Wednesday, June 15, 2011

बेटियों से भेदभाव


आमतौर पर यह माना जाता है कि शिक्षित समाज सामाजिक विषयों को लेकर कहीं अधिक संवेदनशील होता है, क्योंकि उसमें चेतना का विकास अपेक्षतया अधिक होता है। मगर यह धारणा कन्याभ्रूण हत्या के संदर्भ में सार्थक सिद्ध नहीं होती। हाल ही में एक अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि पिछले तीन दशकों में लगभग एक करोड़ इक्कीस लाख लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया गया। बालक-बालिकाओं के बिगड़ते अनुपात के संबंध में चिंता जाहिर करते हुए देश के प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय शर्म करार देते हुए कहा कि महिलाओं की कामयाबी के बावजूद भारतीय समाज लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह का शिकार है। आम भारतीयों की सोच है कि असंतुलित लिंगानुपात पिछड़े, अशिक्षित और निचले तबकों के कारण है जो बिल्कुल गलत है। सच तो यह है कि पिछले दशक में उनके बीच कन्या शिशुओं की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। अनेक अध्ययनों से यह तथ्य सामने आ चुका है कि कन्याभ्रूण हत्या की समस्या देश के अपेक्षतया संपन्न इलाकों और सुशिक्षित तबकों में गंभीर रूप धारण कर लिया है। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बीस प्रतिशत संपन्न परिवारों में कन्या भ्रूणहत्या की दर में लगातार इजाफा हुआ है और प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या साढ़े सात सौ तक गिर गई है। शिक्षा और आर्थिक सुदृढ़ता व्यक्ति की मानसिकता को परिवर्तित कर देती है परंतु बेटियों के प्रति दृष्टिकोण को लेकर ऐसा नहंी हुआ, बल्कि संपन्नता और आधुनिक शिक्षा उनके लिए और घातक बन गई है। आधुनिक तकनीक सोनोग्राफी का उपयोग बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य और जीवन रक्षा के लिए होना चाहिए था, लेकिन संकीर्ण विचारधारा से ग्रस्त माता-पिता ने बेटियों को गर्भ में ही समाप्त करने वाले शस्त्र के रूप में उपयोग किया। महिलाएं चाहे कितनी भी शिक्षित हो जाएं, लेकिन अधिकांशतया बेटा ही चाहती हैं, क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में स्वयं की स्थिति को ऊंचा बनाए रखने का एकमात्र उपाय बेटे की मां होना है। इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि भारतीय परिवारों में, अधिकांश महिलाएं अपने निर्णयों को लेकर आज भी स्वतंत्र नही हैं। उनके हर निर्णय पर परिवार की सहमति अनिवार्य है। बेटे का जन्म प्रतिष्ठा और बेटी का जन्म परिवार के लिए बोझ माना जाता है। भारत में लिंगानुपात आर्थिक तौर पर अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े देशों पाकिस्तान व नाइजीरिया से कम है। यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोजाना 7000 लड़कियों की गर्भ में हत्या कर दी जाती है। पिछले कुछ वर्षो में कानून-निर्माताओं ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी, परंतु डॉक्टर और अभिभावक उससे बचने के सहज रास्ते ढूंढ़ लेते हैं। यह उस शोध और अध्ययन परिणामों के आधार पर कहा जा रहा है जिसे देश के महापंजीयक तथा जनगणना आयुक्त, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने