Friday, April 22, 2011

जाति की जड़ें काटतीं औरतें


उस्मानाबाद जिले में अनुसूचित जाति की आबादी 15 प्रतिशत से भी ज्यादा है मगर 85 प्रतिशत से भी ज्यादा परिवार अपनी रोजी-रोटी के लिए या तो सवर्णो के खेतों में काम करते हैं या फिर चीनी की मिलों के वास्ते गन्ने काटने के लिए पलायन करते हैं
देश में कुल आबादी का एक-चौथाई हिस्सा दलितों और आदिवासियों का है मगर उनके पास खेतीलायक जमीन का महज 17.9 प्रतिशत हिस्सा है। इसी तरह, कुल आबादी में करीब आधी हिस्सेदारी औरतों की है, जो कुल मेहनत में बड़ी हिस्सेदारी निभाती हैं और उन्हें कुल आमदनी का 10वां हिस्सा मिलता है। ऐसे में दलित और उस पर भी एक औरत होने की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। मगर मराठवाड़ा की दलित औरतें धीरे-धीरे जाति की जड़ों को काट और पथरीली जमीन से फसल उगाकर अपना दर्जा खुद तय कर रही हैं। उस्मानाबाद जिले में अनुसूचित जाति की आबादी 15 प्रतिशत से भी ज्यादा है मगर 85 प्रतिशत से भी ज्यादा परिवार अपनी रोजी-रोटी के लिए या तो सवर्णो के खेतों में काम करते हैं या फिर गन्ना मिलों के वास्ते गन्ने काटने के लिए पलायन करते हैं। स्थायी आजीविका न होने से उनके सामने जीने के कई सवाल खड़े रहते हैं। मराठवाड़ा में 'कुल कितनी जमीनों में से कितना अन्न उगाया है' के हिसाब से किसी आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां बनती-बिगड़ती हैं। तारामती अपने तजुर्बे से ऐसी बातें अब खूब जानती हैं। 'लड़कियों का बेहिसाब घूमना या किसी गैर से खुलकर बतियाना, यह कोई अच्छे रंग-ढंग तो नहीं', बचपन से हमें यही तो सुनाया जाता है। लेकिन तारामती अब वैसी नहीं रही, जैसी वह पहले थी। नहीं तो बहुत पहले, किसी अजनबी आदमी को देखा नहीं कि जा छिपती थीं रिवाजों की ओट में। इस तरह यहां बाहरी मर्द से बतियाने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। दलित परिवार की तारामती के सामने ऐसे कई सवाल कभी नहीं उठे थे। उसे तो अपने पति को पिटते हुए देखकर भी चुप रहना था। गांव के दबंग जाति वालों से पूरी मजूरी मांगने की हिम्मत न उसमें थी, न उसके पति में। ऐसा सुलूक तो शुरू से ही होता रहा है, सो यह कोई बड़ी बात भी नहीं लगती थी। इसके बावजूद, अगर कोई विरोध होता भी था तो मजाल है कि चारदीवारी से बाहर निकल सके। उस पर भी एक औरत की क्या बिसात कि वह ऐसी बातों पर खुसुर-फुसुर भी कर सके। '6 साल पहले यहां की औरतों को हमने ऐसी ही हालत में देखा- पाया था।' लोकहित समाज विकास संस्थान के बजरंग टाटे आगे बताते हैं, 'काम शुरू करने के बाद हम हर रोज यहां आते-जाते, मगर जो भी बातें निकलकर आतीं वे सिर्फ मर्दों की होतीं। हम औरतों के सोचने की आदत के बारे में भी जानना चाहते थे। तब स्वयं सहायता-समूह ने औरतों के विचारों को आपस में जोड़ने के लिए कड़ी का काम किया। इस समूह के जरिए धीरे-धीरे पता चला कि औरतों के भीतर गुस्सा कूट-कूटकर भरा है, वह बहुत कुछ बदल देना चाहती हैं, उन्हें अगर खुलेआम बोलने का मौका भी मिला तो काफी कुछ बदल जाएगा।' ग्राम धोकी, जिला उस्मानाबाद से तारामती जैसी दर्जनों औरतें धीरे-धीरे ही सही, मगर सबके भीतर भरे गुस्से से एक होती चली गई। लंबा वक्त गुजरा, एक रोज धोकी की औरतों ने र्चचा में पाया कि जब तक जमीनों से फसल नहीं लेंगे, तब तक रोज-रोज की मजूरी के भरोसे ही बैठे रहेंगे। अगले रोज सबके भरोसे में उन्होंने अपना-अपना भरोसा जताया और गांव से बाहर बंजर पड़ी अपनी जमीनों पर खेती करने की हिम्मत जुटायी। जैसी कि आशंका थी, गांव में दबंग जाति वालों के अत्याचार बढ़ गए। उन्होंने सोचा कि जो कल तक हमारे गुलाम थे, वे अगर मालिक बने तो उनके खेत कौन जोतेगा! हीरा बारेक उन दिनों को याद करती हैं, 'पंचायत चलाने वाले ऐसे बड़े लोगों ने मेरे परिवार को खूब धमकियां दीं। मगर अब हम अकेले नहीं थे, संगठन के कई लोग भी तो हमारे साथ थे। इसलिए सबके साथ मैंने आगे आकर ललकारा कि अगर तुम अपनी ताकत आजमाओगे, मेरे पति को मारोगे, तो हम भी दिखा देंगे कि हम क्या कर सकती हैं।'
