Wednesday, April 6, 2011

औरतों से परहेज करती सेना


संयम के मामले में औरतें पुरुषों से बहुत आगे हैं। वे मुश्किल परिस्थितियों में भी सांस कम लेती हैं या उनके दिल की धड़कनें पुरुषों के मुकाबले कम होती हैं। पुरुषों में औरतों के मुकाबले उन्मादीपन बहुत होता है। सिस्टम और रूल के पीछे भागने वाले पुरुषों के लिए बुरी खबर यह है कि औरतें यहां भी भावनाओं को ही तरजीह देती हैं। रही बात बौद्धिक क्षमताओं की तो न्यूरोलॉजी मानती है कि प्राकृतिक रूप से यहां कोई लैंगिक विभेद नहीं है
काफी समय से औरतों को सेना में स्थाई कमीशन देने से बचाव के लिए तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। ताजा खबरों की मानें तो अंदरूनी तौर पर जारी किये गये एप्रोच पेपर में महिलाओं की सीमाओं पर रोना रोया गया है, उनका आकार पुरुषों के मुकाबले आठ गुना छोटा बता कर उपहास किया गया है। पुरुषों की मांसपेशियों का वजन उनकी तुलना में 40 से 46 फीसद ज्यादा होता है और यह भी कि उनके दिल का आकार भी 25 फीसद कम होता है, इसलिए धड़कन कम होती है और वे जल्दी थक जाती हैं। ऐसी ढेरों और भी बातें हो सकती हैं, औरतों को पुरुषों की तुलना में छोटा/कमजोर और हीन बताने की लिखत-पढ़त में हो सकता है यह पुख्ता प्रयास हो, क्योंकि अब तक तो छद्म रूप से यही कहा जाता रहा है कि हमारे संविधान में कोई लैंगिक विभेद नहीं। समाज में जिस तरह का विभे द है, वह तो औरतें भुगत ही रही हैं। झूठी-दकियानूसी बातें बनाने वाली अपनी सम्मानित सामाजिक व्यवस्था को हो सकता है, ये सारी बातें काफी सार्थक लगें और वे इसके पक्ष में दलीलें भी देने की उतावली में हों, पर यह बहस नयी नहीं हैं। पारंपरिक सोच है कि औरतें आमतौर पर पुरुषों की तुलना में छोटी और कमजोर होती हैं, उनके ऊपरी शरीर की ताकत पुरुषों के मुकाबले 45-50 फीसद कम होती है और एरोबिक कैपेसिटी में भी वे 25-30 फीसद से पिछड़ जाती हैं। इसके बाद जिन अहम कारणों को उठाया जाता रहा है, वे हैं मनोवैज्ञानिक, जिनके आधार पर कह दिया गया कि पुरुष और औरत साथ में फ्रंट पर होंगे तो रोमांटिक संबंध कायम होने की आशंका रहेगी, जो उनके लड़ाकूपन की क्षमता को प्रभावित करेगी। लैंगिक विभेद से भरी व्यवस्था में यह बताकर भी मुंह चुराया जा रहा है कि बंधक सैनिकों पर होते रहे दैहिक शोषण की आड़ लेते हुए दलील दी जाती है कि औरतों को ऐसे में सेक्सुअली सताया जाएगा। अपराधियों पर लगाम लगाने में फेल कोई व्यवस्था यह कैसे तय कर सकती है कि औरतों को तालों में बंद कर दिया जाए क्योंकि पुरुषों का खुद पर अंकुश नहीं है। जो लोग सेना में होने वाली इन यौन उद्दंडताओं को लेकर जरूरत से कुछ ज्यादा ही संदेह जता रहे हैं, क्या उनको पता है कि अमेरिकी कॉरपोरेट में जबरदस्त दखल रखने वाले प्रमुख रिटेलर समूह 'वॉल मार्ट' को भी औरतों के प्रति भेदभाव रखने के मामले में वहां की सुप्रीम कोर्ट ने दोषी पाया? यह सुन कर बेहद तकलीफ होती है कि 2010 की 'फॉच्यरून' की 500 कंपनियों की सूची पर टॉप पर आई वॉल मार्ट भी उसी घटिया मानसिकता की गुलाम है, जिस पर हमको इस पुरातनपंथी समाज की उपज मान कर कुढ़ना पड़ता है। औरतों को कमजोर साबित करने की तमाम मर्दाना कोशिशों में से यह बेहद निचले दज्रे की आपत्तिजनक विचारधारा है। जाहिर है, इस तरह की लिखत-पढ़त अगर चोरी-छिपे भी हुई है तो इस पर कोई सफाई नहीं दे सकता और अगर इस हकीकत को वे स्वीकारते हैं, तो उनकी ओछी मानसिकता का इससे बड़ा नमूना नहीं हो सकता। अपने यहां यूं भी सैन्य पण्राली अंग्रेजों की देन है, वहां चालू सारे नियम और कायदे-कानूनों से अंग्रेजियत साफ टपकती है। सेना के उच्च ओहदे में औरतों को प्रोजेक्शन से ज्यादा कुछ भी नहीं माना जाता। औरतें उनकी आलीशान पार्टियों में सिर्फ नुमाइश की चीज रह जाती हैं और आर्टिफिशियल लाइफ स्टाइल के बोझ से वे इतनी दबा दी जाती हैं कि उनकी अपनी कोई समझ ही नहीं रह जाती। यह गलत नहीं है कि परेडों में जूते पटकने वालों के हाथ भले ही देश की बाउंड्री संभालने की जिम्मेदारी हो, पर वे औरतों को नहीं संभाल सकते। बात सैन्य अधिकारियों के घरों की हो या जंग के मैदान की, आम सिविल औरतें भी इनके आतंक से कहां बची हैं!