संयुक्त रूप से किया है। अगर यूं ही बेटियों की तादाद में गिरावट आती गई तो यह निश्चित है कि इसका व्यवस्थित सामाजिक ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। समाज को यह नहीं भूलना चाहिए कि वंश योग्य संतान से चलता है न कि सिर्फ बेटे के जन्म से। मनुष्य की निर्मात्री नारी है तो हमारा समाज बेटियों के प्रति निर्ममता क्यों दिखाता है? जो समाज इतनी निर्ममता से बच्चियों को जन्म से पहले ही मार रहा है उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि अंततोगत्वा उसे इसका परिणाम झेलना होगा, क्योंकि बेटियों की घटती संख्या से उनके भविष्य पर सामाजिक दबाव निश्चित तौर पर बढे़गा। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जो परिवार अब भी संकीर्ण मानसिकता को छोड़ने के लिए तैयार नही हैं उनके लिए कानून के बंधनों को इतना कठोर बनाने की जरूरत है कि स्वप्न में भी बालिका भू्रणहत्या की कल्पना न कर सकें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


Friday, June 10, 2011

स्त्री सशक्तिकरण का सच


सीबीएसई के परीक्षा परिणामों और संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में लड़कियों ने जो उत्साहजनक प्रदर्शन किया है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि आने वाले दिनों में लड़कियां ही देश की दिशा तय करने जा रही हैं। यह न सिर्फ स्ति्रयों के सशक्त होने, बल्कि उनके प्रति भारतीय समाज के लगातार बदलते नजरिये को भी जाहिर करता है। कई कड़वी सच्चाइयों के बावजूद इन नतीजों से यह बात भी अपनी जगह सही साबित हो रही है कि भारतीय माता-पिता अब बेटे-बेटी में फर्क करने की प्रवृत्ति से बहुत हद तक उबर चुके हैं। अब वे बेटियों के स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यक्तित्व विकास और अन्य सुविधाओं को भी उतना ही महत्व देने लगे हैं, जितना कि बेटों के लिए देते रहे हैं। इसका ही असर है, जो आज हम स्त्री को इस सशक्त रूप में उभरते हुए देख रहे हैं। बेशक, यह स्त्री सशक्तीकरण के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पिछले छह दशकों में लगातार किए गए प्रयासों का ही नतीजा है। यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए कि बमुश्किल तीन दशक पहले तक भारतीय समाज में आम घरों की लड़कियों के स्कूल जाने की बात सिर्फ सपना ही होती थी। इसके पीछे कई तरह के सामाजिक-आर्थिक कारण मौजूद थे और सच कहें तो वे कारण कुछ कम जरूर हो गए हैं, लेकिन पूरी तरह खत्म अभी भी नहीं हुए हैं। लड़कियों को लड़कों के समान स्नेह, सम्मान और सुविधाएं मिल सकें, इसके लिए विभिन्न सरकारों ने व्यापक अभियान चलाए हैं। जनजागरूकता के लिए चलाए गए तमाम कार्यक्रमों को इसमें पूरा महत्व दिया गया। वैश्विक स्तर पर हो रहे बदलावों और विकसित देशों में स्ति्रयों की स्थिति तथा वहां के राष्ट्रीय विकास में उनके योगदान की जो खबरें मीडिया के माध्यम से आम जनता तक पहुंची हैं, उसने भी लोगों को इस मसले पर नए सिरे से सोचने-समझने के लिए प्रेरित किया है। कुछ अपवादों की बात छोड़ दें तो ज्यादातर देशवासियों ने इन मसलों पर गंभीरता से विचार किया भी है। ठीक इसी तरह कुछ अपवादों या