Saturday, April 23, 2011

पाक, अदालत और मुख्तारन माई


 मुख्तारन माई बलात्कार मामले में पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट ने छह आरोपियों में पांच को बरी करने के लाहौर हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। इस फैसले से पाकिस्तान में मानव अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को काफी निराशा हुई है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुनने के बाद मुख्तारन माई टूट सी गईं, उनकी आंखों से गम के आंसू टपकने लगे। इस फैसले से आहत मुख्तारन माई इसके खिलाफ कोई अपील नहीं करने का निर्णय लिया है। मुख्तारन के मुताबिक अनपढ़ होने की वजह से पुलिस बलात्कार के आरोपियों के खिलाफ दायर की गई एफआइआर को जानबूझ कर कमजोर बनाया ताकि मुजरिमों को मुकदमे के फैसले में राहत मिल सके। हालांकि अदालत के सामने मेडिकल रिपोर्ट भी पेश की गई थी, जिसमें उसके साथ बलात्कार होने की पुष्टि हुई। फिर भी इस हकीकत पर अदालत ने गौर नहीं फरमाया? दरअसल पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मुल्क में उन लोगों को नहीं पच रहा जो मुख्तारन माई के प्रति हमदर्दी रखते हैं। लोगों के अनुसार अगर सुप्रीम कोर्ट को लाहौर हाइकोर्ट का फैसला ही बरकरार रखना था तो मुख्तारन का वक्त जाया क्यों किया गया? मुख्तारन का कहना है कि वह पिछले दस सालों से अदालतों के चक्कर लगा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद उसे किसी और अदालत पर विश्वास नहीं रह गया। अब सिर्फ अल्लाह की अदालत है जहां से मुझे उम्मीद है। यह बेबसी जुल्म की शिकार उस पाकिस्तानी औरत की है जिसने खुद की जिंदगी को उस खौफनाक वाकये के बाद भी खत्म न करके पाकिस्तान समेत समूचे दक्षिण एशिया की लाचार औरतों के लिए प्रेरणादायक बनाया। पाकिस्तान में महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने भी इस फैसले का कड़ा विरोध किया है। उनका कहना है कि स्वतंत्र संज्ञान के बाद भी यह फैसला आता है तो मुल्क के कानून पर से लोगों का यकीन खत्म हो जाएगा। देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पाकिस्तान की औरतों के लिए इम्तिहान का दिन है। इस फैसले के बाद यह कहने में तनिक भी गुरेज नहीं कि यह मुल्क औरतों के हक औऱ उनकी आबरू के लिए महफूज नहीं है। मुख्तारन समेत पाकिस्तान की हर वो औरत जो किसी न किसी तरह की जुल्म की शिकार हुईं हैं वो इस फैसले से बेहद नाखुश हैं। गौरतलब है कि मीरवाला गांव में पंचायत के एक फैसले के नतीजे में मुख्तारन माई के साथ 22 जून, 2002 को सामूहिक बलात्कार किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने लाहौर हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए मुख्तारन माई के मुकदमे में छह में से पांच अभियुक्तों को रिहा करने का आदेश दिया है। इससे पहले स्थानीय अदालत ने मुख्तारन माई के साथ सामूहिक बलात्कार करने के आरोप में छह अभियुक्तों को मौत की सजा सुनाई थी। पंचायत का आरोप था कि मुख्तारन माई के भाई शकूर का मस्तोई कबीले की एक औरत से नाजायज ताल्लुकात हैं और उस वजह से मुख्तारन माई को यह सजा दी गई। क्या एक बारह साल का लड़का किसी औरत के साथ नाजायज रिश्ता कायम कर सकता है यह बहुत बड़ा सवाल है? पाकिस्तान में एक टेलीविजन चैनल को दिए इंटरव्यू में मुख्तारन ने कहा कि पंचायत का फैसला पूर्व नियोजित था। जिसने पहले से यह तय कर रखा था कि उसे क्या करना है? मेरे भाई शकूर को मोहरा बनाकर मेरी आबरू को तार-तार किया गया। इस बर्बर घटना के करीब छह दिनों बाद मीरवाला की एक मस्जिद के इमाम ने जुमे की नमाज से पहले लोगों से कहा था कि वह इस सामूहिक बलात्कार का कड़ा विरोध करें और पुलिस को इस बारे में इत्तला करें। उसके बाद पहली दफा यह यह मामला पाकिस्तानी मीडिया में आया। उसके बाद अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने पूरे मामले को प्रकाशित किया। लिहाजा मुख्तारन माई के साथ हुए अन्याय की कहानी पूरी दुनिया में फैल गई। 