढ़ गांव की ऐसी गरीब महिला है जिसने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। लेकिन उसके इरादे चट्टान की तरह मजबूत हैं। क्षेत्र की महिलाएं उसे मुखिया कहकर पुकारती हैं और उसकी आवाज पर महिलाओं की फौज खड़ी हो जाती है। इंद्रावती के काम कराने का तरीका बिलकुल अलग है। यदि किसी का जॉब कार्ड नहीं बन रहा है तो वह स्टेट लेवल हेल्प लाइन पर फोन करती हैं। किसी भी तरह की दिक्कत को वह हेल्प लाइन के जरिए शासन तक पहुंचा देती हैं। इसके बाद लोकल स्तर पर अफसरों के पास पैरवी शुरू कर देती है। शासन के अलंबरदार भी उसकी बात को नजरअंदाज नहीं करते हैं। यही कारण है कि उसके गांव में तमाम गड़बड़ियां दूर हो गई हैं।
इंद्रावती को दूसरे के लिए लड़ने में हिचक नहीं होती। वह कहती हैं कि तीन साल पहले अपना जॉब कार्ड बनवाने के लिए जब गांव के प्रधान के पास गई तो उन्होंने डांट कर भाग दिया। बोले महिलाओं का जॉब कार्ड नहीं बनता है। एक गोष्ठी में इंद्रावती भाग लेने तहसील गई तो वहां लघु सीमांत किसान मोर्चा के लोगों ने मनरेगा के हेल्प लाइन का नंबर दिया और संपर्क करने को कहा। बस क्या था, इंद्रावती ने इस हेल्प लाइन को ऐसा हथियार बनाया कि प्रशासनिक अमले में हलचल मच गई। अफसरों ने प्रधान पर दबाव बनाया तो इंद्रावती का जॉब कार्ड बन गया। लेकिन इंद्रावती ने जॉब कार्ड लेने से मना कर दिया। उसने कहा कि पूरे गांव की महिलाओं का जॉब कार्ड बनना चाहिए। साल भर तक उसने ब्लाक से लेकर प्रधान और सेक्रेटरी से संपर्क किया। कोई फायदा नहीं हुआ तो फिर उसने हेल्प लाइन का सहारा लिया। हर सप्ताह वह हेल्प लाइन पर अपनी रिपोर्ट बताती रहीं। अधिकारियों को डांट मिली। सेक्रेटरी और प्रधान ने गांव की महिलाओं को बुलाकर जॉब कार्ड बनवाना शुरू किया।
अब इंद्रावती कहती हैं कि जॉब कार्ड तो बन गया है लेकिन अब सबको बराबर काम मिलना चाहिए। अगर काम नहीं मिलता है तो रोजगार भत्ता मिले। कहती हैं, कुछ भी हो हम लोग अपना हक लेकर रहेंगे। गांव की महिलाएं इस महिला से कदम मिलाकर चलती हैं।


क्यों न हो अपनी पहचान की चिंता


जापान की 75 वर्षीय महिला क्योको तुकोमोतो कहती हैं कि उनका अपने पति के प्रति प्रेम कम नहीं हुआ है और ही उनका उनसे कोई विरोध है लेकिन उन्हें अपने नाम के साथ अपने पति का उपनाम जोड़ने का कोई तुक समझ में नहीं आता है। इसलिए वह अब पचास साल बाद इसका विरोध कर रही हैं। गौरतलब है कि जापान में हर विवाहित महिला को अपने नाम के साथ पति का उपनाम जोड़ना कानूनन अनिवार्य है। तुकोमोतो ने इसके विरोध की पहल की और इस अभियान में आज अन्य महिलाएं भी उनसे जुड़ने लगी हैं। उनकी फरवरी में इस कानून के खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर करने की योजना है। तुकोमातो कहती हैं कि यह मामला सिर्फ पसन्दगी का नहीं है बल्कि आत्मसम्मान के साथ भी जुड़ा है। उनकी ख्वाहिश है कि बस मरने से पहले उनके नाम से पति का उपनाम हट जाए। याद रहे 1850 के दशक में शुरू हुए स्त्रियों के मताधिकार आन्दोलन की प्रणोता रही ल्यूसी स्टोन ने उस समय महिलाओं से अपील की थी कि महिलाएं शादी के बाद अपना पुराने नाम बनाये रखें। ये