मजबूर लोगों की बात छोड़ दें तो अधिकतर अभिभावकों ने अपनी बेटियों की शिक्षा और उनके सामाजिक विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया है। जो लोग जरा भी मजबूत स्थिति में थे, उन्होंने अपनी बच्चियों को स्कूल भेजना शुरू किया है। उनके स्वास्थ्य और उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिए अपनी सुविधानुसार यथासंभव अनुकूल व्यवस्थाएं बनाई हैं। आर्थिक रूप से मजबूर अभिभावकों की बेटियों के लिए भी सरकार ने अनुकूल माहौल उपलब्ध कराने की कोशिश की है। कहीं उन्हें छात्रवृत्ति उपलब्ध कराई गई, तो कहीं स्कूल आने-जाने के लिए साइकिलें, कहीं कॉपी-किताबें और कहीं स्कूल ड्रेस भी। हालांकि इन योजनाओं को क्रियान्वयन कितनी ईमानदारी से किया गया और कितने वास्तविक पात्रों को इसका समुचित लाभ मिल सका, यह एक अलग मसला है। इसके बावजूद आज स्कूल-कॉलेजों में बड़ी संख्या में लड़कियां दिख रही हैं और वहां वे अच्छे प्रदर्शन भी कर रही हैं, यह इन सरकारी प्रयासों का ही नतीजा है। यह इस बात का प्रमाण भी है कि कुछ अपवादों को छोड़कर आम तौर पर इन योजनाओं को क्रियान्वयन ईमानदारी से हुआ है। कई दूसरी योजनाओं एवं कार्यक्रमों की तरह इन्हें सरकारी तंत्र की निष्कि्रयता और भ्रष्टाचार का अजगर पूरी तरह निगल नहीं सका। निश्चित रूप से इसकी असली वजह सरकारों की गंभीरता, सतर्कता और कड़ाई ही रही है। इसका श्रेय सरकार को दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही हमें उन बातों पर भी ध्यान देना ही होगा जिन पर अमल किया जाना अनिवार्य है, लेकिन अभी तक पूरी गंभीरता से किया जाता दिख नहीं रहा है। यह सच है कि हमारे समाज में अभी भी बड़ी संख्या में कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। जन्म लेने से पहले लड़कियों को मां के गर्भ में ही मार दिया जा रहा है। तकनीकी विकास का इससे घिनौना उपयोग शायद ही दूसरा बताया जा सके। क्या इसके लिए केवल उन माता-पिता को ही जिम्मेदार ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ा जा सकता है, जो अपनी बेटियों को दुनिया में आने से पहले ही मार दे रहे हैं? या सिर्फ भ्रूण के लिंग परीक्षण और गर्भपात करवाने वाले स्वास्थ्य पेशेवरों को जिम्मेदार बता कर मुक्त हुआ जा सकता है? बिलकुल नहीं। यह एक बेहद कड़वा सच है कि इसके लिए हमारा पूरा तंत्र जिम्मेदार है और विभिन्न सरकारों में उच्चतम पदों पर आसीन लोग खुद को इससे मुक्त नहीं कर सकते हैं। अगर वे वास्तव में इस दिशा में गंभीर होते तो आज शायद समाज में स्ति्रयों की यह दशा नहीं होती। जिस तरह स्ति्रयों की स्थिति में आए सुधार का श्रेय उन्हें जाता है, ठीक उसी तरह समाज में अभी भी उनकी जो दुर्दशा है, उसकी जिम्मेदारी भी उन्हें लेनी ही होगी। भ्रूण हत्या की सबसे बड़ी वजह हमारे समाज में दहेज की कुप्रथा है। यह वह सबसे बड़ी वजह है कि जिसके कारण माता-पिता आज भी अपनी बेटी को बोझ समझने के लिए विवश हैं। हालांकि दहेज पर रोक के लिए हमारे देश में लंबे समय से कानून भी चला आ रहा है, लेकिन अत्यंत शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि वह वह कानून वर्षो बाद आज तक हमारे समाज में सिर्फ मजाक का पात्र बन कर रह गया