Thursday, April 28, 2011

बंदिशों की चुभन


लड़कियों के मामले में अपना समाज कितनी लिजलिजी सोच रखता है, यह बार-बार याद दिलाने की जरूरत क्यों पड़ती है? एक करोड़ दस लाख परित्यक्त बच्चों में 90 फीसद लड़कियां होती हैं। सिंगल मदर या कुंवारी मांओं को लेकर उपेक्षाभाव रखने वालों से यह सवाल पूछा जाना जरूरी है कि वैवाहिक संबंधों की मजबूत बेड़ियां भी अपनी नन्हीं बच्चियों को सुरक्षा क्यों नहीं दे पा रही हैं? केवल मादा भ्रूणहत्या को लेकर बयानबाजी करते रहने, पोस्टर छापने, अखबारों में सरकारी विज्ञापन देने से बच्चियों को बचाने का 'ढोंग' करने वाली सरकार को यह क्यों नजर नहीं आता? उसी समय सुप्रीम कोर्ट मान रहा है कि हमारी इतनी ज्यादा लड़कियां परिवारवालों द्वारा छोड़ दी जाती हैं। खोये हुए बच्चे भी अपने यहां तभी मुस्तैदी से ढ़ूंढे जाते हैं, जब वे संपन्न घरों से आते हों। गरीब के बच्चे को ढ़ूंढ निकालने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं होती। उनके गुम हो जाने पर ना तो बड़ी प्रेस कांफ्रेस होती है, ना ही मीडिया कैमरों के साथ उमड़ता है। आज भी अपने यहां बेटी का पैदा होना अनचाहा ही होता है। बिहार और राजस्थान के तमाम इलाकों में नवजात लड़कियों को मारने वाली दाइयों का दबदबा रहा है। कुछ पैसों के लोभ में ये पैदा होते ही बच्ची को मारने की विशेषज्ञ होती हैं। दोष इन दाइयों का नहीं है, ये तो मात्र घरेलू प्रसव विशेषज्ञ होती हैं, अपनी गरीबी और लोभ के चलते ये चांडाल का काम करने लगती हैं। मेरा मानना है, इनको कोसने से समाज नहीं बदल सकता। जैसे 'बेटी बचाओ' का स्लोगन बच्चियों को मरने से नहीं रोक पाया, उल्टे उसने बच्चियों के त्याग का एक और संवेदनहीन तरीका अख्तियार कर लिया है जिसमें परिवार खुद को जान लेने के पाप से मुक्त मान लेता है। बस में , रेल-यात्रा के दौरान, मे ले-ठे ले में छोटी लड़कियों को छोड़ कर भाग निकलने वाले मां-बाप को आप क्या कहेंगे? दकियानूस विचारधारा और सामाजिक ढोंगों ने मानसिकता ही इतनी घटिया कर दी है कि संवेदन-शून्यता हावी होती जा रही है। बेटे की चाह में लड़कियों की लाइन लगाने वाले दंपति सिर्फ नासमझ ही नहीं होते, उनके भीतर की भावनाएं भी मर चुकी होती हैं। मादाओं के प्रति होने वाली उपेक्षा जब वैश्विक पटल पर घृणित-दृष्टि से देखी जाती है तो घबरा कर सरकारें उपाय ढूंढने का ढोंग करने लगती हैं। मादा भ्रूणहत्याओं को रोकने के नाम पर सरकार पैसा ही नहीं लुटा रही, विदेशों से भी मोटी सहायता खींची जाती है, जबकि असलियत तो यही है कि लड़कियों को गर्भ से निकाल कर ना मारा जाए तो भी जन्मते ही गला घोंट दिया जाता है या फिर ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। दो-चार औरतों की तरक्की को नमूने के तौर पर पेश कर अपना फेस सेव करने वालों की अक्ल मारी गई है, उनको यह सब हकीकत नहीं नजर आती। जो परिवार लड़कियों को कहीं छोड़ने का साहस नहीं कर पाते, वे बहुत छोटी ही उम्र में उनको ब्याहते हैं ताकि उनका बोझ कुछ कम हो सके। इनको स्कूलों में नहीं डाला जाता, अक्षर ज्ञान तक नहीं कराया जाता। छोटी ही उम्र में चूल्हा फूंकने, जलावन ढ़ूंढ कर लाने, दूर किसी सार्वजनिक कुएं/जलाशय से पानी ढोकर लाने या ढोर चराने की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। घर के छोटे बच्चों को पालना इनका नैतिक दायित्व बन जाता है, रोटी पकाने, बासन धो ने, घास छीलने को ही ये अपना मनोरंजन समझ लेती हैं। खबर है, मेरठ में एक गरीब बाप अपनी दो लड़कियों को घर में कैद किये है, यह सुनकर अजीब लग सकता है पर उसकी बेचारगी इस घिनौनी-व्यवस्था का नमूना है। वह कहता है कि बच्चियां विक्षिप्त हैं और इलाज कराने के लिए उसके पास पैसा नहीं है इसलिए वहशी दरिंदों से इनको बचाने का उसको यह सस्ता-टिकाऊ तरीका लगा। परिवारों की प्रशस्ति करने वालों और पश्चिमी समाज का मखौल उड़ाने वालों से पूछा जाना चाहिए कि सभ्य समाज की हकीकत यही है क्या? यह सरकार की लाचारी है कि वह दुनियाभर में अपनी सस्ती चिकित्सा सुविधाओं के लिए प्रसिद्धि पा रही है, पर गांव/कस्बे में लोग पैसों के अभाव में लाइलाज ही मरते जा रहे हैं। बेटी को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी के लिए इसी बाप ने अपनी बेटी को कैद नहीं कर रखा है। संभ्रांत दिखने वाले पढ़े-लिखे, शहरी भी अपनी नन्हीं बच्चियों को दरिंदगी से बचाने के लिए कुछ ऐसा कर रहे हैं। इनमें से कोई भी अन्ना हजारे की तरह आंदोलन नहीं करना चाहता। कोई जुबान नहीं हिलाता पर सबको अपनी बेटी की फिक्र है। कहीं सुरक्षाकर्मी बने दादाजी बस स्टॉप तक जा रहे हैं, कहीं मां धूप में झुलस रही है। खेल का मैदान हो या परिवहन, मां की चौकसी बढ़ती जा रही है। वह बच्ची से उसकी स्वतंत्रता किसी जालिम की तरह छीन रही है। समाज में छुट्टा घूमते बलात्कारी भेड़ियों से अपनी बच्ची को बचाये रखने का यह भय किस समाज को रच रहा है? बच्चों के एक बहुत अच्छे स्कूल के गेट पर हर रोज मैं एक मां को सुबह और दोपहर सीखचों के पार से अपनी बिटिया को ताकते देखती हूं। स्कूल की बिल्डिंग में जब तक वह घुस ना जाए, तब तक वह ऐसे ही एकटक उसको ताकती नजर आती है, दोपहर को छुट्टी से कुछ पहले ही आकर वह गेट पर मुस्तैद हो जाती है। सालों से यह नजारा मैंने देखा है और इस व्यवस्था के घिनौनेपन से घृणा से भरा पाया है खुद को, जहां अपने बच्चे को सुरक्षित माहौल नहीं दे पा रहे हम। बेटी की 'बॉडी गार्ड' बन चुकी इस मां की भावनाओं पर कोई संदे ह नहीं कर रही मैं, पर कोई यह भी सोचेगा कि उस बच्ची की गुलामी, सुरक्षा के नाम पर बंधनों की यह जकड़न उसको भीतर से कितना कमजोर कर रही है? सिर्फ गरीब और साधनहीन मांओं की ये दिक्कतें नहीं हैं, यही झेलना पड़ता है, विशाल बंगले में सुरक्षा गाडरे और नौकरों से चाक-चौबन्द मां को भी। आरुषी और हेमराज की मौत के पीछे मां तलवार की घोर लापरवाही को मैंने कभी नकारा नहीं है। युवा होती बेटी को पुरुष नौकर के भरोसे छोड़ना किसी भी एंगल से सामान्य नहीं कहा जा सकता, तब भी जब वह सालों से आपका विश्वसनीय रहा हो। स्त्री-पुरुष के दरम्यान कब- क्या घटित हो जाए, कहा नहीं जा सकता पर पुरुष के भीतर का हैवान कन्या पर कभी भी सवार हो सकता है, इस पर डाउट नहीं किया जा सकता! छोटी बच्चियों पर होने वाले यौनाक्रमणों के अपराधी 80 फीसद जान-पहचान वाले या रिश्तेदार ही होते हैं। लेकिन पुरुषों की इन घिनौनी मानसिकता से बच्चियों को बचाने के लिए ना तो बेड़ियां कारगर हो सकती हैं, ना ही ताले। पाबंदियों से उसका आत्मविश्वास और साहस कुचला ही नहीं जा रहा, उसको इन्हीं बच्चियों की तरह बेबस भी बनाया जा रहा है, जिनको त्याग दिया जाता है। ये बेसहारा छोड़ दी गई उपेक्षित हैं, अकेली हैं, इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। और सुरक्षित रखने के नाम पर जिनकी मानसिक प्रताड़ना चल रही है, दम घुट रहा है। निजता को चूर-चूर किया जा रहा है। दोनों के मन एक बराबर कमजोर बनाये जा रहे हैं। दोनों ही घुटन में हैं। दोनों ही असहाय और बेचारगी जी रही हैं। इन सबकी मुक्ति के उपाय कौन करेगा? किसको फिक्र है इनकी? इस भयानक समाज में इन्हीं दरिंदों के बीच उसको सारा जीवन काटना है। जैसा पालन किया जा रहा है, वह तो इनको हमेशा किसी मजबूत सहारे को तलाशने को छोड़ने वाला है। आश्रित बना रहा है इनको। मानसिक रूप से भी और दैहिक रूप से भी। यह है इस मक्कार समाज का सच, जहां कुछ लोग बेटी को त्यागने को बेबस किये जा रहे हैं तो कुछ मानसिक/भावनात्मक रूप से उसका दम घोटने को मजबूर हैं। बच्चियां परित्यक्त हों या पाबंदियों तले जीने को मजबूर, इसका दोषी है यह समाज, जिसे कुछ लोग सभ्य कहते शर्माते नहीं। कुछ मां-बाप घबरा कर उन्हें फुटपाथ पर या कचरे ढेर में फेंकने को मजबूर हैं तो कुछ हर वक्त उन पर छतरी के तरह छाये रहने को मजबूर। ऐसे में कैसे होगा उनका विकास। कैसे आयेगा उनको पंख फैला कर उड़ना। कैसे सीखेंगी वे अपनी शख्सियत को तराशना। फिर बहाने करेंगे, बेटे की दीवानगी के। लैंगिक विभेद के जितने बारीक और खतरनाक कांटें अपने यहां बिछे हैं, उतने शायद ही किसी समाज में होंगे। जिनको ढांपने का ढोंग करने वाले कभी उस पीड़ा को समझ भी नहीं सकते, जिनकी चुभन नन्हीं बच्चियां और उनके परिवार हर रोज झेलते हैं।