छोटी छोटी लगनेवाली बातें आन्दोलन के एजेंडा पर यूं ही नहीं आयी हैं बल्कि इसका रिश्ता औरत के लिए बनाये जानेवाली उसकी स्वतंत्र पहचान तथा अस्तित्व से जुड़ा होता है। किसी भी तबके के दोयम दज्रे की स्थिति कई छोटी छोटी चीजों को मिला कर बनती है जो धीरे-धीरे सोच, परम्परा और संस्कृति का हिस्सा बन जाती है। जापान की तरह हमारे यहां हालांकि पति का नाम साथ में जोड़ना कानूनन अनिवार्य नहीं है लेकिन रवायत यही है कि शादी के बाद महिलाओं के नाम के आगे पति का उपनाम जुड़ जाता है। अब कुछ शहरों में अपने- अपने स्तरों से महिलाएं इसका प्रतिरोध करना शुरू कर रही हैं। कई सिर्फ अपना ही नाम रखती हैं तो कुछ पति के साथ अपने पिता का उपमान भी इस्तेमाल करती हैं। एक मित्र कहती हैं कि सारे सरनेम तो पुरुष के ही हैं। चाहे पिता का हो या पति का। यदि नाम के साथ उपनाम लगाना ही हो तो जिसे बचपन से जानते हैं, उसी का दावा अधिक बनता है। इसी तरह नाम के शुरू में शादी के बाद श्रीमती जुड़ जाता है। महिलाओं के लिए शादी की पहचान श्रीमती और उपनाम के अलावा अन्य प्रतीकों जैसे सिन्दूर, मंगलसूत्र आदि के माध्यम से भी होती है। जबकि पुरुष की पहचान अपने जीवनभर के लिए स्थायी या शाश्वत होती है। यह स्थायित्व तथा अपनी पहचान स्व की अनुभूति कराते हैं जिसमें सम्मान के साथ खुद पर भरोसे की भी बात होती है। पता नहीं क्यों पश्चिम के देशों में भी जो ज्यादा विकसित माने जाते हैं तथा जहां महिला आन्दोलन पहले शुरू हुआ, वहां भी महिलाएं आज तक इस मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी हैं। बड़ी शख्सियतें भी अपने पतियों के उपनाम से पहचानी जाती है जैसे मिशेल ओबामा, हिलेरी क्लिन्टन इत्यादि। उन्हें भी मानो अपनी पहचान खोने का कोई गम नहीं है और पति की पहचान में समा जाने को ही वह आदर्श मान लेती हैं। हमारे एक भारतीय परिचित ने जब एक जर्मन महिला से शादी की तो वह अपने बदले हुए नाम के साथ ही हमें पहली बार मिलीं। जिस तरह अधिकतर समाज अपने यहां औरत के लिए पूर्ण बराबरी का समाज नहीं बना पाए है, उसी का प्रतिबिम्बन इसमें दिखता है। औरत की मानसिक बनावट और सोच भी इसी समाज की उपज है। कुछ समय पहले यह प्रश्न सुर्खियों में था, जब ब्रिटेन के मशहूर टैबलॉयड अखबारसनकी सम्पादक तथा एक अन्तरराष्ट्रीय मीडिया कम्पनी की चीफ एक्जिक्यूटिव होने वाली रेबेका वाड ने अपनी शादी के बाद अपने पति का सरनेम अपनाने का फैसला लिया था। मालूम हो कि पिछले दिनों सुश्री रेबेका ने दूसरी शादी की और वह रेबेका ब्रुक्स बन गयीं। उनके वर्तमान पति का नाम चार्ल्स ब्रुक्स है। उन्होंने अपने ईमेल के जरिए लोगों को अपने बदले नाम की सूचना भी दी तथा सम्बधित लोगों के लिए बाकायदा अपने मैरिज सर्टिफिकेट की कापी भी भेजी है। जाहिर है कि रेबेका का यह नामान्तरण नारी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत रही तमाम महिलाओं के लिए एक झटके के रूप में ही सामने आया। हमारे देश में भी अस्सी के दशक में उभरा नारी स्वातंत्र्य आन्दोलन जिसे नारी आन्दोलन का सेकेंड वेव भी कहते हैं, ने औरत की सामाजिक स्थिति को बदलने के लिए जबरदस्त संघर्ष किया। इस