है। सभी जानते हैं कि अधिकतर शादियों में दहेज लेने-देने का रिवाज बदस्तूर जारी है। इसके बावजूद इस कानून के गंभीरतापूर्वक प्रवर्तन की कोई कोशिश कहीं नहीं की जा रही है। सवाल यह है कि ऐसा कोई प्रयास किया भी कैसे जाए? दहेज के लेन-देन का रिवाज सबसे ज्यादा तो उन्हीं लोगों के बीच है जिन्हें इस कानून को लागू कराना है। अब स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण प्रयास यही होगा कि दहेज के खिलाफ कानून को तुरंत गंभीरता से लागू किया जाए। इसके साथ ही जगह-जगह स्ति्रयों पर हे रहे अत्याचार भी इस दिशा में बाधक बन रहे हैं। कहीं स्ति्रयां घरेलू हिंसा से ही पीडि़त हैं तो कहीं सड़क पर चलते उनकी अस्मत लूट ली जा रही है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक इससे मुक्त नहीं है। जगह-जगह महिला थाने भी बना दिए गए हैं। इसके बावजूद अपराधी तत्वों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। दुष्कर्म के आरोपी पकड़ भले लिए जाएं, लेकिन विधिक प्रक्रिया की रफ्तार विभिन्न कारणों से इतनी धीमी है कि जब तक मामले पर फैसले की नौबत आती है, रसूखदार अपराधी सबूतों से इतनी छेड़छाड़ कर चुके होते हैं कि उनके लिए बच निकलना बहुत आसान हो चुका होता है। सरकार को इन बातों पर भी ध्यान देना होगा। जब तक इन समस्याओं के प्रभावी और स्थायी समाधान नहीं निकाल लिए जाते, स्त्री सशक्तीकरण का न तो कोई खास अर्थ होगा और न ही हमारे समाज को इसका कोई बड़ा लाभ मिलेगा। राष्ट्र के निर्माण में स्ति्रयां निर्भय और निश्चिंत होकर अपनी भूमिका निभा सकें, इसके लिए इन बातों पर ध्यान देना ही होगा। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

Wednesday, June 1, 2011

माताओं के स्वास्थ्य की अनदेखी


तीव्र आर्थिक विकास के बावजूद भारत में माताओं की स्थिति अच्छी नहीं है। माताओं की स्थिति पर तैयार की गई 79 अल्प विकसित देशों की रैंकिंग में भारत का स्थान 75वां है। हालत यह है कि भारतीय माताओं की स्थिति बोत्सवाना, कांगो और कैमरून जैसे पिछड़े दक्षिण एशियाई देशों से भी बुरी है। हमारे नीति-निर्माता ऊंची विकास दर का हवाला देकर देश के तेजी से तरक्की करने का विश्वास दिलाते रहते हैं, लेकिन यह दावा समूची आबादी के संदर्भ में लागू नहीं होता। संयुक्त राष्ट्र के अध्ययन के मुताबिक भारत में हर साल अड़सठ हजार महिलाएं गर्भावस्था से जुड़ी दिक्कतों या प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। गौरतलब है कि पिछले साल भारत इस मामले में 73वें पायदान पर था जबकि इस बार दो स्थान और नीचे खिसक गया है। जाहिर है, देश की प्राथमिकताओं में महिलाओं का स्वास्थ्य शामिल नहीं है। भारत में मातृ मृत्यु दर प्रति एक लाख जीवित जन्म पर 254 है। भारत का स्थान हिंसाग्रस्त अफ्रीकी देशों केन्या और कांगो से भी नीचे है। भारत उन देशों में शामिल है जहां स्वास्थ्य संबंधी देखभाल में भारत में अंतरराष्ट्रीय मापदंडों को लागू करने में परेशानी आती है। एचआरडब्ल्यू की यह रिपोर्ट भारत में मातृ स्वास्थ्य के प्रति बरती जाने वाली लापरवाही की ओर संकेत कर रही है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वाच के मुताबिक, सरकार स्वास्थ्य क्लीनिकों