30 जून, 2002 को पाकिस्तान की स्थानीय पुलिस ने 14 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और मामले की सुनवाई शुरू हो गई। जिला अदालत ने 31 अगस्त, 2002 को छह लोगों को मौत की सजा सुनाई थी और आठ लोगों को बरी करने के आदेश दिए थे। तीन मार्च 2005 को यह मामला लाहौर हाइकोर्ट के मुल्तान खंडपीठ पहुंचा और अदालत ने ठोस सबूतों की कमी की बुनियाद पर इस मुकदमे में पांच लोगों को बरी कर दिया, जबकि मुख्य अभियुक्त अब्दुल खालिक की सजा-ए-मौत को उम्रकैद की सजा में तब्दील कर दिया। हालांकि पाकिस्तान की सर्वोच्च इस्लामी अदालत शरिया कोर्ट ने लाहौर हाइकोर्ट के फैसले का विरोध किया और कहा कि इस्लामी नियमों के अधीन हाइकोर्ट इस मामले में किसी भी अपील को सुनने का अधिकार नहीं रखती। 14 मार्च, 2005 में पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और कहा कि वह ख़ुद इस मामले को सुनेगा। वर्ष 1972 में पैदा हुई मुख्तारन माई को बलूच पंचायत की ओर से इज्जत के नाम पर सजा सुनाई कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाए। मस्तोई बलूच कबीले के कुछ लोगों ने ऐसा ही किया। अमूमन औरतें इस तरह की घटना के बाद खुदकुशी कर लेती हैं, लेकिन मुख्तारन उसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। दरअसल, मुख्तारन का यह किरदार सिर्फ मुकदमा जीतने और गुनहगारों को सजा दिलाने तक सीमित नहीं है। उन्होंने मीरवाला में वीमेन वेलफेयर आर्गेनाइजेशन की बुनियाद रखी। लड़कियों के लिए स्कूल खोला, क्योंकि उनका मानना है कि पढ़ी-लिखी होने पर उनके साथ इस तरह का अन्याय नहीं होगा। मुख्तारन माई को कई बार जान से मारने की धमकियां भी मिली। बावजूद इसके उसने अपना निर्णय नहीं बदला। पूरे पाकिस्तान में मुख्तारन माई का नाम इतना बड़ा हो गया है कि कोई आसानी से उन्हें छूने की हिम्मत नहीं करेगा। यह बात पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ के उस बयान के बाद और साफ हो गई जिसमें उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा था कि यह कोई बड़ा मसला नहीं है। कुछ औरतें विदेश जाने और पैसे ऐंठने के लिए ऐसी कहानियां गढ़ती हैं। मुशर्रफ उस समय अपनी किताब के सिलसिले में अमेरिका में थे। उनके इस बयान पर दुनियाभर में आलोचना हुई और आखिरकार राष्ट्रपति सचिवालय को कहना पड़ा कि उनके बयान को गलत ढंग से छापा गया है। मुख्तारन माई को अमेरिकी सीनेट को संबोधित करने के लिए बुलाया गया। मगर उसे पाकिस्तानी सरकार ने वीजा नहीं दिया। इसके बाद भी मुख्तारन माई झुकी नहीं और अपने साथ हुए इस अत्याचार को पाकिस्तान की हर महिला के अधिकारों की लड़ाई बना दिया। इसी से वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आई। कई देशों में मुख्तारन माई के लिए सहानुभूति बढ़ गई और न्याय के लिए संघर्ष करने पर उन्हें कई पुस्कार भी मिले, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले से मुख्तारन माई जैसी जीवट महिला के हौसले में कमी आई है। क्या न्याय का तकाजा यही है कि दरिंदे को उसकी सजा न देकर उसे रिहाई का तोहफा दिया जाए, ताकि समाज में ऐसी घटनाएं दोहराई जाती रहें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पीणकार हैं).

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