शादी का झूठा आश्वासन यौन शोषण


अधिकतर रेप के मामले अनियंत्रित यौन-वासना को संतुष्ट करने के लिए सावधानी से रचे होते हैं और कामुक फिल्मी छवियों का एहसास और फैंटेसी का एकमात्र उद्देश्य महिलाओं पर हावी होना है। दरअसल, वास्तविक बलात्कार या 'डेट रेप' करने से पहले बलात्कारी के दिमाग में नशे की तरह कई बार रिहर्सल होता है। सदा ही पीड़िता को ही दोषी ठहराया और अपमानित किया जाता है और खुद के परिजनों द्वारा 'कथित फेमिली ऑनर एंड रिप्यूटेशन' के लिए भी अपमानित किया जाता है। शादी का झांसा देकर किसी लड़की के साथ शारीरिक रिश्ते बनाना और बाद में शादी के बंधन में बंधने से मना करना बलात्कार के दायरे में जाता है, वह भी तब जब लड़के का लड़की से शादी करने का कोई इरादा न हो। हम इसे 'शादी की आड़ में यौन शोषण' कह सकते हैं। अधिकतर लड़के शादी का झांसा देकर शारीरिक रिश्ते बनाते हैं और तब तक बनाते रहते हैं जब तक लड़की गर्भवती नहीं हो जाती। कुछ समय बाद गर्भपात कराना भी मुश्किल हो जाता है और फिर ये बातें परिवार और पड़ोसियों की नजर में आ ही जाती हैं। बाद के अधिकतर मामलों में दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज होते हैं। भारतीय अदालतों ने कई बार सवाल उठाए हैं- 'किसी लड़की से शादी का झूठा वायदा करके शारीरिक रिश्ते बनाना गलत सहमति है या नहीं? यदि वह बलात्कार नहीं है तो यह धोखेबाजी है या नहीं?'
शादी के झूठे वादे देकर बालिग लड़की की सहमति से तब तक शारीरिक रिश्ते कायम करना, जब तक कि वह गर्भवती न हो जाए, तो इसे स्वच्छंद संभोग कहा जाएगा जयंती रानी पांडा बनाम पश्चिम बंगाल सरकार और अन्य के मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट ने स्थानीय गांव के उस स्कूल शिक्षक को दोषी ठहराया, जो पीड़िता के घर जाता था। पीड़िता के मां-बाप की अनुपस्थिति में उसने उसके करीब जाकर अपने प्यार का इजहार किया और शादी करने की इच्छा जताई। पीड़िता भी तैयार हो गयी और उसने आरोपी से वायदा किया कि अपने माता-पिता की समर्थन मिल जाने के साथ ही वह उससे शादी कर लेगा। इस आश्वासन के बाद आरोपी पीड़िता के साथ शारीरिक रिश्ते बनाने लगा। यह सिलसिला कई महीनों तक चला। इस अवधि में आरोपी ने कई रातें उसके साथ गुजारीं। आखिरकार जब वह गर्भवती हो गई और जोर देने लगी- अब हमें जल्द से जल्द शादी कर लेनी चाहिए तो आरोपी ने उस पर गर्भपात कराने का दबाव डालकर बाद में शादी करने पर सहमति जताई। पीड़िता ने उसकी बात नहीं मानी और आरोपी अपने वादे से मुकर गया, यहां तक कि उसने पीड़िता के घर आना-जाना बंद कर दिया। इसका अर्थ यह है कि अगर बालिग लड़की शादी के वादे के आधार पर शारीरिक रिश्ते को राजी होती है और तब तक इस गतिविधि में लिप्त रहती है जब तक कि वह गर्भवती नहीं हो जाती, यह उसकी ओर से स्वच्छंद संभोग (प्रॉमिस्क्यूटी) के दायरे में आएगा। ऐसे में, तथ्यों की गलत इरादे से प्रेरित नहीं कही जा जाएंगी। आईपीसी की धारा-90 के तहत कुछ नहीं किया जा सकता, जब तक अदालत आश्वासन न दे दे कि रिश्ते बनाने के दौरान आरोपी का इरादा शादी करने का नहीं था। (1984 सीआरआई.एल.जे. 1535, हरि माझी बनाम राज्य : 1990 सीआरएल.एल.जे. 650 और अभ्ॉय प्रधान बनाम पश्चिम बंगाल राज्य : 1999 सीआरएल.एल.जे 3534)
शादी का झूठे वायदे को लेकर दिया गया सोचा-समझा पल्रोभन महज धोखाधड़ी बंबई हाईकोर्ट के न्यायाधीश बी. बी. भग्यानी ने कहा कि ऐसे मामले काफी कम ही ध्यानार्थ सामने आते हैं कि आईपीसी की धारा-415 के तहत धोखाधड़ी को अपराध के दायरे में परिभाषित किया गया है। याचिका को निरस्त करने के निर्णय के दौरान न्यायाधीश भग्यानी ने माराह चंद्र पॉल बनाम त्रिपुरा राज्य की सुनवाई (1997 सीआरआई 715) को ध्यान में रखा और इस पर कायम रहे कि पीड़िता को जानबूझ कर शादी के वादे के झांसे में रखकर शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए उकसाया गया था। याचिकाकर्ता-अभियुक्त के कार्य निश्चित रूप से शरीर, मन और सम्मान को क्षति पहुंचाने की वजह हैं। शादी का झूठा वायदा कर जानबूझकर दिए गए पल्रोभन के बाद याचिकाकर्ता और आरोपी के शारीरिक रिश्ते 'धोखाधड़ी' की परिभाषा के तहत 'शरारत'
के दायरे में आते हैं, जैसा आईपीसी की धारा-415 के तहत परिभाषित किया गया है और जो आईपीसी की धारा-417 के तहत दंडनीय है। (आत्माराम महादू मोरे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1998 (5) बीओएम सीआर 201 आदेश- दिनांक 13/11/1997) (शेष पेज 2 पर)
धोखाधड़ी
जयंती रानी पांडा मामले में पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद ने कहा कि मामले से जुड़े तथ्यों को देखते हुए पाया गया कि बलात्कार अपराध से अलग नहीं है। शादी के झूठे वायदे की आड़ में लड़का आरोपी को धोखे में रखकर लगातार शारीरिक रिश्ते बनाता रहा, लेकिन झूठे वादे की आड़ में वह शारीरिक रिश्ते कायम करने के लिए राजी नहीं थी। याचिकाकर्ता का दायरा, इसलिए आईपीसी की धारा-415 के तहत धोखाधड़ी के रूप में परिभाषित है और आईपीसी की धारा-417 के तहत प्रथम-दृष्ट्या अपराध सिद्ध होता है। धोखाधड़ी के इस कृत्य के अलावा, याचिकाकर्ता और दूसरे आरोपियों पर डराने-धमकाने में लिप्त रहने का आरोप लगाने और शिकायतकर्ता और उसके माता-पिता को डराने के मामला भी आईपीसी की धारा-506 और 323 के तहत अपराध है। (मीर वाली मोहम्मद उर्फ कालू बनाम बिहार सरकार (1991 (1) बीएलजेआर 247 आदेश दिनांक 2/7/1990)
परिवार की ओर से सच्चा दबाव