और अस्पतालों में होने वाले प्रसूति आंकड़े रखती है, लेकिन ये अस्पताल अक्सर संसाधनों की भारी कमी से जूझ रहे होते हैं। बहुत सी महिलाएं प्रसूति के बाद या तो मर जाती हैं या गंभीर रूप से बीमार हो जाती हैं। संगठन की रिपोर्ट कहती है कि भारत सरकार इस बात की निगरानी नहीं करती कि प्रसूति के बाद इन महिलाओं के साथ क्या हुआ? इस जानकारी के बिना सरकार उन महिलाओं को नहीं बचा सकती जो घर जाने के बाद दम तोड़ देती हैं या फिर दीर्घकालिक अस्वस्थता से ग्रसित हो जाती हैं। एचआरडब्ल्यू के मुताबिक अगर भारत मांओं को स्वस्थ रखना चाहता है तो इसके लिए आवश्यक है कि वह यह सुनिश्चित करे कि गर्भावस्था संबंधी जटिलताओं से पीड़ित महिलाएं वास्तव में जरूरी उपचार हासिल कर पा रही हैं या नही या प्रसूति के बाद भी वे जिंदा रहती हैं या नहीं। यूनिसेफ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में मां बनने वाली एक लाख महिलाओं में दो सौ तीस की मौत हो जाती है। देश में पैंसठ प्रतिशत प्रसव अब भी घरों में या अप्रशिक्षित दाइयों की देख-रेख में होते हैं। यह अफसोसजनक स्थिति जननी सुरक्षा जैसी कई योजनाओं के बावजूद बनी हुई है। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत गांवों के लिए बजट में बढ़ोतरी की गई है, लेकिन आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र चिकित्सकों की कमी से जूझ रहे हैं। देश में अधिकतर अस्पतालों में स्त्री रोग विशेषज्ञों के पद खाली हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 74,500 मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (एक्रिडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) की और 21,066 आग्जिलरी नर्स मिडवाइफ्स (एएनएम) की कमी है। सरकारी मानदंडों के अनुसार मैदानी इलाकों में 1000 की आबादी पर एक स्वास्थ्य कार्यकत्र्ता और 5000 की आबादी पर एक एएनएम होनी चाहिए। बकौल सेव द चिल्ड्रन की डायरेक्टर ऑफ एडवोकेसी महिलाओं के स्वास्थ्य का संबंध उनकी शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति से है। भारत में हर साल हजारों महिलाएं केवल इसलिए मौत के मुंह में समा जाती हैं क्योंकि उनकी पहुंच मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं तक नहीं हो पाती।
भारतीय महिलाओं में साक्षरता एवं जागरूकता की कमी के चलते वे बच्चों तथा स्वयं की समस्याओं को समझने में भी असमर्थ हैं जो मातृ एवं बाल मृत्यु को बढ़ावा देने का प्रमुख कारण है। परिवार और समाज में दोयम दज्रे की नागरिकता के चलते गर्भावस्था काल में महिलाओं की सेहत की फिक्र परिवार के सदस्यों को नहीं होती। भारत की गिनती विश्व के उन देशों में होती है जहां स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च सबसे कम होता है जिसका खमियाजा आर्थिक तौर पर कमजोर परिवार को भुगतान पड़ता है। भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी के एक प्रतिशत के आसपास है जबकि श्रीलंका, चीन और ब्राजील में इसका लगभग तीन गुना है। इसलिए आवश्यकता है कि स्वास्थ्य मद में इजाफा हो, साथ ही ऐसी नीतियों का निर्माण किया जाए जिससे देश की जननियों का जीवन सुरक्षित हो सके।

कैसे ढूंढेंगे 136 महिला पार्षद!


