Monday, April 25, 2011

बीड़ी बनाओ! नहीं तो झेलो तलाक


इस बीड़ी में तो वाकई बड़ी आग है! यह सिर्फ कलेजा ही नहीं फूंकती। पहले बच्चियों का बचपन और फिर महिलाओं की जवानी और आखिर में घर-गिरस्थी भी जला रही है। महिलाएं जब बीड़ी बनाने में अपना जीवन होम करती हैं तो उनके घर का चूल्हा जलता है। यह शापित कथा पश्चिम बंगाल की सीमा से सटे झारखंड के पाकुड़ जिले की है। यहां महिलाओं के विवाह की योग्यता का मापदंड बीड़ी बनाने की कला है। अगर शादी हो भी गई और महिला को बीड़ी बनानी नहीं आती, तो उसे तलाक की त्रासदी झेलनी पड़ती है। अत्यंत पिछड़े इस क्षेत्र में लोगों के जीवन-यापन का मुख्य धंधा बीड़ी उद्योग है। करीब 80 हजार लोग बीड़ी बनाने के काम में लगे हैं, उनमें भी महिलाओं और बच्चियों की संख्या लगभग 70 हजार है। अधिकांश परिवारों के पुरुष सदस्य कोई उद्योग नहीं होने के कारण बेरोजगार हैं। लिहाजा, परिवार के भरण-पोषण के लिये महिलाओं को बीड़ी बनाने का काम करना ही पड़ता है। ऐसे में जो महिला बीड़ी नहीं बना पाती, वह पति और परिवार के लिए बेकार मान ली जाती है और उसका परित्याग कर दिया जाता है। पाकुड़ और महेशपुर प्रखंड में बीड़ी न बना पाने के जुर्म में करीब दो दर्जन महिलाएं तलाक का दंश झेल रही हैं। कई मामले ऐसे भी हैं, जहांकिसी महिला ने कम बीड़ी बनाई तो उसे पति ने तलाक दे दिया। शोषण : बीड़ी मजदूर अब भी असंगठित श्रमिकों की श्रेणी में है। बीड़ी उद्योग भी निजी क्षेत्र का धंधा है। इसके व्यवसायी अपने मुंशी और मेठ की मदद से गरीब परिवारों का शोषण करते हैं। मेठ और मुंशी उनके घरों तक बीड़ी के पत्ते और तंबाकू पहुंचा देते हैं और शाम को आकर जितनी बीड़ी बनी होती है, ले जाते हैं। प्रति हजार बीड़ी बनाने पर 55 रुपए मजदूरी के एवज में दिए जाते हैं। कभी-कभी तो बीड़ी बनाने वालों की मजबूरी का लाभ उठाते हुए बिचौलिए और भी कम पैसे देते हैं। नाम की सरकारी मदद : बीड़ी बनाने में लगे अधिकांश मजदूर टीबी के शिकार हो जाते हैं। सरकार ने उनकेलिये एक अस्पताल, लगभग 500 आवास, मजदूरों के बच्चों के लिये छात्रवृति सहित कई सुविधाएं दी हैं, लेकिन जमीन पर उसका असर नहीं है।


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