Wednesday, April 6, 2011

पंचायतों का स्त्री पक्ष


छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके की पंचायत माकड़ी खूना की सरपंच माया महिलाओं के लिए शौचालय के महत्व को भी बखूबी समझती है। इसलिए पिछले साल फरवरी में चुनाव जीतने के बाद उसने गांव में उन घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाया, जिनके घरों में शौचालय कभी नहीं थे
देश के विभिन्न हिस्सों में पंचायतों में चुनकर आने वाली महिलाओं की भूमिका बदल चुकी है। उनकी कार्यशैली का स्त्री पक्ष अब दिखाई देने लगा है। उनकी समझ और सोच में आया बदलाव उनकी दबंग कार्यशैली में आए बदलाव में स्पष्ट दिखाई देता है। शासन चलाने के ककहरे को सीखने के बाद अब वे सत्ता की बारीकियों को और सत्ता से बाहर रखने की साजिशों को समझने में जुटी हैं। पचास प्रतिशत आरक्षण के जरिए पिछले एक दशक में पंचायतों में शामिल होने वाली महिलाओं की प्राथमिकता अब केवल गांव में कुएं का निर्माण कराना, स्कूल बनवाना या फिर गांव के मदरें द्वारा सुझाए सामुदायिक केंद्र या सड़क निर्माण के कामों को अंजाम देने तक सीमित नहीं, बल्कि वे महिला हितों और हकों को समझाने-परखने की बेहतर विधा भी सीख रही हैं। पति या परिवार के अन्य मदरें द्वारा सुझाए प्रस्तावों पर मुहर लगाना और उनकी प्रॉक्सी बनकर काम करना अब उन्हें मंजूर नहीं। विरोध और सहमति की ऐसी आवाजें देश के विभिन्न हिस्सों से सुनाई पड़ रही हैं। कुछ साल पहले राजस्थान के अजमेर शहर में एक जन- सुनवाई में राज्य के विभिन्न इलाकों से आई पंचायतों की महिलाओं ने स्वीकार किया था कि अकसर पंचायत के पुरुष उनके द्वारा प्रस्तावित योजना को अस्वीकार करने के लिए अविश्वासमत के माध्यम से उन्हें निष्कासित करने की तिकड़में लड़ाते रहते हैं। इन महिलाओं ने इस जनसुनवाई में शपथ ली कि वे अब उनकी ऐसी चालों के खिलाफ मोर्चा खोलेंगी। जनसुनवाई में कोटा, भीलवाड़ा और टोंक से आइर्ं महिलाओं ने बताया कि अधिकतर पुरुष साथी उनकी निरक्षरता का फायदा उठाकर सभी प्रकार के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं, जिस कारण कई बार उनकी असहमति के बावजूद कईं महत्वपूर्ण फैसले ले लिये जाते हैं। जनसुनवाई में मौजूद सभी महिलाओं ने ऐसे पेपरों को किसी बाहरी समझदार व्यक्ति से पढ़वाने के बाद दस्तखत करने का फैसला किया। इसी प्रकार की एक बैठक में पंजाब में पंचायतों की महिलाओं ने पंचायतों के कामों में दखल देने वाले पतियों और परिवार के अन्य पुरुषों के खिलाफ सख्ती न बरतने के लिए पंजाब के पूर्व पंचायत मंत्री के खिलाफ प्रदर्शन किया। इन महिलाओं ने सर्वसम्मति से पंचायत कार्यालयों में परिवार के पुरुषों के दाखिल होने पर पाबंदी लगाने का फैसला किया।
राह कठिन मगर
संविधान के 73वें संशोधन के साथ 1992 से महिलाओं को पंचायतों में मिले आरक्षण के साथ प्रशासन को संभालने के लिए शुरू हुआ। उनका सफर बेहद कांटोंभरा रहा। इसके लिए उन्हें कईं कठिन पड़ावों को पार करना पड़ा। पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में दाखिल होने के आरंभिक दौर से लेकर अब तक कई महिलाओं को अपने जान-मान और परिवार के सम्मान की बलि देनी पड़ी। 25 जुलाई, 2000 को रायपुर के बिजली गांव की लता साहू को 'चुड़ैल'