पार्टी संगठन में महिलाओं को बहुत ज्यादा तवज्जो न देने का खामियाजा राजनीति दलों को भुगतना पड़ सकता है। दलों के सामने यक्ष प्रश्न होगा कि पुनर्गठित एमसीडी में कहां से 50 फीसदी वैसे उम्मीदवार को लाए जो महिला हो और राजनीति में दल विशेष में अच्छा खासा अनुभव हो। दिल्ली सरकार ने दिल्ली में तीन नगर निगम बनाने का फैसला तो ले लिया साथ ही उसमें महिलाओं की सीटों का आरक्षण 50 प्रतिशत कर दिया है। इस हिसाब से नगर निगम में महिलाएं पुरुषों पर भारी पड़ने वाली हैं। वर्ष 2007 में एमसीडी चुनाव में वार्डो की संख्या 272 हुई थी तो वहां पहले से 33 फीसदी आरक्षण होने से 91 महिला प्रत्याशी ढ़ूढने में ही राजनीतिक दलों के पसीने निकल गए। इस कारण कई पति पार्षदों (जिनके पति टिकट के कतार में थे लेकिन सीटें आरक्षित हो जाने से उन्हें टिकट नहीं मिल सका) को मैदान में उतारा गया। अब दिल्ली सरकार ने वहां महिलाओं का आरक्षण 50 प्रतिशत कर दिया है, इस लिहाज से वहां अब 136 महिला पार्षद चुनी जाएंगी, यानी कई पुरुष नेताओं या पार्षदों की टिकटें हर हाल में कटेंगी। सूत्र बताते हैं कि एमसीडी में अभी जितनी भी महिला पार्षद हैं, उनमें से करीब 75 प्रतिशत महिलाएं पार्टी के किसी पुरुष नेता की पत्नी या रिश्तेदार हैं। इनमें से कुछ ही महिलाएं ऐसी हैं, जो स्वतंत्र रूप से राजनीति कर रही हैं। वर्तमान नगर निगम में देखें तो कई महिलाओं को इसलिए टिकट मिल गया कि अंतिम समय में कई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो गई, जिसके चलते इलाके के भारी भरकम नेता की महिला रिश्तेदार को टिकट थमा दी गई। प्रस्तावित एमसीडी में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षित संबंधी सरकार के इस निर्णय से पुरुष नेताओं की चिंताएं अभी से बढ़ गई हैं। इन सबके बावजूद दिल्ली के नेता खासे बेचैन हैं। इस मामले में जब जागरण ने कुछ पार्षदों से बात की तो उनका मानना है कि महिलाओं का आरक्षण बढ़ने से उनकी नेतागिरी खतरे में पड़ सकती है। उन्होंने साफ कहा कि आरक्षण के कारण अगर उन्हें टिकट नहीं मिलता है तो वे अपने परिवार की महिलाओं को चुनाव लड़ाने से परहेज नहीं करेंगे। उनका कहना है कि वे सालों से पार्टी में जान इसीलिए तो लड़ा रहे हैं कि जनप्रतिनिधि बनें, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता तो उनके घर की महिलाओं को चुनाव लड़ाने में बुराई क्या है।


आइएमएफ की मुखिया महिला क्यों नहीं


अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) का अगला अध्यक्ष कौन होगा? हमेशा की तरह कोई यूरोपीय इस पद को संभालेगा या यूरोप से बाहर के किसी व्यक्ति को इस अहम पद का ताज सौंपकर नया इतिहास रचा जाएगा। इस सवाल पर विकसित और विकासशील देशों के बीच बहस शुरू हो चुकी है। इस बहस में एक तरफ जी-20 के देश भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और रूस हैं तो दूसरी तरफ अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इटली। दरअसल, आइएमएफ प्रमुख पद संबंधी बहस में एक और पहलू भी जुड़ गया है। बहस ने यह रुख भी अख्तियार कर लिया है कि क्यों न इस बार किसी महिला को यह प्रमुख पद सौंपकर 55 साल पुरानी रवायत को तोड़ते