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है- देश का नार्थ-ईस्ट इलाका, जहां सैनिकों की सताई कई औरतें न्याय के लिए वर्षो से सरकारों का मुंह ताकने को मजबूर हैं। कुछ मर्दवादी तेवरों से त्रस्त लोग यह कैसे तय कर सकते हैं कि औरतें किस मामले में कमजोर हैं, जबकि औरतों के किसी समूह को आज तक इस तरह की कोई सूची जारी करने की जरूरत नहीं हुई है। सच तो यह है कि शारीरिक मापदंडों में प्राकृतिक रूप से कुछ पुरुष औरतों से काफी कमजोर होते हैं। ये औरतें ना सिर्फ लंबाई में ही ज्यादा होती हैं बल्कि ताकत और जोर-आजमाइश में भी इनका वे मुकाबला नहीं कर सकते। यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि आला सैन्य अधिकारियों को हो सकता है इतनी भी जानकारी ना हो कि दुनियाभर के तमाम मनोवैज्ञानिक अध्ययन मानते हैं कि औरतें मानसिक रूप से पुरुषों से कहीं ज्यादा मजबूत होती हैं। उनका दिल भले ही साइज में छोटा होता हो पर भावनाओं के मामले में पुरुष उनके इर्द-गिर्द भी नहीं ठहरते। यह कहकर औरतों को काम करने या अपनी प्रतिभा प्रदर्शन से नहीं रोका जा सकता कि वे उनकी शारीरिक क्षमताएं पुरुषों से कम हैं। विज्ञान मानता है कि औरतों के दिमाग के दोनों हिस्से काम करते हैं, वे तर्क करते वक्त भी भावनाओं को बखूबी डील कर सकती हैं। जबकि पुरुषों में यह क्षमता होती है कि वे एक बार में दिमाग का एक ही हिस्सा इस्तेमाल कर पाते हैं। यह तो कभी भी, कहीं भी देखा ही जा सकता है कि संयम के मामले में औरतें पुरुषों से बहुत आगे हैं। वे मुश्किल परिस्थितियों में भी सांस कम लेती हैं या उनके दिल की धड़कनें पुरुषों के मुकाबले कम होती हैं। पुरुषों में औरतों के मुकाबले उन्मादीपन बहुत होता है। सिस्टम और रूल के पीछे भागने वाले पुरुषों के लिए बुरी खबर यह है कि औरतें यहां भी भावनाओं को ही तरजीह देती हैं। रही बात बौद्धिक क्षमताओं की तो न्यूरोलॉजी मानती है कि प्राकृतिक रूप से यहां कोई लैंगिक विभेद नहीं है। यह बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में ही विज्ञान मान चुका है कि 'आई-क्यू' के मामले में औरत-मर्द में कोई विभेद नहीं होता। हालांकि इसको नकारने वाले भी मौजूद हैं इसलिए यह बहस आज भी जारी है लेकिन औरतों को पुरुषों के बराबर बौद्धिक ना मानने पर तुले विचारक भी इतना तो स्वीकारते ही हैं कि यह फर्क मामूली हो सकता है। जिन कामों में वे औरतों से मुकाबला नहीं कर सकते, उन सारे क्षेत्रों को पुरुषों के लिए अब तक क्यों नहीं प्रतिबंधित किया गया? यह सवाल कौन सी औरत उठाएगी? सेना में हो रही इस तरह की र्चचा को स्त्री-विरोधी मान कर तीनों सेनाओं की अध्यक्ष राष्ट्रपति क्यों मौन हैं, जबकि वे भी औरत ही हैं? इस अपमान के खिलाफ कोई तो जुबान खोलेगा? यह इसी धरती का सच है कि कुछ देशों की सेना में औरतें न सिर्फ शामिल हैं, बल्कि वे लड़ाकू विमान भी उड़ाती