Friday, June 10, 2011

स्त्री सशक्तिकरण का सच


सीबीएसई के परीक्षा परिणामों और संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में लड़कियों ने जो उत्साहजनक प्रदर्शन किया है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि आने वाले दिनों में लड़कियां ही देश की दिशा तय करने जा रही हैं। यह न सिर्फ स्ति्रयों के सशक्त होने, बल्कि उनके प्रति भारतीय समाज के लगातार बदलते नजरिये को भी जाहिर करता है। कई कड़वी सच्चाइयों के बावजूद इन नतीजों से यह बात भी अपनी जगह सही साबित हो रही है कि भारतीय माता-पिता अब बेटे-बेटी में फर्क करने की प्रवृत्ति से बहुत हद तक उबर चुके हैं। अब वे बेटियों के स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यक्तित्व विकास और अन्य सुविधाओं को भी उतना ही महत्व देने लगे हैं, जितना कि बेटों के लिए देते रहे हैं। इसका ही असर है, जो आज हम स्त्री को इस सशक्त रूप में उभरते हुए देख रहे हैं। बेशक, यह स्त्री सशक्तीकरण के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पिछले छह दशकों में लगातार किए गए प्रयासों का ही नतीजा है। यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए कि बमुश्किल तीन दशक पहले तक भारतीय समाज में आम घरों की लड़कियों के स्कूल जाने की बात सिर्फ सपना ही होती थी। इसके पीछे कई तरह के सामाजिक-आर्थिक कारण मौजूद थे और सच कहें तो वे कारण कुछ कम जरूर हो गए हैं, लेकिन पूरी तरह खत्म अभी भी नहीं हुए हैं। लड़कियों को लड़कों के समान स्नेह, सम्मान और सुविधाएं मिल सकें, इसके लिए विभिन्न सरकारों ने व्यापक अभियान चलाए हैं। जनजागरूकता के लिए चलाए गए तमाम कार्यक्रमों को इसमें पूरा महत्व दिया गया। वैश्विक स्तर पर हो रहे बदलावों और विकसित देशों में स्ति्रयों की स्थिति तथा वहां के राष्ट्रीय विकास में उनके योगदान की जो खबरें मीडिया के माध्यम से आम जनता तक पहुंची हैं, उसने भी लोगों को इस मसले पर नए सिरे से सोचने-समझने के लिए प्रेरित किया है। कुछ अपवादों की बात छोड़ दें तो ज्यादातर देशवासियों ने इन मसलों पर गंभीरता से विचार किया भी है। ठीक इसी तरह कुछ अपवादों या मजबूर लोगों की बात छोड़ दें तो अधिकतर अभिभावकों ने अपनी बेटियों की शिक्षा और उनके सामाजिक विकास पर पर्याप्त ध्यान दिया है। जो लोग जरा भी मजबूत स्थिति में थे, उन्होंने अपनी बच्चियों को स्कूल भेजना शुरू किया है। उनके स्वास्थ्य और उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिए अपनी सुविधानुसार यथासंभव अनुकूल व्यवस्थाएं बनाई हैं। आर्थिक रूप से मजबूर अभिभावकों की बेटियों के लिए भी सरकार ने अनुकूल माहौल उपलब्ध कराने की कोशिश की है। कहीं उन्हें छात्रवृत्ति उपलब्ध कराई गई, तो कहीं स्कूल आने-जाने के लिए साइकिलें, कहीं कॉपी-किताबें और कहीं स्कूल ड्रेस भी। हालांकि इन योजनाओं को क्रियान्वयन कितनी ईमानदारी से किया गया और कितने वास्तविक पात्रों को इसका समुचित लाभ मिल सका, यह एक अलग मसला है। इसके बावजूद आज स्कूल-कॉलेजों में बड़ी संख्या में लड़कियां दिख रही हैं और वहां वे अच्छे प्रदर्शन भी कर रही हैं, यह इन सरकारी प्रयासों का ही नतीजा है। यह इस बात का प्रमाण भी है कि कुछ अपवादों को छोड़कर आम तौर पर इन योजनाओं को क्रियान्वयन ईमानदारी से हुआ है। कई दूसरी योजनाओं एवं कार्यक्रमों की तरह इन्हें सरकारी तंत्र की निष्कि्रयता और भ्रष्टाचार का अजगर पूरी तरह निगल नहीं सका। निश्चित रूप से इसकी असली वजह सरकारों की गंभीरता, सतर्कता और कड़ाई ही रही है। इसका श्रेय सरकार को दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही हमें उन बातों पर भी ध्यान देना ही होगा जिन पर अमल किया जाना अनिवार्य है, लेकिन अभी तक पूरी गंभीरता से किया जाता दिख नहीं रहा है। यह सच है कि हमारे समाज में अभी भी बड़ी संख्या में कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। जन्म लेने से पहले लड़कियों को मां के गर्भ में ही मार दिया जा रहा है। तकनीकी विकास का इससे घिनौना उपयोग शायद ही दूसरा बताया जा सके। क्या इसके लिए केवल उन माता-पिता को ही जिम्मेदार ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ा जा सकता है, जो अपनी बेटियों को दुनिया में आने से पहले ही मार दे रहे हैं? या सिर्फ भ्रूण के लिंग परीक्षण और गर्भपात करवाने वाले स्वास्थ्य पेशेवरों को जिम्मेदार बता कर मुक्त हुआ जा सकता है? बिलकुल नहीं। यह एक बेहद कड़वा सच है कि इसके लिए हमारा पूरा तंत्र जिम्मेदार है और विभिन्न सरकारों में उच्चतम पदों पर आसीन लोग खुद को इससे मुक्त नहीं कर सकते हैं। अगर वे वास्तव में इस दिशा में गंभीर होते तो आज शायद समाज में स्ति्रयों की यह दशा नहीं होती। जिस तरह स्ति्रयों की स्थिति में आए सुधार का श्रेय उन्हें जाता है, ठीक उसी तरह समाज में अभी भी उनकी जो दुर्दशा है, उसकी जिम्मेदारी भी उन्हें लेनी ही होगी। भ्रूण हत्या की सबसे बड़ी वजह हमारे समाज में दहेज की कुप्रथा है। यह वह सबसे बड़ी वजह है कि जिसके कारण माता-पिता आज भी अपनी बेटी को बोझ समझने के लिए विवश हैं। हालांकि दहेज पर रोक के लिए हमारे देश में लंबे समय से कानून भी चला आ रहा है, लेकिन अत्यंत शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि वह वह कानून वर्षो बाद आज तक हमारे समाज में सिर्फ मजाक का पात्र बन कर रह गया है। सभी जानते हैं कि अधिकतर शादियों में दहेज लेने-देने का रिवाज बदस्तूर जारी है। इसके बावजूद इस कानून के गंभीरतापूर्वक प्रवर्तन की कोई कोशिश कहीं नहीं की जा रही है। सवाल यह है कि ऐसा कोई प्रयास किया भी कैसे जाए? दहेज के लेन-देन का रिवाज सबसे ज्यादा तो उन्हीं लोगों के बीच है जिन्हें इस कानून को लागू कराना है। अब स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण प्रयास यही होगा कि दहेज के खिलाफ कानून को तुरंत गंभीरता से लागू किया जाए। इसके साथ ही जगह-जगह स्ति्रयों पर हे रहे अत्याचार भी इस दिशा में बाधक बन रहे हैं। कहीं स्ति्रयां घरेलू हिंसा से ही पीडि़त हैं तो कहीं सड़क पर चलते उनकी अस्मत लूट ली जा रही है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक इससे मुक्त नहीं है। जगह-जगह महिला थाने भी बना दिए गए हैं। इसके बावजूद अपराधी तत्वों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। दुष्कर्म के आरोपी पकड़ भले लिए जाएं, लेकिन विधिक प्रक्रिया की रफ्तार विभिन्न कारणों से इतनी धीमी है कि जब तक मामले पर फैसले की नौबत आती है, रसूखदार अपराधी सबूतों से इतनी छेड़छाड़ कर चुके होते हैं कि उनके लिए बच निकलना बहुत आसान हो चुका होता है। सरकार को इन बातों पर भी ध्यान देना होगा। जब तक इन समस्याओं के प्रभावी और स्थायी समाधान नहीं निकाल लिए जाते, स्त्री सशक्तीकरण का न तो कोई खास अर्थ होगा और न ही हमारे समाज को इसका कोई बड़ा लाभ मिलेगा। राष्ट्र के निर्माण में स्ति्रयां निर्भय और निश्चिंत होकर अपनी भूमिका निभा सकें, इसके लिए इन बातों पर ध्यान देना ही होगा। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)

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