हुए एक आदर्श मिसाल कायम की जाए। बता दें कि आइएमएफ के अब तक इतिहास में कभी भी शीर्ष पद पर किसी महिला की ताजपोशी नहीं हो पाई है। आइएमएफ के प्रमुख पद को लेकर हाल में बहस तब शुरू हुई, जब कुछ दिन पहले इस संगठन के पूर्व प्रमुख डोमेनिक स्ट्रॉस कॉन को दुराचार के आरोपों के कारण अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। स्ट्रॉस कॉन पर अमेरिका के मैनहट्टन में एक होटल की एक महिला कर्मचारी के साथ दुष्कर्म के प्रयास का आरोप लगाया गया है। अब वह जमानत पर रिहा हैं, लेकिन उन्हें आइएमएफ प्रमुख के पद से इस्तीफा देना पड़ा। बहरहाल, उनके इस्तीफा देने के बाद से आइएमएफ की महिला कर्मचारियों ने इस पद पर किसी महिला को चुने जाने की पैरवी शुरू कर दी है। ई-मेल के जरिए मुहिम हाल में न्यूयार्क टाइम्स ने अपने एक लेख में खुलासा किया था कि किस प्रकार आइएमएफ में कार्यरत महिलाएं इस विश्वस्तरीय वित्तीय संस्थान में पुरुषों के वर्चस्व को लेकर परेशान हैं। यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। पुरुषों की तुलना में बहुत कम महिलाएं शीर्ष पदों पर हैं। अलबत्ता, महिलाओं ने स्ट्रॉस कॉन की इस घटना के बाद सोचा कि महिला प्रमुख पद की मांग को उठाने के लिए यह उचित मौका है। अगर कोई महिला इस संस्थान की मुखिया बन कर आती है तो संभवत: कार्यस्थल पर माहौल ज्यादा वुमन फ्रेंडली बन जाए। संस्थान के वैश्विक स्तर पर महिला हितों के प्रतिकूल नजरिए और नीतियों में बदलाव का रास्ता खुले। लिहाजा ई-मेल के जरिए विचारों का आदान-प्रदान शुरू हुआ। अमेरिकी समाचार एजेंसी सीएनएन ने दावा किया है कि उसके पास इन ई-मेल का ब्यौरा है। एक महिला अधिकारी का कहना है कि आइएमएफ जैसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्थान की नकारात्मक छवि को तोड़ने के लिए बेहतर होगा कि एक महिला को इसका प्रमुख बना दिया जाए। वैसे भी महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले बेहतर मैनेजर माना जाता है। एक अन्य महिला लिखती हैं कि क्या हमें आइएमएफ में ग्लास सिलिंग नहीं होने का ढोंग जारी रखना चाहिए? ऐसी आवाजों के पीछे वॉशिंगटन स्थित आइएमएफ की दो बड़ी-बड़ी इमारतों की कार्यशैली और महिलाओं की कम संख्या भी वजह है। आइएमएफ में महिलाओं की भागीदारी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आर्थिक संकट से बचने और वैश्विक अर्थव्यवस्था के सार्थक विकास के लिए 1945 में आइएमएफ का गठन किया गया था। आज इस सस्ंथान में 2,421 लोगों का स्टाफ है। इसके 30 सीनियर एक्यूजिटव में सिर्फ छह महिलाएं हैं। मैनेजर स्तर पर महिलाओं की भागीदारी 21.5 प्रतिशत है। आइएमएफ में शीर्ष पदों पर पेशेवर महिलाओं की कम संख्या से जुड़ी इस ताजा बहस ने अन्य संस्थानों का जायजा लेने का भी माहौल बना दिया है। दुनिया के कई देशों में कंपनियों के बोर्ड रूम में बहुत कम महिला निदेशक नजर आती हैं। महिलाएं और वैश्विक नजरिया उद्योग चैंबर एसोचैम के अध्ययन कारपोरेट वुमन क्लोज द जेंडर गैप एंड ड्रीम बिग के अनुसार, कनाडा और अमेरिका में ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर 15 व 14.