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पी. वेंकटरमन रेड्डी और पीपी नेवलेकर ने 03.11.2004 को फैसला सुनाया- 'हमें इसमें संदेह नहीं कि आरोपी ने लड़की से शादी का वायदा किया था और इसी प्रभाव से लड़की ने उसके साथ शारीरिक रिश्ते भी बना लिया। लड़की भी उससे शादी करने को उत्सुक थी, जैसाकि उसने खासतौर पर कहा भी। लेकिन हमारे पास बात के कोई सबूत नहीं हैं कि किसी ठोस संदेह के हम इस संदर्भ में यह कह दें कि आरोपी का शुरू से ही लड़की के साथ विवाह का कोई इरादा नहीं था और यह कि लड़के ने जो वायदा किया, वह उसकी जानकारी के मुताबिक झूठा था। इसके विपरीत, बाद में लड़की का यह बयान कि आरोपी उससे विवाह करने को तैयार हो गया था लेकिन उसके पिता और दूसरे लोगों ने उसे गांव से दूर ले गये। इससे संकेत मिलता है कि आरोपी असल में विवाह का इरादा तो रखता था लेकिन परिवार के बड़े-बुजुगरे के दबाव में ऐसा नहीं कर पाया। यह विवाह करने के वायदे को लेकर वायदा खिलाफी का मामला प्रतीत होता है, न कि विवाह के झूठे वायदे का मामला।' (दिलीप सिंह उर्फ दिलीप कुमार बनाम बिहार राज्य, 2005 (1) सुप्रीम कोर्ट 88)
निंदनीय कृत्य के एवज में पचास हजार
न्यायमूर्तियों ने हालांकि, गौर किया कि याचिकाकर्ता ने अपने विरुद्ध लगे आरोप में संदेह का लाभ लेते हुए दंड कानून के दायरे से खुद को अलग कर लिया। लेकिन, हम उसके निंदनीय आचरण को अनदेखा नहीं कर सकते, क्योंकि उसने पीड़ित लड़की से विवाह का वायदा कर उसे शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए फुसलाया, जिसके चलते वह गर्भवती हो गयी। आरोपी के इस कृत्य से लड़के को काफी दुख हुआ, यहां तक कि उसकी बदनामी हुई, जिससे वह सदमे में पहुंच गयी। आरोपी इस नुकसान का दोषी है और वह मुकदमा खत्म करने के लिए लड़की को पचास हजार रुपये खुशी-खुशी देने को राजी हो गया।
लड़की की कम उम्र ज्यादा संवेदनशील
विश्लेषण करने पर पता चला कि जिस समय यह सब हुआ, जयंती रानी पांडा की आयु 21- 22 साल थी, जबकि येदला श्रीनिवास राव के मामले में लड़की की आयु 15 से 16 साल के बीच थी। यह साक्ष्य का मामला है कि लड़की से झूठे वायदे करके उसकी सहमति या उसकी राय की गयी और आरोपित को पता था कि वह कभी अपने वायदे को पूरा करने का इरादा नहीं रखता। यदि आरोपी कम उम्र की लड़की को फुसलाकर उससे विवाह करने का वायदा कर ले, तो ऐसे में यह उसकी सहमति नहीं होती, बल्कि फुसलाकर किया गया कृत्य होता है और आरोपी शुरू से ही अपने वायदे को पूरा करने का इरादा नहीं रखता। ऐसी कपटपूर्ण सहमति को सहमति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपराध के लिए हामी भराना आरोपी का अपराध है।
पर्याप्त समझ, महत्व और नैतिक गुण
उदय बनाम कर्नाटक सरकार के मामले में 19.2.2003 को सुप्रीम कोर्ट ने दृढ़तापूर्वक कहा कि कोई कड़ा फामरूले नहीं रखा जा सकता कि पीड़िता ने स्वैच्छिक सहमति से ही रिश्ते बनाए हों या किसी गलत इरादे के अंतर्गत है लेकिन निम्नलिखित मामले सामने होते हैं : क) यदि लड़की की उम्र 19 साल है और उनमें इस करतूत के महत्व और नैतिक गुण की पर्याप्त समझ है, उसकी सहमति मानी जाएगी। ख) उसे मालूम है कि जाति के आधार पर उनकी शादी होने में परेशानी है। ग) याचिकाकर्ता के संज्ञान में यह आरोप लगाना काफी मुश्किल है कि उसके वायदे से पैदा हुई गलतफहमी के चलते पीड़िता राजी हुई थी और घ) इस मामले में साबित करने का कोई साक्ष्य नहीं है कि आरोपी का पीड़िता से शादी करने का कभी इरादा नहीं था।
भावनाओं और नाजुक पलों में जुनून से जुड़े मामले
न्यायाधीश एन. संतोष हेगड़े और बी. पी. सिंह ने गंभीर संदेह जताया था कि शादी के वादे के चलते आरोपी पीड़िता पर शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए दबाव डाल सकता है, क्योंकि वह जानती है कि जाति के आधार पर आरोपी के साथ उसकी शादी नहीं हो सकती और दोनों परिवारों के सदस्यों का विरोध झेलने के लिए मजबूर होंगे। वह पूरी तरह जानती है कि अपीलकर्ता द्वारा किये के बावजूद शादी नहीं हो सकती। हालांकि अपीलकर्ता के पास ऐसा विश्वास करने के कारण हैं क्योंकि जब भी वे मिलते हैं, एक-दूसरे को बहुत प्यार करते हैं, वह उस लड़के को काफी छूट देती है, जिससे वह बेहद प्यार करता है, सिर्फ उसी के लिए ऐसी छूट भी है। याचिकाकर्ता लड़की ने रात 12 बजे सुनसान जगह पर चुपचाप गयी। जब दो लोग जवान हों, तो आमतौर पर ये होता ही है कि वे सभी अहम बातों को भुलाकर जुनून में आकर प्यार कर बैठें, खासकर तब जब वे कमजोर क्षणों में अपनी भावनाओं पर काबू न कर पायें। ऐसे में, दोनों के बीच शारीरिक रिश्ते कायम हो ही जाते हैं। लड़की स्वेच्छा से लड़के के साथ रिश्ते कायम करती है, वह उस लड़के से बेहद प्यार करती है, इसलिए नहीं कि उस लड़के ने उससे शादी के वायदा किया था, बल्कि इसलिए कि लड़की ऐसा चाहती भी थी। (सुप्रीम कोर्ट 46 2003 (4))
शुरू से ही शादी का इरादा नहीं
