Wednesday, June 1, 2011

माताओं के स्वास्थ्य की अनदेखी


तीव्र आर्थिक विकास के बावजूद भारत में माताओं की स्थिति अच्छी नहीं है। माताओं की स्थिति पर तैयार की गई 79 अल्प विकसित देशों की रैंकिंग में भारत का स्थान 75वां है। हालत यह है कि भारतीय माताओं की स्थिति बोत्सवाना, कांगो और कैमरून जैसे पिछड़े दक्षिण एशियाई देशों से भी बुरी है। हमारे नीति-निर्माता ऊंची विकास दर का हवाला देकर देश के तेजी से तरक्की करने का विश्वास दिलाते रहते हैं, लेकिन यह दावा समूची आबादी के संदर्भ में लागू नहीं होता। संयुक्त राष्ट्र के अध्ययन के मुताबिक भारत में हर साल अड़सठ हजार महिलाएं गर्भावस्था से जुड़ी दिक्कतों या प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। गौरतलब है कि पिछले साल भारत इस मामले में 73वें पायदान पर था जबकि इस बार दो स्थान और नीचे खिसक गया है। जाहिर है, देश की प्राथमिकताओं में महिलाओं का स्वास्थ्य शामिल नहीं है। भारत में मातृ मृत्यु दर प्रति एक लाख जीवित जन्म पर 254 है। भारत का स्थान हिंसाग्रस्त अफ्रीकी देशों केन्या और कांगो से भी नीचे है। भारत उन देशों में शामिल है जहां स्वास्थ्य संबंधी देखभाल में भारत में अंतरराष्ट्रीय मापदंडों को लागू करने में परेशानी आती है। एचआरडब्ल्यू की यह रिपोर्ट भारत में मातृ स्वास्थ्य के प्रति बरती जाने वाली लापरवाही की ओर संकेत कर रही है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वाच के मुताबिक, सरकार स्वास्थ्य क्लीनिकों और अस्पतालों में होने वाले प्रसूति आंकड़े रखती है, लेकिन ये अस्पताल अक्सर संसाधनों की भारी कमी से जूझ रहे होते हैं। बहुत सी महिलाएं प्रसूति के बाद या तो मर जाती हैं या गंभीर रूप से बीमार हो जाती हैं। संगठन की रिपोर्ट कहती है कि भारत सरकार इस बात की निगरानी नहीं करती कि प्रसूति के बाद इन महिलाओं के साथ क्या हुआ? इस जानकारी के बिना सरकार उन महिलाओं को नहीं बचा सकती जो घर जाने के बाद दम तोड़ देती हैं या फिर दीर्घकालिक अस्वस्थता से ग्रसित हो जाती हैं। एचआरडब्ल्यू के मुताबिक अगर भारत मांओं को स्वस्थ रखना चाहता है तो इसके लिए आवश्यक है कि वह यह सुनिश्चित करे कि गर्भावस्था संबंधी जटिलताओं से पीड़ित महिलाएं वास्तव में जरूरी उपचार हासिल कर पा रही हैं या नही या प्रसूति के बाद भी वे जिंदा रहती हैं या नहीं। यूनिसेफ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में मां बनने वाली एक लाख महिलाओं में दो सौ तीस की मौत हो जाती है। देश में पैंसठ प्रतिशत प्रसव अब भी घरों में या अप्रशिक्षित दाइयों की देख-रेख में होते हैं। यह अफसोसजनक स्थिति जननी सुरक्षा जैसी कई योजनाओं के बावजूद बनी हुई है। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत गांवों के लिए बजट में बढ़ोतरी की गई है, लेकिन आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र चिकित्सकों की कमी से जूझ रहे हैं। देश में अधिकतर अस्पतालों में स्त्री रोग विशेषज्ञों के पद खाली हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 74,500 मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (एक्रिडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) की और 21,066 आग्जिलरी नर्स मिडवाइफ्स (एएनएम) की कमी है। सरकारी मानदंडों के अनुसार मैदानी इलाकों में 1000 की आबादी पर एक स्वास्थ्य कार्यकत्र्ता और 5000 की आबादी पर एक एएनएम होनी चाहिए। बकौल सेव द चिल्ड्रन की डायरेक्टर ऑफ एडवोकेसी महिलाओं के स्वास्थ्य का संबंध उनकी शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति से है। भारत में हर साल हजारों महिलाएं केवल इसलिए मौत के मुंह में समा जाती हैं क्योंकि उनकी पहुंच मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं तक नहीं हो पाती।
भारतीय महिलाओं में साक्षरता एवं जागरूकता की कमी के चलते वे बच्चों तथा स्वयं की समस्याओं को समझने में भी असमर्थ हैं जो मातृ एवं बाल मृत्यु को बढ़ावा देने का प्रमुख कारण है। परिवार और समाज में दोयम दज्रे की नागरिकता के चलते गर्भावस्था काल में महिलाओं की सेहत की फिक्र परिवार के सदस्यों को नहीं होती। भारत की गिनती विश्व के उन देशों में होती है जहां स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च सबसे कम होता है जिसका खमियाजा आर्थिक तौर पर कमजोर परिवार को भुगतान पड़ता है। भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी के एक प्रतिशत के आसपास है जबकि श्रीलंका, चीन और ब्राजील में इसका लगभग तीन गुना है। इसलिए आवश्यकता है कि स्वास्थ्य मद में इजाफा हो, साथ ही ऐसी नीतियों का निर्माण किया जाए जिससे देश की जननियों का जीवन सुरक्षित हो सके।

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