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। ब्रिटेन में यह संख्या करीब 12.5 प्रतिशत है। नार्वे में 39 तो स्वीडन में 25 प्रतिशत है। फिनलैंड में 23 प्रतिशत है। हांगकांग और ऑस्ट्रेलिया में यह संख्या क्रमवार 8.9 और 8.3 है। दुनिया के 39 देशों में हुए एक सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक थाईलैंड में महिला सीईओ की संख्या सबसे ज्यादा है। इस देश में विभिन्न कंपनियों में सीईओ के रूप में 30 प्रतिशत महिलाएं काम कर रही हैं। चीन केवल 19 प्रतिशत महिला सीईओ के साथ दुनिया में दूसरे नंबर पर है। यूरोपीय देशों में यह प्रतिशत नौ और उत्तरी अमेरिका में केवल पांच प्रतिशत ही है। जहां तक अपने देश भारत का सवाल है तो बीएसई की चोटी की 100 कंपनियों के बोर्ड में महिलाओं की संख्या महज 5.3 प्रतिशत है। बीएसई की इन सूचीबद्ध कंपनियों में 1,112 निदेशक हैं, जिनमें 59 महिलाएं हैं यानी 5.3 प्रतिशत। दरअसल, ऐसे अध्ययनों और सर्वेक्षणों का मकसद कारपोरेट क्षेत्र में ऊंचे पदों पर महिलाओं की कम संख्या वाले मुद्दे को उठाना और बदलाव के लिए बहस का माहौल बनाना है। विभिन्न देशों ने महिलाओं को बोर्ड रूम में शमिल करने के लिए अलग-अलग नीतियां अपनाई हैं, क्योंकि अनुभव बताता है कि विशेष प्रयास किए बिना स्थिति सुधरने वाली नहीं। नार्वे और स्पेन की सरकार ने महिला निदेशकों की अनिवार्य भर्ती संबंधी कानून बनाया और इसके सकारात्मक नतीजे सामने आए। आज नार्वे में महिला निदेशकों की संख्या 39 प्रतिशत है और इसी तरह स्पेन में भी महिलाओं की स्थिति सुधरी है। अमेरिका में 15 प्रतिशत महिलाएं हैं और बोर्ड रूम में महिलाओं की यह संख्या बीते कई सालों से सरकी नहीं है। वहां कोई कानूनी पहल के बगैर बोर्ड रूम में कब्जा करने वाली पुरुष मानसिकता को बदलने पर है। ब्रिटेन में भी कानून नहीं है और यह आंकड़ा 12.5 पर ही अटका हुआ है। वहां सरकार ने हाल में कारपोरेट सेक्टर में महिलाओं की कम तादाद पर एक जांच कराई और इस जांच के नतीजों ने कंपनियों को अपने-अपने यहां महिला कार्यकारी अधिकारियों की अनिवार्य नियुक्ति संबंधी कोटा निश्चित करने के लिए मजबूर किया। इस सरकारी जांच के मुखिया लार्ड डेविस का मानना है कि देशभर की कंपनियों में उच्च पदों पर प्रतिभाशाली और योग्य महिलाओं को मौका मिले, यह सुनिश्चित करने के लिए मूलभूत बदलाव लाने की जरूरत थी। दरअसल, आइएमएफ का महिला स्टाफ अब महिला प्रमुख पद की जो मांग कर रहा है, उसे दुनिया में महिला निदेशकों की ताजा संख्या से अलग करके नहीं देखा जा सकता। उनका सरोकार भी कमोबेस ऐसा कदम उठाकर एक संदेश देना है कि महिलाएं भी इस पद के योग्य हैं, हकदार हैं और उन्हें यह पद मिलना चाहिए। बेशक आइएमएफ के प्रमुख पद के लिए फ्रांस की वित्तमंत्री क्रिस्टीन लेगार्ड उम्मीदवार हैं और आइएमएफ के बोर्ड में शमिल तमाम यूरोपीय सदस्य मुल्कों की हिमायत उन्हें हासिल है, लेकिन उनकी इस मजबूत दावेदारी के साथ यह विवाद भी जुड़ गया है कि गैर-यूरोपीय प्रमुख की दावेदारी की काट के लिए यूरोपीय देशों ने अपना कब्जा बनाए रखने की खातिर कहीं महिला प्रमुख पद वाले ई-मेलों के पीछे प्रयोजक की भूमिका तो नहीं निभाई? (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)