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एके माथु र और अल्तमस कबीर ने 29.09.2006 को फैसला सुनाया- 'हम संतुष्ट हैं कि आरोपी ने उसे राजी करते हुए सबकुछ किया, लेकिन वह ऐ च्छिक भी नहीं था क्योंकि याची ने शादी करने जैसा वायदा करके उसे फुसलाया। कानून इसकी इजाजत नहीं देता। पीड़ित लड़की और गवाहों की गवाही से पूरी तरह स्पष्ट होता है कि गवाह पंचायत की तरह काम कर रहे थे। आरोपी ने पंचायत के समक्ष स्वीकार किया कि उसने लड़की के साथ शादी करने का वायदा कर उसके साथ शारीरिक रिश्ते बनाये लेकिन पंचायत के समक्ष वायदे करने के बावजूद वह पलट गया। इससे पता चलता है कि आरोपी का शुरू से ही लड़की से विवाह करने का कोई इरादा नहीं था और वह पीड़िता से शादी करेगा, इसका झांसा देकर उसने शारीरिक रिश्ते बनाये। अतएव, हम संतुष्ट हैं कि प्रतिवादी को सजा देना न्यायसंगत है। हमारे निष्कर्ष के मुताबिक, कोई मामला नहीं बनता। अपील खारिज की जाती है।' (यादला श्रीनिवास राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, आपराधिक अपील 1369, 2004) माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में लड़की की उम्र, उसकी शिक्षा और उसके सामाजिक स्तर और लड़के के मामले में भी इन्हीं सब पर गौर किया जाना जरूरी है। याची लड़की स्वयं इस कृत्य में बराबर की भागीदार है। वह इस मामले में प्रतिवादी को माफ करना चाहती है लेकिन एक गरीब लड़की के मामले में ऐसे हालात में जबकि उसके पिता की मौत हो गयी हो, तो वह समझ नहीं पा रही कि किन हालात के चलते वह ऐसे कृत्य में फंस गयी और जब आरोपी ने उससे शादी का वायदा किया, लेकिन शुरू से ही वह शादी करने का इरादा नहीं रखता था। ऐसे में, लड़की के हामी भरने की कोई अहमियत नहीं है। उससे गलतफहमी में हामी भरवाना धोखा है। इसे लड़की की मंजूरी नहीं माना जा सकता।
मासूम लड़की का शोषण दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति वी के जैन ने 1 फरवरी, 2010 को आरोपी की जमानत याचिका खारिज करते हुए ऐसे आपराधिक कृत्य की निंदा करते हुए लिखा- 'इस पर गौर करने पर कि आरोपी ने शादी का झांसा देकर लड़की से शारीरिक रिश्ते बनाये, इस आशय से कि उससे विवाह का उसका कोई इरादा नहीं था, कोई बलात्कार का मामला नहीं बनता। यह न सिर्फ घोर निंदनीय कृत्य है बल्कि प्रकृति से भी आपराधिक है। यदि ऐसा हो ने रहने की अनुमति दी जाए, तो इससे इनसान अनैतिक और बे ई मानी बनेगा। जो भी इस इरादे से इस देश में आएगा, शादी का ढोंग रचाएगा और कमजोर वर्ग की लड़की से शारीरिक रिश्ते बनाने का दबाव डालकर उनका शोषण करेगा। उधर, लड़की को यकीन रहेगा कि वह उसके साथ शादी करेगा। उसे भी यही लगेगा कि जिससे भविष्य में शादी होनी है, वह पति बनेगा ही, कम से कम उससे शादी से रिश्ते रखने में कुछ भी गलत नहीं है। इस वायदे का हवाला देकर उसके साथ दुष्कर्म करके आरोपी आराम से जब चाहे, चलता बनेगा। ऐसे मौकापरस्त लोगों को लड़की की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का लाइसेंस नहीं दे सकती। इस तरह तो शादी के पवित्र रिश्ते में भारतीय लड़की को डाल देना कोई दो दिलों का मेल नहीं है। बेसहारा लड़कियों का शोषण करने वाले ऐसे लोगों को बेखौफ बच निकलना हमारे ऐसे कानून का मकसद कभी नहीं हो सकता, जो इस घिनौने कृत्य के बाद ताउम्र जेल की सजा का हकदार है।' (निखिल पराशर बनाम राज्य)
बेसहारा या सेक्स-संबंधी असंतुष्टि बंबई हाईकोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति बी. यू. वाहाने ने शिवाजी पुत्र श्रवण खैरनार बनाम महाराष्ट्र राज्य (1991) मामले में वयस्क लड़की द्वारा सहमति के हालात या शारीरिक रिश्ते बनाने में इच्छा से एक पार्टी बन जाने संबंधी दलील दी। विद्वान न्यायमूर्ति ने सामाजिक अनुभव के आधार पर स्पष्ट किया कि वयस्क लड़की से चालबाजी से उसकी सहमति ले ली जाए, वह भी तब जब वह बेसहारा और सेक्स को लेकर असंतुष्ट हो, उसे पैसे की जरूरत हो, इसलिए बहाने से उसे प्रभावित किया जाए या हामी भरने का हालात बनाये जाएं आदि में भारतीय औरतों की सोच को लेकर न्यायिक संदर्भ का हवाला दिया।
विवाह करने संबंधी वायदे के साथ सेक्स करना और गर्भवती होने पर पुलिस रिपोर्ट वर्ग, धर्म, क्षेत्र, आयु या सामाजिक स्तर संबंधी ज्यादातर मामले एक जैसे होने पर आदमी लड़की पर सेक्स के लिए दबाव बनाता है, विवाह करने का भरोसा देकर गर्भवती करता है, परिवार और पुलिस का रिपोर्ट के संदर्भ में बरी होने, संदेह का लाभ पाने या उच्च अदालत में सजा..अपील और इस तरह अंतिम न्याय मिलने में पांच से बीस साल लगना। ये वे मामले हैं, जो समूचे मामलों की नजीर भर हैं। (लम्बोदर बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य, 103 (2007) 399 सीएलटी और ज्योत्स्ना कोरा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2008 के सीआरआर नं.2657)
कानूनी नजरिया उलझन भरा
इस खास संदर्भ में कानूनी राय और फैसले सीधे-सीधे बंटे हुए हैं और सहमति और तथ्यों के उलझाव में उलझे हुए हैं, क्योंकि कानून पूरी तरह पारदर्शी नहीं है और फैसले हर मामले के तथ्यों और हालातों के आधार पर होते हैं। न्यायिक राय को लेकर आमराय यही है कि विवाह का वायदा कर पीड़िता से शारीरिक रिश्ते की सहमति लेना कि भविष्य में वह विवाह करेगा, गलत तथ्यों के तहत ली गयी सहमति नहीं कही जा सकती। कुछ अदालतों का विचार है कि विवाह करने का झूठा वायदा करने को लेकर दी गयी कथित सहमति विवाह का राजीनामा नहीं है। इसके मुताबिक, विवाह के झूठे वायदे को लेकर पति-पत्नी जैसा शारीरिक रिश्ता बनाने संबंधी सहमति हासिल करना कानूनी नजरिये से सहमति ही नहीं है। ऐसे मामलों में सबसे कठिन काम यह साबित करना होता है कि आरोपी का शुरू से ही पीड़ित लड़की से विवाह करने का कोई इरादा नहीं था। वह कह सकता है कि मैं विवाह करना तो चाहता हूं लेकिन मेरा माता-पिता, धर्म, जाति, 'खाप' आदि इसके लिए अनुमति नहीं देते। औरत के खिलाफ अपराध संबंधी किंतु -परंतु को लेकर जब तक कानून में संशोधन नहीं होता, न्याय से जुड़े ऐसेकानूनी पेंच यूं ही कायम रहेंगे।