घोषित कर नग्न अवस्था में उसकी परेड कराई गई। उसका कसूर केवल इतना था कि उसने गांव के एक नेता के खिलाफ सरपंच का चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाई थी। जनवरी, 2003 को मध्य प्रदेश के बेतूल जिले में आदिवासी सरपंच गुरबरे ल ने अपने को आग लगा ली, कारण यह था कि वह भ्रष्ट अधिकारियों से लड़ने में असमर्थ रही। गुरबरेल ने गांव में शुरू हुए कामों को जल्द खत्म करने के लिए स्वयं पैसा इकट्ठा कर खर्च किया था, लेकिन जब सरकारी अधिकारियों को उन कामों का पैसा उसे वापस भरना पड़ा तो वे उसमें अपना 'कट' मांगने लगे। यह उसे मंजूर नहीं था। पैसा न लौटा पाने की शर्मिंदगी से बचने के लिए उसे स्वयं को आग लगाने को मजबूर होना पड़ा। महिलाओं की हिम्मत और संघर्ष की रोंगटे खड़े करने वाली ऐसी कईं दास्तां हैं। ऐसी मिसालें भी कम नहीं जो बताती हैं कि महिलाओं ने किस प्रकार बिना हिम्मत हारे घर-परिवार के स्तर पर लोगों की मानसिकता बदली औ र साबित किया कि सत्ता का विकेंद्रीकरण जमीनी स्तर पर सफलतापूर्वक काम कर सकता है।
वर्ष 2002 में उड़ीसा के अंगुल जिले से वार्ड सदस्य बनने वाली गोबेराग्राम पंचायत की 38 वर्षीय लाबानी भुक्ता चुनाव लड़ने से पहले अपने श्रंगार की बिंदी-कंघी तक खरीदना नहीं जानती थी। चुनाव का फॉर्म भरने से लेकर उसका चुनावी अभियान चलाने तक का काम उसके पति ने किया। गांव के नेताओं से मिलने भी वही जाता था, लेकिन चार बरसों बाद लाबानी ने न केवल प्रशासन की बारीकियों को समझा, बल्कि घरवालों का विश्वास जीतने में भी सफल रही। दो साल में हालत इस प्रकार बदली कि उसका पति कोई भी काम करने से पहले उसकी सहमति लेने लगा। उड़ीसा की ही शांति लता ने जब पंचायत का चुनाव लड़ा, तो उसे ससुराल वालों का विरोध झेलना पड़ा। उसके ससुराल वाले दकियानूसी विचारों वाले थे। एक बार जब वह साइकिल चलाकर ब्लॉक ऑफिस के कार्यालय गई तो उसके ससुर इतने नाराज हुए कि छह माह तक उन्होंने उससे बात नहीं की, लेकिन चार सालों में उनकी सोच में इस प्रकार बदलाव आया कि शांति जब भी पंचायत के काम से बाहर जाती तो उसके ससुर उसके बच्चों को संभालते। इसके अलावा, उसकी सास भी अब उसके घर से बाहर के कामों में हाथ बंटाने लगी।
जंग खाई सोच
हकीकत है कि महिलाओं ने पंचायतों में चुने जाने के बाद पारिवारिक और प्रशासनिक समस्याओं से जूझना सीख लिया है। बहुत सी महिलाएं सीखने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि उनको अभी तक रबड़ स्टैंप समझने और उनके पतियों को 'सरपं च पति'
मानने और प्रचारित करने की प्रवृत्ति में कमी नहीं आई। महानगरों में पंचायतों में महिलाओं के संदर्भ में होने वाली किसी भी बहस में अकसर यह सवाल जरूर उठाया जाता है कि महिलाएं पंचायतों की बागडोर संभालने में असमर्थ रही हैं क्योंकि वे पंचायतों के कामों के लिए पुरुषों पर निर्भर हैं। यह वह सोच है जो महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने और उन्हें बराबरी का अधिकार देने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है। यह वह इलीट सोच है जो बॉलीवुड के किसी अभिनेता- अभिनेत्री के थोड़े से संघर्ष का महामंडन उसे स्टार बना देती है लेकिन ग्रासरूट स्तर पर अशिक्षा और अज्ञानता के बावजूद राजनीति में हर कदम पर संघर्ष करने वाली इन महिलाओं को सेलिब्रिटी का दर्जा नहीं दे पाती। जिस समाज में महिला लंबे समय से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई हो, जहां उसे जीने का अधिकार भी पुरुषों के रहमोकरम पर हो, वहां की महिलाओं से दो दशकों में राजनीति के पेचीदा खेल में महारत हासिल करने की उम्मीद