Wednesday, June 15, 2011

बेटियों से भेदभाव


आमतौर पर यह माना जाता है कि शिक्षित समाज सामाजिक विषयों को लेकर कहीं अधिक संवेदनशील होता है, क्योंकि उसमें चेतना का विकास अपेक्षतया अधिक होता है। मगर यह धारणा कन्याभ्रूण हत्या के संदर्भ में सार्थक सिद्ध नहीं होती। हाल ही में एक अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि पिछले तीन दशकों में लगभग एक करोड़ इक्कीस लाख लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया गया। बालक-बालिकाओं के बिगड़ते अनुपात के संबंध में चिंता जाहिर करते हुए देश के प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय शर्म करार देते हुए कहा कि महिलाओं की कामयाबी के बावजूद भारतीय समाज लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह का शिकार है। आम भारतीयों की सोच है कि असंतुलित लिंगानुपात पिछड़े, अशिक्षित और निचले तबकों के कारण है जो बिल्कुल गलत है। सच तो यह है कि पिछले दशक में उनके बीच कन्या शिशुओं की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। अनेक अध्ययनों से यह तथ्य सामने आ चुका है कि कन्याभ्रूण हत्या की समस्या देश के अपेक्षतया संपन्न इलाकों और सुशिक्षित तबकों में गंभीर रूप धारण कर लिया है। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बीस प्रतिशत संपन्न परिवारों में कन्या भ्रूणहत्या की दर में लगातार इजाफा हुआ है और प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या साढ़े सात सौ तक गिर गई है। शिक्षा और आर्थिक सुदृढ़ता व्यक्ति की मानसिकता को परिवर्तित कर देती है परंतु बेटियों के प्रति दृष्टिकोण को लेकर ऐसा नहंी हुआ, बल्कि संपन्नता और आधुनिक शिक्षा उनके लिए और घातक बन गई है। आधुनिक तकनीक सोनोग्राफी का उपयोग बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य और जीवन रक्षा के लिए होना चाहिए था, लेकिन संकीर्ण विचारधारा से ग्रस्त माता-पिता ने बेटियों को गर्भ में ही समाप्त करने वाले शस्त्र के रूप में उपयोग किया। महिलाएं चाहे कितनी भी शिक्षित हो जाएं, लेकिन अधिकांशतया बेटा ही चाहती हैं, क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में स्वयं की स्थिति को ऊंचा बनाए रखने का एकमात्र उपाय बेटे की मां होना है। इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि भारतीय परिवारों में, अधिकांश महिलाएं अपने निर्णयों को लेकर आज भी स्वतंत्र नही हैं। उनके हर निर्णय पर परिवार की सहमति अनिवार्य है। बेटे का जन्म प्रतिष्ठा और बेटी का जन्म परिवार के लिए बोझ माना जाता है। भारत में लिंगानुपात आर्थिक तौर पर अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े देशों पाकिस्तान व नाइजीरिया से कम है। यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोजाना 7000 लड़कियों की गर्भ में हत्या कर दी जाती है। पिछले कुछ वर्षो में कानून-निर्माताओं ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी, परंतु डॉक्टर और अभिभावक उससे बचने के सहज रास्ते ढूंढ़ लेते हैं। यह उस शोध और अध्ययन परिणामों के आधार पर कहा जा रहा है जिसे देश के महापंजीयक तथा जनगणना आयुक्त, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने संयुक्त रूप से किया है। अगर यूं ही बेटियों की तादाद में गिरावट आती गई तो यह निश्चित है कि इसका व्यवस्थित सामाजिक ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। समाज को यह नहीं भूलना चाहिए कि वंश योग्य संतान से चलता है न कि सिर्फ बेटे के जन्म से। मनुष्य की निर्मात्री नारी है तो हमारा समाज बेटियों के प्रति निर्ममता क्यों दिखाता है? जो समाज इतनी निर्ममता से बच्चियों को जन्म से पहले ही मार रहा है उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि अंततोगत्वा उसे इसका परिणाम झेलना होगा, क्योंकि बेटियों की घटती संख्या से उनके भविष्य पर सामाजिक दबाव निश्चित तौर पर बढे़गा। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जो परिवार अब भी संकीर्ण मानसिकता को छोड़ने के लिए तैयार नही हैं उनके लिए कानून के बंधनों को इतना कठोर बनाने की जरूरत है कि स्वप्न में भी बालिका भू्रणहत्या की कल्पना न कर सकें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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