Monday, April 25, 2011

बीड़ी बनाओ! नहीं तो झेलो तलाक


इस बीड़ी में तो वाकई बड़ी आग है! यह सिर्फ कलेजा ही नहीं फूंकती। पहले बच्चियों का बचपन और फिर महिलाओं की जवानी और आखिर में घर-गिरस्थी भी जला रही है। महिलाएं जब बीड़ी बनाने में अपना जीवन होम करती हैं तो उनके घर का चूल्हा जलता है। यह शापित कथा पश्चिम बंगाल की सीमा से सटे झारखंड के पाकुड़ जिले की है। यहां महिलाओं के विवाह की योग्यता का मापदंड बीड़ी बनाने की कला है। अगर शादी हो भी गई और महिला को बीड़ी बनानी नहीं आती, तो उसे तलाक की त्रासदी झेलनी पड़ती है। अत्यंत पिछड़े इस क्षेत्र में लोगों के जीवन-यापन का मुख्य धंधा बीड़ी उद्योग है। करीब 80 हजार लोग बीड़ी बनाने के काम में लगे हैं, उनमें भी महिलाओं और बच्चियों की संख्या लगभग 70 हजार है। अधिकांश परिवारों के पुरुष सदस्य कोई उद्योग नहीं होने के कारण बेरोजगार हैं। लिहाजा, परिवार के भरण-पोषण के लिये महिलाओं को बीड़ी बनाने का काम करना ही पड़ता है। ऐसे में जो महिला बीड़ी नहीं बना पाती, वह पति और परिवार के लिए बेकार मान ली जाती है और उसका परित्याग कर दिया जाता है। पाकुड़ और महेशपुर प्रखंड में बीड़ी न बना पाने के जुर्म में करीब दो दर्जन महिलाएं तलाक का दंश झेल रही हैं। कई मामले ऐसे भी हैं, जहांकिसी महिला ने कम बीड़ी बनाई तो उसे पति ने तलाक दे दिया। शोषण : बीड़ी मजदूर अब भी असंगठित श्रमिकों की श्रेणी में है। बीड़ी उद्योग भी निजी क्षेत्र का धंधा है। इसके व्यवसायी अपने मुंशी और मेठ की मदद से गरीब परिवारों का शोषण करते हैं। मेठ और मुंशी उनके घरों तक बीड़ी के पत्ते और तंबाकू पहुंचा देते हैं और शाम को आकर जितनी बीड़ी बनी होती है, ले जाते हैं। प्रति हजार बीड़ी बनाने पर 55 रुपए मजदूरी के एवज में दिए जाते हैं। कभी-कभी तो बीड़ी बनाने वालों की मजबूरी का लाभ उठाते हुए बिचौलिए और भी कम पैसे देते हैं। नाम की सरकारी मदद : बीड़ी बनाने में लगे अधिकांश मजदूर टीबी के शिकार हो जाते हैं। सरकार ने उनकेलिये एक अस्पताल, लगभग 500 आवास, मजदूरों के बच्चों के लिये छात्रवृति सहित कई सुविधाएं दी हैं, लेकिन जमीन पर उसका असर नहीं है।


पंचायत ने घुटने टेके, नौकरी पर जा सकेंगी महिलाएं


आखिरकार जन जागरण की जीत हुई। हवा बदलते ही बंदिशें खत्म। जनता की भावनाओं के आगे बिरादरी की पंचायत ने हथियार डाल दिए। महिलाओं ने नौकरी पर जाना शुरू किया और इसी के साथ सराय व गाडोवाली में चार दिन से पसरा सन्नाटा भी टूट गया। दोनों गांवों के प्रधानों ने एलान कर दिया कि महिलाएं अपने काम पर जा सकती हैं। बीते बुधवार को सराय गांव में बिरादरी की पंचायत के तुगलकी फरमान के बाद गांव में तनाव हो गया और सहमी हुई महिलाओं ने काम पर जाना बंद कर दिया। दैनिक जागरण ने इस मुद्दे प्रमुखता से उठाया। फलस्वरूप सरकार से लेकर विभिन्न संगठन हरकत में आये और तुगलकी फरमानों की चहुंओर निंदा की गई। फरमान पर महिला आयोग ने कड़ा रुख अपनाया तो मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। जन प्रतिनिधियों और महिला संगठनों ने इसे महिला अधिकारों के हनन के साथ ही संविधान का उल्लंघन भी बताया। जन भावनाओं को देख सक्रिय हुई पुलिस गांव पुहंची और बिरादरी के बड़े-बुजुर्गो से बातचीत की। पुलिस ने इस मामले में मुकदमा दर्ज करने की चेतावनी भी दी। हालांकि बिरादरी के लोग किसी भी प्रकार का फरमान जारी होने से इनकार करते रहे। शनिवार को सराय और गाडोवाली गांव की फिजा बदली-बदली नजर आई। चार दिन बाद सराय गांव की महिलाएं घर की चौखट से बाहर निकल काम पर गई। कई युवतियों और महिलाओं ने फरमान के बाद फैक्टि्रयों से छुट्टी ले ली थी। अब सोमवार से गांव की सभी नौकरी पेशा महिलाएं सोमवार से काम पर जा सकेंगी।


Saturday, April 23, 2011

पूजिए न सही, रौंदिए तो नहीं !


एक ही रास्ता बचता है कि अपनी सुरक्षा स्वयं करो के सिद्घांत को अपनाते हुए नारी उठ खड़ी हो। वह अपने मन से दीनता व हीनता के भाव को निकाल फेंके। नारी को अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी.. की छवि से छुटकारा पाना होगा। वह अपनी शक्ति को पहचाने। उसे यह भी सिद्घ करना होगा कि वह बेटी, बहन और ममतामयी मां के अलावा जरूरत पड़ने पर दुर्गा का रूप भी धारण करना जानती है..अप्रैल की शाम जब सारा देश सामाजिक समरसता व न्याय की बात कहने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर की अगले दिन मनाई जानेवाली जयंती की तैयारियों में जुटा था, उसी समय उत्तर प्रदेश के जनपद फरूखाबाद के गांव बखतेरापुर में चार दरिंदों ने खेत पर काम कर रही एक नाबालिग छात्रा तान्या को अगवा कर लिया। दरिंदों ने उसकी अस्मत लूटने के बाद गला दबाकर हत्या कर दी। इस कांड की गूंज दिल्ली तक पहुंच चुकी है। हालांकि दुष्कर्म की यह कोई पहली घटना नहीं है। शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो, जिस दिन दिल दहला देने वाली ऐसी घटनाओं से अखबारों के पन्ने रंगे न होते हों। कभी-कभी ऐसी खबरें भी प्रकाश में आती हैं, जिनमें किसी मासूम बालिका की अस्मत लूटने वाला उसका कोई सगा संबंधी ही होता है। ये घटनाएं मन को झकझोर देती हैं। तब ऐसा लगता है कि आधी आबादी न घर के भीतर सुरक्षित है और न बाहर। सभ्य कहे जानेवाले हमारे देश में तेजी से बढ़ रही ये घटनाएं गंभीर चिंता का विषय हैं। इन घटनाओं से यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता और विभिन्न अवसरों पर की जानेवाली नारी सशक्तीकरण व महिलाओं को पुरुषों के समान दर्जा दिए जाने की बातें बेमानी लगने लगती हैं। 