दौर में वह औरत के खिलाफ घटनेवाली घटनाओं के विरोध में तो वे सड़कों पर उतरी हीं, धरना, प्रदर्शन आदि किया ही लेकिन औरत की स्वतंत्र पहचान बनाने का प्रयास भी किया। ऐसा नहीं था कि सिर्फ स्त्री आन्दोलन से जुड़ी ताकतों ने ही यह लड़ाई लड़ी। वामपंथी शक्तियां भी इसमें पूरी तरह सक्रिय रहीं। इसके तहत इन प्रगतिशील ताकतों ने औरत की स्थिति में बदलाव के लिए अनेक परम्पराओं को भी चुनौती दी, मसलन शादीशुदा महिलाओं ने शादी के प्रतीक जैसे सिन्दूर, लाल-हरी चूडियां आदि नहीं पहनने, दहेज का लेन-देन करने पर जोर दिया। ऐसे व्रत-त्योहारों को मनाना छोड़ दिया जो स्त्री की गुलामी का महिमामंडन करते हों। परदा प्रथा का त्याग किया, आदि। आज कई बार यह देखने को मिलता है कि जिन महिलाओं ने यह लड़ाइयां लड़ीं, उन्होंने सिर्फ अपना स्वतंत्र अस्तित्व और पहचान बनायी बल्कि पूरी औरत जमात को यह सन्देश दिया कि वे भी अपने जीवन में न्याय और बराबरी के लिए प्रयास करें। लेकिन आज उन्हीं की सन्तानें या नई पीढ़ी की अनेक लड़कियां उस परम्परावादी जीवन शैली को अपनाने से परहेज भी नहीं रखती हैं जिससे उबरने के लिए एक पीढ़ी आज भी संघर्षरत है। नारी आन्दोलन में लम्बे समय से सक्रिय एक मित्र की बेटी ने बिना किसी संकोच गृहिणी बनने की इच्छा जाहिर की। आजकल इस तरह के किसी भी मामले को आसानी से चॉइस यानी अपनी इच्छानुसार चुनाव का मामला बना दिया जाता है। बहरहाल इसे नयी पीढ़ी का स्मृतिलोप कहें या कुछ और, लेकिन इस पीढ़ी को शायद यह एहसास नहीं दिखता कि औरत ने सार्वजनिक दायरे में आने के लिए दशकों तक संघर्ष किया है। क्योंकि एक दौर में उसके लिए बाहर की दुनिया में जगह बनाने के लिए तो उनका परिवार तैयार था, ही समाज और ही सरकारों ने अपनी नीतियों में कोई ऐसी पहल की जिससे औरत को बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहन मिले। सरकारों ने तो तभी कुछ दिया जब महिलाओं ने उन पर दबाव बनाया। परिवार के अन्दर कमानेवाली सदस्य की हैसियत हासिल करना तथा साथ में समाज में भी यह सन्देश देना कि वह हर काम करने में सक्षम है। बिना बराबर के योगदान के बराबर की हैसियत किसी को नहीं मिलती। यद्यपि घर के अन्दर का काम उन्हीं के हिस्से होता था, लेकिन यह सत्य है कि जिस काम के बदले कोई पैसा नहीं मिलता है उसकी गिनती काम में नहीं होती है। इन बिना पैसेवाले कामों का मूल्य हम सिर्फ अपनी चाहत से नहीं बढ़ा सकते बल्कि इसके लिए अन्दर और बाहर दोनों कामों का स्त्री-पुरूष के बीच बंटवारा करना होगा। इसीलिए महिलाओं ने जब तक स्थिति नहीं बदलती तब तक दोहरा बोझ उठाना स्वीकार किया। लेकिन आज की पीढ़ी, जिसे तुलनात्मक रूप से आसानी से पढ़ना-लिखना तथा खुद को विकसित करने का अवसर मिल पाया है, वह अपने परिश्रम तथा व्यवहार से अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए तत्पर नजर नहीं रही है। यदि सब कुछ सामान्य हो गया होता, औरत अपने हालात में संकटों की दहलीज पार कर गयी होती यानी समाज स्त्रीद्रोही नहीं होता और समानता कायम हो चुकी होती तो पीछे जाना उतना चिन्तनीय नहीं होता। लेकिन अभी तो शायद दशकों और लगेंगे पथ-प्रशस्त होने में।