हैं। अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना में शामिल स्त्री सैनिकों को लेकर अब तक कोई हास्यास्पद हादसा सामने नहीं आया है। हां, वहां भी सैनिकों के बीच होने वाले सेक्सुअल संबंधों को लेकर मुद्दा गरमाता रहा है। लेकिन यह जनानी होने का खामियाजा नहीं बताया जा सकता। अगर पुरुष सैनिकों में अपनी कामुकता को लेकर संयम नहीं है, तो औरतों पर पाबंदी क्यों? याद रखिए, दोनों विश्व युद्धों के दरम्यान पुरुष सैनिकों ने औरतों पर यौन उत्पात मचा कर जबर्दस्त खौफ मचाने में कोई कोताही नहीं की थी। वहां तो ऐसा कोई भी कारण नहीं था, जो यह बहाना किया जाता कि चूंकि औरतें कुछ ज्यादा ही करीब थीं इसलिए वे खुद पर काबू करने में असफल रहे। अभी दो हफ्ते पहले ही डिफेन्स मिनिस्टर ए. के. एंटोनी ने माना कि इंडियन आम्र्ड फोर्सेज ने अपने 7 अधिकारियों को सहयोगी औरतों का यौन शोषण करने का दोषी पाने पर सजा दी है। इनमें से 3 आर्मी, 3 एयर फोर्स व एक नेवी से है। अत्याधुनिक हथियारों से लैस यूएस मिलिट्री किसी भी जंग से लड़ने की बेहतरीन क्षमता रखती है पर सैन्य स्त्रियों को साथी पुरुषों से नहीं बचा पाती। 'न्यूयॉर्क टाइम्स' में छपी रपट बताती है कि इराक वॉर में शामिल रही जनाना सैनिकों को जबर्दस्त यौन शोषण से जूझने के कारण खास तरह का स्ट्रेस हो गया था। इराक व अफगानिस्तान गई इन फौजियों में से 15 फीसद को तो मिलिट्री सेक्सुअल ट्रामा का शिकार पाया गया, जबकि पेंटागन मानता है कि 80 से 90 फीसद यौन शोषण के मामले दर्ज ही नहीं होते। अभी बीते साल ही यूएस डिपार्टमेन्ट ऑफ डिफेन्स ने अपनी मिलिट्री को 'प्रोटेक्टर' के नाम पर वर्दी के साथ कंडोम बांटकर काफी र्चचा बटोरी थी। 2007 में जापान के एक प्रमुख सव्रे से निकल कर आया कि वहां की 3,704 वर्दीधारी औरतों को किसी ना किसी तरह के सेक्सुअल हरेसमेंट का शिकार होना पड़ा। 3.4 फीसद से जबरन सेक्स किया गया और 20 फीसद से अनचाहे काम, 24 प्रतिशत को गंदे जोक्स सुनाये गये। आज से 5 साल ही पहले अमेरिकी सेना में दो लाख से ज्यादा औरतें शामिल थीं और वहां होने वाले यौन अपराधों को अब भी पूरी तरह नहीं रोका जा सका है। अफगानिस्तान में उनकी सैन्य टुकड़ियों में औरतें शामिल रही हैं। ब्रिटेन की नेवी से जुड़ी नौकरियों में 7, आर्मी में 67 और एयर फोर्स में 96 फीसद में कोई लैंगिक भेद नहीं है। रूस और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में अब भी नर्सिग, कम्युनिकेशन और सहायक अंगों के रूप में काम करने वाले दस्तों में ही औरतों को शामिल करने की अनुमति है। इतना सब बताने का मेरा मकसद बस इतना है कि फालतू बातें बना कर पीछे धकेलने का यह ढोंग खत्म करिए, औरत सेना में हो या सेना के बाहर, मर्दवादी हथियारों से जूझना उसको आता है। वह कमजोर है नहीं, उसको कमजोर बनाती है आपकी घिनौनी मानसिकता।

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