कैसी विडंबना है कि एक ओर नारी को पूजने की बात कही जाती है, वहीं दूसरी ओर असामाजिक तत्व उसे रौंदने से बाज नहीं आते हैं। जरा सोचिए कि इस त्रासदी का शिकार महिला के दिल पर क्या गुजरती होगी। उसकी खोई इज्जत कभी वापस नहीं मिल सकेगी, यह सोचकर उसके मन में यही विचार आता होगा कि क्यों न सारी व्यवस्था को आग लगा दूं। उसे कभी-कभी समाज के ताने भी सुनने पड़ते हैं। उसके मन की पीड़ा वही समझ सकती है। दुष्कर्म की घटनाओं पर कैसे रोक लगे, यह एक विचारणीय बिंदु है। कहने को तो देश में मौजूद कानून में दुराचारियों के खिलाफ सख्त से सख्त सजा दिए जाने का प्रावधान है, लेकिन कानून के रखवालों की नीयत ठीक हो तब न। जब कोई पीड़ित महिला न्याय पाने की उम्मीद से पुलिस स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ती है तो वहां बैठे कानून के रखवाले उससे घिनौने सवाल पूछते हैं, जिन्हें सुनकर शर्म भी शायद शर्मसार हो जाए। बांदा के शीलू कांड में पुलिस की भूमिका को लोग कैसे भूल सकते हैं कि किस तरह इस कांड में आरोपी सत्तारूढ़ पार्टी के एक माननीय विधायक को बचाने के लिए पीड़ित-प्रताड़ित शीलू को ही उल्टे चोरी के इल्जाम में जेल भेज दिया था। वह तो भला हो मीडिया का, जिसकी सक्रियता के चलते शीलू को न्याय मिल सका। 

तान्या कांड में भी पुलिस का यही चेहरा सामने आया। सत्तारूढ़ दल के लोगों की जी-हुजूरी में लगी रहने वाली पुलिस ने देशभर में न जाने कितनी शीलू और तान्या को न्याय मिलने से वंचित कर दिया होगा। रसूखदार लोगों के ऐसे किसी कांड में शमिल होने पर समाज भी खामोशी की चादर ओढ़ लेता है। पुलिस और समाज के इस रवैए के कारण असामाजिक तत्वों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। नतीजतन, आधी आबादी के साथ छेड़छाड़ और दुष्कर्म की शर्मनाक घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। रही बात राजनेताओं की तो वे भुक्तभोगी महिलाओं के घर जाकर गहरी सहानुभूति प्रकट करते हैं। वे कानून व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की मांग करते हैं। ऐसी घटनाओं को शर्मनाक, अमानवीय और जघन्य अपराध बताते हुए चिंता जाहिर करते हैं। यदि उन्हें लगता है कि अमुक कांड से उन्हें सियासी फायदा मिल सकता है तो वे पीड़ित महिला व उसके परिवार की आथिर्क मदद भी कर देते हैं। यही सब मंजर तान्या कांड में भी देखने को मिल रहा है। केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद भी यहां आ चुके हैं, क्योंकि यह कांड उनके गृह क्षेत्र का है। उन्होंने कहा था कि ऐसे कांडों को अंजाम देने वाले दरिंदे हमारे समाज में ही रहते हैं, यहीं पल कर वह हम पर ही प्रहार करते हैं। इनको संरक्षण देनेवालों को उन्होंने जानवर की संज्ञा दी थी। लेकिन आधी आबादी की सुरक्षा कैसे होगी, इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है। 

कानून के रखवालों ने तो निराश ही कर रखा है। रही बात जन प्रतिनिधियों की तो उनसे भी ज्यादा उम्मीद नहीं है, क्योंकि कुछ माननीयों के दामन पर भी ऐसे कुकृत्य में लिप्त होने या फिर ऐसे दरिंदों को संरक्षण देने के दाग लगे हैं। ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता बचता है कि अपनी सुरक्षा स्वयं करो के सिद्घांत को अपनाते हुए नारी उठ खड़ी हो। वह अपने मन से दीनता व हीनता के भाव को निकाल फेंके। नारी को अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी.. की छवि से छुटकारा पाना होगा। वह अपनी शक्ति को पहचाने। उसे यह भी सिद्घ करना होगा कि वह बेटी, बहन और ममतामयी मां के अलावा जरूरत पड़ने पर दुर्गा का रूप भी धारण करना जानती है। वह इतिहास में दर्ज बहादुर नारियों के जीवन से सबक ले, वह गुलाबी गैंग की कमांडर संपत पाल से भी सीख ले। उसे अपना मनोबल इतना ऊंचा करना होगा कि पत्थरों से भी टकराने में पीछे नहीं हटे। पश्चिमी सभ्यता को ओढ़ने और बिछाने की प्रवृत्ति को छोड़ना होगा। जिस दिन भारतीय नारी यह सब करने में सक्षम हो जाएगी, उसी दिन से छेड़छाड़ और दुष्कर्म की घटनाओं में कमी आएगी.