करना नाइंसाफी है। क्या महज दो दशकों में देहरी से पहली बार बाहर आई महिलाओं में आया बदलाव पर्याप्त नहीं? देश के विभिन्न राज्यों के कईं गांवों का दौरा करने के बाद मैंने पाया कि जहां सैकड़ों मिसालें इन महिलाओं की असमर्थता को बयान करती हैं वहीं हजारों मिसालें ऐसी भी हैं जहां महिलाएं मदरे के बराबर या उनसे बेहतर ग्रासरूट गवर्नेंस को अंजाम दे रही हैं। विपरीत हालात के बावजूद उनके काम करने की जीवट इच्छा आलोचकों के लिए सबसे बड़ा सबक है। माया कावड़ी सरपंच बनने से पहले यह नहीं जानती थी कि उसके गांव या आसपास के गांवों में नवजात बच्चों की मौत का क्या कारण है। अकसर उसे इन छोटे बच्चों की मौतें विचलित करतीं। जब वह सरपंच बनी तो उसे पता चला कि ऐसी मौतों का कारण बच्चों को पूरा पोषण न मिलना है। वह इस बात से भी परेशान थी कि उसके राज्य में कुपोषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा काफी अधिक है। सरपंच बनने के बाद उसने सबसे पहले अपनी पंचायत के दोनों गांवों में खुली आंगनवाड़ियों में नवजात बच्चों को नियमित रूप से पोषित आहार प्रदान करने की व्यवस्था कराई। उसके बाद स्कूलों में मिलने वाले मिड-डे मील और गर्भवती महिलाओं को पर्याप्त देखरेख मिलने पर ध्यान दिया। आज माया की पंचायत के गांवों में कोई भी कुपोषित नहीं। छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके की पंचायत माकड़ी खूना की सरपंच माया महिलाओं के लिए शौचालय के महत्व को भी बखूबी समझती है। इसलिए पिछले साल फरवरी में चुनाव जीतने के बाद उसने गांव में उन घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाया, जिनके घरों में शौचालय नहीं थे। माया के मुताबिक, हालांकि उसकी पंचायत के दोनों गांवों में 342 परिवार हैं लेकिन केवल 150 घरों में ही 'निर्म ल ग्राम योजना' के तहत शौचालय बने थे इसलिए सरपंच बनते ही उन्होंने शेष घरों में भी शौचालयों का निर्माण कार्य शुरू करवाया, क्योंकि इससे सबसे अधिक परेशानी महिलाओं और बच्चों को है। वह बेहद विश्वास के साथ आश्वस्त करती है कि वर्ष 2012 तक सभी घरों में शौचालय बन चुके होंगे।
धमतरी की 1200 लोगों वाली कन्हारपुरी पंचायत में पिछले साल शीला यादव चुनाव जीती। सरपंच बनते ही उसने मनरेगा (महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना) के तहत गांव की महिलाओं को काम दिलाने का काम किया। सुशीला के गांव में 80 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं। इनमें से अधिकतर महिला-पुरुष बेरोजगार थे। पंचायत की बागडोर संभालने के बाद सुशीला ने सबसे पहले रोजगार गारंटी योजना की विस्तृत जानकारी हासिल कर गांव में नए कामों को शुरू करवाया। इससे गांव के कईं लोगों को काम मिला। सुशीला इस बात से खुश है कि वह गांव की महिलाओं को काम दिलाने में कामयाब हो सकी। यही नहीं, वह गांव के हर परिवार तक अनाज पहुंचाने के लिए गांव में राशन की दुकान खुलवाने की कोशिश में भी जुटी है। सुशीला बताती है कि अपने चुनाव अभियान के दौरान उसने गांव के लोगों से वादा किया था कि वह गांव में राशन की दुकान खुलवाएगी। मध्य प्रदेश के सिहोर की गीता राठौर पिछले कईं बरसों तक महिलाओं को घरेलू हिंसा, शराब, बाल विवाह और जुए के खिलाफ लड़ने की सीख देती रही। उसकी कोशिशों के चलते दो बार लगातार उसकी पंचायत को 25 हजार और 50 हजार का पुरस्कार भी मिला।


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