एक बार दबंग जाति वालों ने कुछ दलित औरतों को जमीनों पर काम करते देखा तो उनके पतियों को बुलवाया। गांव में बंद करने जैसी धमकियां भी दीं। अगली सुबह तारामती और उनकी सहेलियों ने अपने- अपने घरों से निकलते हुए कहा कि मदरे को डर लगता है तो रहो इधर ही, हम तो काम पर जाते हैं। थोड़ी देर बाद, कई दलित मर्द जमीनों पर आए। कुल जमा 50 जनों ने वहीं बैठकर फैसला लिया कि वे गांव में भी समूह बनाकर रहेंगे और खेतों पर भी। और इसी के बाद 'स्वयं सहायता- समूह' की बैठक में औरतों के साथ पहली बार मर्द भी बैठे। इसके पहले तक तो औरतों का समूह अपनी रोजमर्रा की बातों पर ही बतियाता था, मगर इस बार यह समूह गांव के नल से पानी भरने जैसी बातों पर भी गंभीर हो गया। यहां की औरतों ने पानी में अपनी हिस्सेदारी के लिए लड़ने का मन बना लिया। खुद को ऊंची जाति का कहने वालों ने सार्वजनिक उपयोगों की जिन बातों पर रोक लगाई थी, वे एक-एक करके टूटने लगी थीं। यह सच था कि तारामती के समूह से जुड़ी औरतों के मुकाबले दूसरी जाति की औरतों में भिन्नताएं साफ-साफ दिखती थीं। फिर भी एक बात सारी औरतों को एक साथ जोड़ती थी कि परंपराओं के लिहाज से सबको मान-मर्यादा का ख्याल रखना ही है। ऐसे में, तारामती और उसके समूह के गांव से बाहर आने-जाने, बार-बार संगठन के दूसरे साथियों से मिलने-जुलने के ऐसे मतलब निकाले गए जो उनके चरित्र पर हमला करते थे। तारामती नहीं रुकी, एक कदम आगे जाकर उसने उप-सरपंच का चुनाव भी लड़ा। यह अलग बात है कि वह चुनाव हार गई। मगर जहां किसी दलित के चुनाव लड़ने को सामान्य खबर नहीं माना जाता, वहां एक दलित औरत के मैदान में कूदने की र्चचा तो गर्म होनी ही थी! तारामती, हीरा बारेक, संगीता कस्बे को तो और आगे जाना था, इसलिए यहां पहली बार मदरे के बराबर मजूरी की मांग उठी। इससे पहले इन्हें रोजाना 40 रुपये मजूरी मिलती थी, जो मदरे के मुकाबले आधी थी। विरोध के बाद उन्हें रोजाना 65 रुपये मजूरी मिलने लगी, जो मदरे से थोड़ी ही कम थी। तारामती के समूह की औरतें पंचायत में जगह से लेकर जायज मजूरी पाने की जद्दोजहद इसलिए कर सकीं, क्योंकि आजीविका के लिहाज से उन्हें अपने खेतों से फसल मिलने लगी थी। संगीता कस्बे बताती हैं, 'इससे पहले, वे (सवर्ण) हमें नाम की बजाय जाति से बुलाते थे। जाति न हो जैसे गाली हो। 'क्या रे ऐ मान', 'क्यों रे महार', ऐसे बोलते थे। अब वे इज्जत से बुलाते हैं, बतियाते हैं। 'आज तुम काम पर आ सकते हो या नहीं', ऐसे पूछते हैं। सबसे बढ़कर तो यह हुआ कि पंचायत से हमारे काम होने लगे। हम जानने लगे कि सही क्या है, हक क्या है? हर चीज केवल उनके हिसाब से तो नहीं चल सकती है ना।' हम जब तारामती के समूह से बतिया रहे थे, तो दूर के डोराला गांव से कुछ औरतें भी पहुंचीं। वह भी अपने यहां 'स्वयं सहायता समूह'
बनाना चाहती थीं। उसी समय जाना कि औरतों का समूह जरूरत पड़ने पर मदरे को भी कर्ज देता है। इस समूह में बच्चों की पढ़ाई और किसी अनहोनी से निपटने को वरीयता दी जाती है। पांडुरंग निवरूति ने बताया कि आसपास ऐसे 16 महिला घट बनाये गए हैं। हर घट में कम से कम 10 औरतें तो रहती ही हैं।'
तारामती कहती हैं, 'अगर हम ऐसे ही बैठे रहते तो जो थोड़ा-बहुत पाया है, वह भी हाथ नहीं लगता। ऐसा भी नहीं है कि हमारी हालत बहुत सुधर गई है, अब भी काफी कुछ करना है।'
यह सच है कि यहां काफी कुछ नहीं बदला है, फिर भी कम से कम इन औरतों की दुनिया बेबसी के परंपरागत चंगुलों और उनके बीच उलझी निर्भरताओं से किनारा पा चुकी है। ये अब अपने बच्चे को स्कूल भेजकर बेहतर सपना देख सकती हैं। माया शिंदे की यह कविता यहां की जिंदगियों में आ रहे बदलावों को बयान करने के लिए काफी है : 'मुझे अपना हक पता है/फिर कैसे किसी को अपना कुछ भी यूं ही निगलने दूं/हो जाल कितना भी घना/कितना भी शातिर हो बहेलिया। अंत तक लड़ता है चूहा भी/उड़ना नहीं भूलती है कोई चिड़िया कभी।'
चलते-चलते उस्मानाबाद जिले के 29 गांवों में जो वहां की जमीन पर खेती करने की मुहिम चलाई जा रही है, उसका नेतृत्व औरतों के हाथ में है। इसके तहत अब 702 परिवारों की औरतें अपनी जमीनों के रास्ते जात-पांत से लेकर सभी तरह के भेदभाव तो मिटा रही हैं। साथ ही पंचायत, स्कूल और बाकी जगहों पर भी अपने परिवार की उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।


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