पाक, अदालत और मुख्तारन माई


 मुख्तारन माई बलात्कार मामले में पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट ने छह आरोपियों में पांच को बरी करने के लाहौर हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। इस फैसले से पाकिस्तान में मानव अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को काफी निराशा हुई है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुनने के बाद मुख्तारन माई टूट सी गईं, उनकी आंखों से गम के आंसू टपकने लगे। इस फैसले से आहत मुख्तारन माई इसके खिलाफ कोई अपील नहीं करने का निर्णय लिया है। मुख्तारन के मुताबिक अनपढ़ होने की वजह से पुलिस बलात्कार के आरोपियों के खिलाफ दायर की गई एफआइआर को जानबूझ कर कमजोर बनाया ताकि मुजरिमों को मुकदमे के फैसले में राहत मिल सके। हालांकि अदालत के सामने मेडिकल रिपोर्ट भी पेश की गई थी, जिसमें उसके साथ बलात्कार होने की पुष्टि हुई। फिर भी इस हकीकत पर अदालत ने गौर नहीं फरमाया? दरअसल पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मुल्क में उन लोगों को नहीं पच रहा जो मुख्तारन माई के प्रति हमदर्दी रखते हैं। लोगों के अनुसार अगर सुप्रीम कोर्ट को लाहौर हाइकोर्ट का फैसला ही बरकरार रखना था तो मुख्तारन का वक्त जाया क्यों किया गया? मुख्तारन का कहना है कि वह पिछले दस सालों से अदालतों के चक्कर लगा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद उसे किसी और अदालत पर विश्वास नहीं रह गया। अब सिर्फ अल्लाह की अदालत है जहां से मुझे उम्मीद है। यह बेबसी जुल्म की शिकार उस पाकिस्तानी औरत की है जिसने खुद की जिंदगी को उस खौफनाक वाकये के बाद भी खत्म न करके पाकिस्तान समेत समूचे दक्षिण एशिया की लाचार औरतों के लिए प्रेरणादायक बनाया। पाकिस्तान में महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने भी इस फैसले का कड़ा विरोध किया है। उनका कहना है कि स्वतंत्र संज्ञान के बाद भी यह फैसला आता है तो मुल्क के कानून पर से लोगों का यकीन खत्म हो जाएगा। देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पाकिस्तान की औरतों के लिए इम्तिहान का दिन है। इस फैसले के बाद यह कहने में तनिक भी गुरेज नहीं कि यह मुल्क औरतों के हक औऱ उनकी आबरू के लिए महफूज नहीं है। मुख्तारन समेत पाकिस्तान की हर वो औरत जो किसी न किसी तरह की जुल्म की शिकार हुईं हैं वो इस फैसले से बेहद नाखुश हैं। गौरतलब है कि मीरवाला गांव में पंचायत के एक फैसले के नतीजे में मुख्तारन माई के साथ 22 जून, 2002 को सामूहिक बलात्कार किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने लाहौर हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए मुख्तारन माई के मुकदमे में छह में से पांच अभियुक्तों को रिहा करने का आदेश दिया है। इससे पहले स्थानीय अदालत ने मुख्तारन माई के साथ सामूहिक बलात्कार करने के आरोप में छह अभियुक्तों को मौत की सजा सुनाई थी। पंचायत का आरोप था कि मुख्तारन माई के भाई शकूर का मस्तोई कबीले की एक औरत से नाजायज ताल्लुकात हैं और उस वजह से मुख्तारन माई को यह सजा दी गई। क्या एक बारह साल का लड़का किसी औरत के साथ नाजायज रिश्ता कायम कर सकता है यह बहुत बड़ा सवाल है? पाकिस्तान में एक टेलीविजन चैनल को दिए इंटरव्यू में मुख्तारन ने कहा कि पंचायत का फैसला पूर्व नियोजित था। जिसने पहले से यह तय कर रखा था कि उसे क्या करना है? मेरे भाई शकूर को मोहरा बनाकर मेरी आबरू को तार-तार किया गया। इस बर्बर घटना के करीब छह दिनों बाद मीरवाला की एक मस्जिद के इमाम ने जुमे की नमाज से पहले लोगों से कहा था कि वह इस सामूहिक बलात्कार का कड़ा विरोध करें और पुलिस को इस बारे में इत्तला करें। उसके बाद पहली दफा यह यह मामला पाकिस्तानी मीडिया में आया। उसके बाद अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने पूरे मामले को प्रकाशित किया। लिहाजा मुख्तारन माई के साथ हुए अन्याय की कहानी पूरी दुनिया में फैल गई। 30 जून, 2002 को पाकिस्तान की स्थानीय पुलिस ने 14 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और मामले की सुनवाई शुरू हो गई। जिला अदालत ने 31 अगस्त, 2002 को छह लोगों को मौत की सजा सुनाई थी और आठ लोगों को बरी करने के आदेश दिए थे। तीन मार्च 2005 को यह मामला लाहौर हाइकोर्ट के मुल्तान खंडपीठ पहुंचा और अदालत ने ठोस सबूतों की कमी की बुनियाद पर इस मुकदमे में पांच लोगों को बरी कर दिया, जबकि मुख्य अभियुक्त अब्दुल खालिक की सजा-ए-मौत को उम्रकैद की सजा में तब्दील कर दिया। हालांकि पाकिस्तान की सर्वोच्च इस्लामी अदालत शरिया कोर्ट ने लाहौर हाइकोर्ट के फैसले का विरोध किया और कहा कि इस्लामी नियमों के अधीन हाइकोर्ट इस मामले में किसी भी अपील को सुनने का अधिकार नहीं रखती। 14 मार्च, 2005 में पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और कहा कि वह ख़ुद इस मामले को सुनेगा। वर्ष 1972 में पैदा हुई मुख्तारन माई को बलूच पंचायत की ओर से इज्जत के नाम पर सजा सुनाई कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाए। मस्तोई बलूच कबीले के कुछ लोगों ने ऐसा ही किया। अमूमन औरतें इस तरह की घटना के बाद खुदकुशी कर लेती हैं, लेकिन मुख्तारन उसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। दरअसल, मुख्तारन का यह किरदार सिर्फ मुकदमा जीतने और गुनहगारों को सजा दिलाने तक सीमित नहीं है। उन्होंने मीरवाला में वीमेन वेलफेयर आर्गेनाइजेशन की बुनियाद रखी। लड़कियों के लिए स्कूल खोला, क्योंकि उनका मानना है कि पढ़ी-लिखी होने पर उनके साथ इस तरह का अन्याय नहीं होगा। मुख्तारन माई को कई बार जान से मारने की धमकियां भी मिली। बावजूद इसके उसने अपना निर्णय नहीं बदला। पूरे पाकिस्तान में मुख्तारन माई का नाम इतना बड़ा हो गया है कि कोई आसानी से उन्हें छूने की हिम्मत नहीं करेगा। यह बात पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ के उस बयान के बाद और साफ हो गई जिसमें उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा था कि यह कोई बड़ा मसला नहीं है। कुछ औरतें विदेश जाने और पैसे ऐंठने के लिए ऐसी कहानियां गढ़ती हैं। मुशर्रफ उस समय अपनी किताब के सिलसिले में अमेरिका में थे। उनके इस बयान पर दुनियाभर में आलोचना हुई और आखिरकार राष्ट्रपति सचिवालय को कहना पड़ा कि उनके बयान को गलत ढंग से छापा गया है। मुख्तारन माई को अमेरिकी सीनेट को संबोधित करने के लिए बुलाया गया। मगर उसे पाकिस्तानी सरकार ने वीजा नहीं दिया। इसके बाद भी मुख्तारन माई झुकी नहीं और अपने साथ हुए इस अत्याचार को पाकिस्तान की हर महिला के अधिकारों की लड़ाई बना दिया। इसी से वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आई। कई देशों में मुख्तारन माई के लिए सहानुभूति बढ़ गई और न्याय के लिए संघर्ष करने पर उन्हें कई पुस्कार भी मिले, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले से मुख्तारन माई जैसी जीवट महिला के हौसले में कमी आई है। क्या न्याय का तकाजा यही है कि दरिंदे को उसकी सजा न देकर उसे रिहाई का तोहफा दिया जाए, ताकि समाज में ऐसी घटनाएं दोहराई जाती रहें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पीणकार हैं).

