Wednesday, April 6, 2011

लड़कियों की सिमटती आबादी


भारत में लड़कियों के लिए कोई जगह नहीं। स्वयं को सुपर पावर कहलाने वाले और आर्थिक प्रगति का राग अलापने वाले इस देश का लड़कियों के प्रति नजरिया नफरत भरा है। देश की आधी आबादी के प्रति यह तंग सोच हमें पिछड़े देशों की कतार में खड़ा करता है। 2011 की जनगणना के आंकड़े साबित करते हैं कि लड़कियों के प्रति देश के अधिकतर लोगों की सोच बेहद संकुचित और शर्मनाक है इसलिए गर्भ में ही उसे खत्म करने का सिलसिला बढ़ रहा है। जनगणना के मुताबिक छह वर्ष की आयुवर्ग में लड़कियों की संख्या में आजादी के बाद से अभी तक सबसे अधिक गिरावट आई है। अब 1000 लड़कों पर महज 914 लड़कियां हैं वर्ष 2001 की जनगणना में यह संख्या 927 थी। आंकड़े बताते हैं कि देश के 27 राज्यों सहित दिल्ली और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों में सामान्य से लेकर खतरनाक स्तर तक की गिरावट आई है जो साबित करती है कि कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान विफल रहे हैं। संपन्न राज्य हरियाणा और पंजाब में भी लड़कियों की संख्या सबसे है, यह कम क्रमश: 774 और 778 है। साफ है कि लड़की को हीन मानने का कारण महज गरीबी और अशिक्षा नहीं है। राजस्थान में स्वयंसेवी संगठनों को कन्या भू्रण हत्या पर रोकने के लिए काफी फंड दिया गया। इसके बावजूद भी यहां लड़कियों के अनुपात में कमी आई है। यह अनुपात 2001 में 909 था जो अब घटकर 883 हो गया है। पूरे देश में लड़कियों की संख्या में यह गिरावट कई बड़े और गंभीर सबक देती है। सबसे बड़ी बात यह है कि भू्रण परीक्षणों पर रोक लगाने के लिए किए गए कानूनी और सामाजिक प्रयास में कई खामियां रही हैं। गर्भ में लड़का है या लड़की का पता लगाकर भू्रण को गर्भ में खत्म करने की प्रवृत्ति रोकने लिए 1994 में भू्रण परीक्षण निवारण कानून बना। इसी तरह लिंग निर्धारण करने वाली तकनीकों पर रोक लगाने के लिए 1996 में कानून में संशोधन किया गया, लेकिन पूर्ण कामयाबी नहीं मिल सकी। इसकी एक वजह कानून के लचीले प्रावधान हैं। विभिन्न राज्यों में कानून के क्रियान्वयन पर नजर रखने वाले केंद्रीय सतर्कता बोर्ड के गठन में ही सरकार ने कई साल लगा दिए। बोर्ड बनने के बाद उसकी बैठकें भी सुस्त चाल में चलीं। गैर रजिस्टर्ड अल्ट्रासाउंड मशीनों को जब्त करने के प्रयासों के अभाव के कारण इनकी गिनती बढ़ती जा रही है। मोबाइल मशीनों ने लिंग परीक्षणों की संख्या में और भी बढ़ोतरी की है। पूरे देश में अभी तक केवल 15 डॉक्टरों के खिलाफ ही मामलों की सुनवाई हुई है। जबकि मेडिकल पत्रिका लांसेट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष कन्या भ्रूण हत्या की गिनती 5 लाख है।। इससे स्पष्ट है कि पहले से बने कानूनों को अधिक कारगर और प्रभावी बनाने के लिए नए सिरे से सोचने की जरूरत है। देखा जाए तो कन्या भ्रूण हत्या खत्म करने की प्रवृत्ति संपन्न राज्यों में अधिक बढ़ी है जो यह दर्शाती है कि गरीबी ही लड़की को मारने का कारण नहीं। पंजाब में स्थिति सबसे गंभीर पाई गई थी। यहां के कुछ इलाकों में धनी पंजाबी परिवारों में 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या महज 300 थी। विडंबना यह है कि महिला-पुरुष बराबरी के प्रति जागरूकता फैलाने वाले अधिकतर अभियानों का फोकस निम्न वर्ग तक ही रहा है। हकीकत यह है कि चाहे उच्च वर्ग का शिक्षित परिवार हो या पिछड़े वर्ग का गरीब और अनपढ़ परिवार, लड़कियों की चाहत के प्रति दोनों की सोच एक जैसी है। इसलिए केवल गरीबी और अशिक्षा को लड़कियों की संख्या कम होने के लिए दोषी ठहराना उचित नहीं। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत 64 से बढ़कर 74 है और पुरुषों का 82 फीसदी हो गया है। स्कूलों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। सूचना के बढ़ते माध्यमों ने सूचना फैलाने के क्षेत्र का विस्तार किया है, लेकिन इस सबके बावजूद लड़की के प्रति सोच में बदलाव नहीं आया है। पुरुष सत्तात्मक समाज में अभी भी लड़की को लड़के के बराबर का दर्जा नहीं है। भले ही महिलाएं राष्ट्रपति, स्पीकर जैसे सर्वोच्च पदों पर पहुंच रही हों, परीक्षाओं में लड़कों को पछाड़ रही हो और देश के लिए पदक जीत रही हों, लेकिन परिवार में लड़के को अहमियत देने की रवायत में बदलाव नहीं हो रहा। आज भी लड़कों को वंश आगे बढ़ाने और विरासत संभालने के लिए अहमियत दी जाती है। दो साल पहले दिल्ली की सेंटर फॉर सोशल रिसर्च संस्था और स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालय ने दिल्ली में लिंग अनुपात से जुड़े आर्थिक, सामाजिक और नीति संबंधी कारणों की जांच के सर्वेक्षण में पाया कि पुराने रीति-रिवाज और पारिवारिक परंपराओं के कारण दिल्ली में अधिकतर परिवार गर्भपात कराते हंै। दिल्ली में लड़कियों के कम अनुपात वाले तीन क्षेत्र नरेला, पंजाबी बाग और नजफगढ़ में कराए सर्वेक्षण में अनपढ़, कम पढ़े-लिखे और उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों ने माना कि उनके परिवारों में लड़की की बजाय लड़के के जन्म को अधिक बेहतर माना जाता है। इसकी वजह पूछे जाने पर इन लोगों ने बताया कि बेटा मरने के बाद अतिंम रस्मों को पूरा कर मोक्ष दिलाता है और परिवार का नाम आगे बढ़ाता है। सर्वे के नतीजों से साफ था कि गरीब और पिछड़ा वर्ग अगर लड़की को आर्थिक बोझ के रूप में देखता है तो मध्य और उच्च वर्ग के संपन्न लोग लड़के को अपनी संपत्ति का वारिस और अतिंम रस्मों को पूरा करने के लिए जरूरी मानते हैं। इसके अलावा लड़की को दिया गया दहेज लड़के के लिए बेयरर चेक का काम करता है। लड़कियों को पिता की संपत्ति में समान हक का कानूनी अधिकार भले ही मिल गया हो लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या कितनी है जहां संपत्ति का समान वितरण हुआ हो। लड़कियों द्वारा मां-बाप के अतिंम संस्कार करने के भी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं, लेकिन ऐसे प्रयासों को बढ़ावा मिलने की जरूरत है। परिवार में लड़की हर पहलू से लड़के के बराबर है इसके लिए जरूरी है कि उसके उपनाम को न बदला जाए और घर के हर छोटे-बड़े फैसले में पत्नी की राय को बराबर अहमियत मिले। आंकड़ो से पता चलता है कि लोगों में सीमित परिवार रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। लेकिन इससे लड़के की चाह में कमी नहीं आई है। लड़कियों की लगातार कम हो रही संख्या का सबसे भयावह परिणाम यह भी हो सकता है कि आने वाले समय में लड़कों को अपने विवाह के लिए लड़कियों को बाहर देश के से आयात करना पड़े। अभी ही हरियाणा और पंजाब के कई गांवों में हालत यह है कि तमाम लड़कों को अपने लिए दुल्हन नहीं मिल पा रही है। इसके लिए उन्हें बिहार, झारखंड सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों से दुल्हनों को लाना पड़ रहा है। राजस्थान के जैसलमेर जिले का देवरा गांव 110 सालों के बाद किसी बारात का स्वागत करने की पदवी हासिल कर चुका है। अगर लड़कियों के प्रति नफरत का यह सिलसिला थमा नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब देश के अन्य इलाकों में भी लड़कों को अपने लिए दुल्हन पाने के लिए सैंकड़ों वर्षो तक इंतजार करना पड़े। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

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