Friday, April 22, 2011

बोर्ड रूम में नहीं बढ़ी महिलाओं की संख्या


प्यार+पुरुष = प्रचार


औरतों को खुद को महान दिखाने के लिए जरूरी है, अपनी भावनाओं को कुचल डालें। वे जो वास्तव में हैं, उसको छिपा लें! बने-बनाये रिश्तों को मासूमियत के साथ जीने का ढोंग करती रहें। मन में भी किसी की छवि आ जाए तो स्यापा करने लगें। प्रेम हो भी जाए तो मौन रहें। प्रेम-प्रदर्शन से बचें! इस दिखावे के चक्कर में होता यही है कि वे चिड़चिड़ी, झगड़ालू और शकी होती जाती हैं
मशहूर उद्योगपति रतन टाटा अपनी तमाम व्यावसायिक बुलंदियों की बजाए इस दफा अपने प्रेम- संबंधों को लेकर र्चचा में हैं। उन्होंने बेहद खुले मन से किसी विदेशी चैनल को इंटरव्यू देते हुए स्वीकारा कि वे जीवन में चार बार 'सीरियस' प्रेम में पड़े। धुरंधर उद्योगपति की यह सीरियसली प्रेम करने वाली अदा सबको बड़ी भायी। यह धन-कुबेर यहां सलमान खान से पिछड़ भले ही गया, पर इस उम्र में यह कहकर कि वे लगभग शादी करने ही जा रहे थे कि दो देशों की जंग छिड़ गई और उनका दांपत्य बनते-बनते रह गया। अपने दर्द को छिपाने का प्रयास करते हुए उन्होंने माना कि जो हुआ, वह अच्छा ही रहा। मानो उनके घर में हमारे-आपके घर की तरह कोई कलह होने जा रही थी। अब तो फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े कुंवारे सलमान भी मानने लगे हैं कि इश्क तो ठीक है पर शादी की जिम्मेदारी उनको डराती है। इसको उनकी बेबाकी मान कर अनसुना सा किया जा सकता है पर यह अधिकार किसी औरत को देने में सबकी नानी मरती है? निश्चित रूप से पुरुषों की कुछ ज्यादा ही। इस तरह का कोई खुलासा करते हुए हमारी औरतें घबरा क्यों जाती हैं! टाटा को प्यार चार बार हो सकता है, सलमान को दस बार, राजेश खन्ना छह और महेश भट्ट पांच बार प्यार करते हैं। ये इसीलिए ऐसा कर पाते हैं क्योंकि इन्होंने यह अधिकार बेहद बेदर्दी से हमेशा से छेंक रखा है। अपने प्रेम पर इतराना और उसको छोड़ कर आगे बढ़ जाना पुरुष के लिए संतोषजनक होता है, पर स्त्री के लिए नहीं। शायद यही कारण है कि पुरुष एक साथ कई लड़कियों को 'टहला'
लेता है, जबकि औरत एक बार में एक पर ही 'कन्संट्रेट' करती है। यहां मैं उनकी बात कतई नहीं कर रही, जो पुरुषों का इस्तेमाल किसी परपज से कर रही होती हैं, क्योंकि इसमें संवेदना नहीं होती। प्रेम की आड़ में होने वाले खिलवाड़ों को भावनात्मक लगाव से न जोड़ा जाना ठीक है। लाभ के लोभ में बनाया गया कोई भी रिश्ता टेम्प्रेरी ही होता है। अपने यहां यूं भी औरतों को रिश्तों में बांध कर किसी अंधेरे कोने की तरफ फेंक देने की पुरानी परंपरा है। कई-कई औरतों से संबंध रखने को पुरुष अपनी सत्ता से जोड़ता है। जो ताकतवर है, पावरफुल है, धनवान और वीर्यवान है, उसकी तरफ आकर्षित होने वाली हर स्त्री उसकी गुलाम ना भी हो तो भी उसके लोभों को नहीं पहचाना जा सकता। ऐसा पहले भी होता था, आज भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। प्रेम प्राकृतिक जरूरत है। सब चाहते हैं, उनको कोई ना कोई प्यार करे। प्रेमविहीन जीवन वही जी सकता है, जिसके भीतर किसी तरह की कोई संवेदनशीलता ही शेष ना हो। हम खुद कुछ करें ना करें, पर दूसरों से यही उम्मीद रखते हैं कि वे हमको जबर्दस्त रूप से चाहें। अब आते हैं इस प्रेम की चाहना के स्त्रीवादी पक्ष पर। पुरुषों ने क्योंकि औरत को कभी 'वस्तु' से ज्यादा कुछ माना ही नहीं, इसलिए उनकी सारी की सारी प्रतिक्रियाएं आज भी इसी दुविधा की शिकार हैं। जब वे ये लफ्फाजियां कर रहे होते हैं कि उन्होंने इतनी औरतों से प्रेम किया, तो वे अपनी भावनाओं के बल पर नहीं फेंक रहे होते, वे अपने पावर को एन्ज्वॉय करने और कराने की कोशिश में होते हैं। ऐसा नहीं है कि यह केवल धन वालों या पराक्रमियों का ही अंदाज है। सामाजिक जीवन में गरीब से गरीब पुरुष के कई औरतों से संबंध होते हैं। घर-घुस्सू औरतें भी पति के भाई, बहनोई, युवा होते भतीजों-भांजों की गिरफ्त में आ ही जाती हैं। कई बार ये उड़ानें बहुत सीमित होती हैं तो कभी-कभी जबरदस्त नजदीकियों के बावजूद परिवार पर आने वाली आंच के भय से दूरियां जानबूझ कर बढ़ा ली जाती हैं। यह सच है कि प्रेम पर किसी का जोर नहीं होता, पर उससे भी बड़ा सच है कि पुरुषों को प्रेम-प्रदर्शन के मौके बारम्बार मिलते हैं, जबकि औरतों के प्रेम पर पहरे होते हैं। औरतों पर शुचिता के इतने कड़े पहरे रहते हैं कि उनको भावनाओं को काबू रखने की कला अनजाने ही सीखनी पड़ती है। बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि औरतों को बार-बार अपनी शुचिता के इम्तिहान से गुजरना पड़ता है। यह इम्तिहान भले ही सीता माता की तरह अग्नि परीक्षा जैसा ना हो, पर धधकती हुई मानसिक आग में कूदने जैसा तो होता ही है। मनोविज्ञान कहता है कि किसी को जीवन में कई बार भी प्यार हो सकता है, जैसा कि टाटा या सलमान को होता रहता है। सैफ अली का प्यार भी साल दर साल बदलता है पर उनकी फैन्स लिस्ट ज्यों की त्यों रहती है। करीना का शाहिद कपूर को डिच (धोखा) करना युवाओं को अखरता है। युवक तो युवक, लड़कियां भी करीना से नाराज हो जाती हैं। पांच शादियां करने वाले हरफनमौला किशोर कुमार ने प्यार ना जाने कितनी औरतों से किया होगा? ये बड़े लोग हैं। संपन्न हैं। समृद्धि इनके कदम चूमती है। ये चुटकियों में जो चाहें, उसे कदमों में गिराने का माद्दा रखते हैं। इनके प्यार पर किसी घर-परिवार-समाज का दबाव नहीं होता। इनकी इज्जत भी हमारी-आपकी इज्जत की तरह जरा सी पोटली में नहीं होती, विशाल खजाने सी इज्जत कितना भी गिरने पर गुमती नहीं। सीना चौड़ा करके ये एलानियां दंभ दिखाते हैं, इतने प्यार किये, लगभग बीवी की तरह रखा, शादी करते-करते छोड़ दिया। पर यही बात जब मीना कुमारी, रेखा या दूसरी हीरोइनों के लिए आती है तो भौंएं तन जाती हैं। लता दीदी को प्यार करते देखने की हिम्मत ना जुटा पाने वालों की भी यही दिक्कत है। उनकी शुचिता का ठेका जो ले रखा है हमने। औरतों को खुद को महान दिखाने के लिए जरूरी है अपनी भावनाओं को कुचल डालें। वे जो वास्तव में हैं, उसको छिपा लें। बने-बनाये रिश्तों को मासूमियत के साथ जीने का ढोंग करती रहें। मन में भी किसी की छवि आ जाए तो स्यापा करने लगें। प्रेम हो भी जाए तो मौन रहें। प्रेम-प्रदर्शन से बचें। इस दिखावे के चक्कर में होता यही है कि वे चिड़चिड़ी, झगड़ालू और शकी होती जाती हैं। अपने इसी प्रेम को दबाने की खीज के चलते वे पति पर पाबंदियां थोपती फिरती हैं। उसको चाय-नाश्ते के साथ विशेषज्ञ की नाइर्ं सीख देती रहती हैं कि 'लड़कियों से खबरदार, उनसे दूरी बनाये रखो।' यह मिस कॉल किसकी थी, वह एसएमएस क्यों आया? अकसर यह भी हिदायत देने से वे बाज नहीं आतीं कि कुंवारी लड़कियां काला जादू करा कर ब्याहता मदरे को अपने कब्जे में करने के गुर जानती हैं। दरअसल, खुद के कहीं और आकर्षित हो जाने के भय से विमुख होने के ढोंग में वे नीरस होती जाती हैं। कॉलेज के रास्ते में आने वाला, घर से बाहर दिखता, कहीं पड़ोस में, रिश्तेदारों में, परिवार के चचेरे-ममेरे भइयाओं और दादाओं के आकर्षण में कभी ना कभी कैद रही युवा होती लड़की के जीवन का वही आइडियल होता है। 14 से 18 साल की उम्र ही ऐसी होती है, जिसमें किसी के आकर्षण की गिरफ्त में आने से शायद ही कोई बचता है। टाटा कहते हैं- चार बार प्रेम हुआ, वे इसको आकर्षण नहीं बता रहे। आकर्षण यानी अंग्रेजी का 'इनफैचुएशन' बार-बार होता है। बस दोनों का फर्क समझने में लोग फेल हो जाते हैं। अपनी गऊ टाइप औरतों के प्रेम के चरित्र भी बदलते हैं, अपने दायरे में ही वे सबसे पहले (अनजाने ही) अपने किसी बड़े भइया/छोटे चाचा की दीवानी हो जाती हैं। कम उम्र में ही ब्याह दी गई तो देवर या ननदोई की, थो ड़ा आगे चले तो पति के साथ काम करने वाले किसी शर्माजी/चोपड़ाजी की अदाओं पर मर मिटने लगती हैं। अधेड़ होने तक बच्चों के टय़ूशन टीचर या बॉलीबाल मास्टर पर दिल आ सकता है। यह सिलसिला यूं ही सारा जीवन चलता रहता है। पर अपने प्रेम-संबंधों को लगातार दोहरा कर शेखी बघारने वाला पति नाम का पुरुष अपनी औरत के इस आकर्षित होने को भी वैर-भाव से ही लेता है। अपने अंदाज में जीने के लिए चर्चित रही एलिजाबेथ टेलर की मौत की खबर में सबसे महत्व जिसको मिला, वह उनकी प्रतिभा या ऑस्कर विजेता होना नहीं था, बल्कि उनकी आठ शदियां थीं जिनके बारे में सुन/पढ़ कर हर मन आज भी ललचा उठा। कोई आपके जीवन में आया ही नहीं या आपका मन किसी के लिए मचला ही नहीं, यह तो इम्पॉसिबिल है। हां, आप यह मान सकती/सकते हैं कि आपका साहस चुक गया, आप डर गये, आपका आत्मविश्वास डगमगा गया, सामाजिक-पारिवारिक दबावों की घुटन में हिम्मत जवाब दे गई ..या फिर यह भी कि आपको उसका अहसास ही तब हुआ, जब सबकुछ खत्म हो चुका था।