Thursday, April 28, 2011

बंदिशों की चुभन


लड़कियों के मामले में अपना समाज कितनी लिजलिजी सोच रखता है, यह बार-बार याद दिलाने की जरूरत क्यों पड़ती है? एक करोड़ दस लाख परित्यक्त बच्चों में 90 फीसद लड़कियां होती हैं। सिंगल मदर या कुंवारी मांओं को लेकर उपेक्षाभाव रखने वालों से यह सवाल पूछा जाना जरूरी है कि वैवाहिक संबंधों की मजबूत बेड़ियां भी अपनी नन्हीं बच्चियों को सुरक्षा क्यों नहीं दे पा रही हैं? केवल मादा भ्रूणहत्या को लेकर बयानबाजी करते रहने, पोस्टर छापने, अखबारों में सरकारी विज्ञापन देने से बच्चियों को बचाने का 'ढोंग' करने वाली सरकार को यह क्यों नजर नहीं आता? उसी समय सुप्रीम कोर्ट मान रहा है कि हमारी इतनी ज्यादा लड़कियां परिवारवालों द्वारा छोड़ दी जाती हैं। खोये हुए बच्चे भी अपने यहां तभी मुस्तैदी से ढ़ूंढे जाते हैं, जब वे संपन्न घरों से आते हों। गरीब के बच्चे को ढ़ूंढ निकालने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं होती। उनके गुम हो जाने पर ना तो बड़ी प्रेस कांफ्रेस होती है, ना ही मीडिया कैमरों के साथ उमड़ता है। आज भी अपने यहां बेटी का पैदा होना अनचाहा ही होता है। बिहार और राजस्थान के तमाम इलाकों में नवजात लड़कियों को मारने वाली दाइयों का दबदबा रहा है। कुछ पैसों के लोभ में ये पैदा होते ही बच्ची को मारने की विशेषज्ञ होती हैं। दोष इन दाइयों का नहीं है, ये तो मात्र घरेलू प्रसव विशेषज्ञ होती हैं, अपनी गरीबी और लोभ के चलते ये चांडाल का काम करने लगती हैं। मेरा मानना है, इनको कोसने से समाज नहीं बदल सकता। जैसे 'बेटी बचाओ' का स्लोगन बच्चियों को मरने से नहीं रोक पाया, उल्टे उसने बच्चियों के त्याग का एक और संवेदनहीन तरीका अख्तियार कर लिया है जिसमें परिवार खुद को जान लेने के पाप से मुक्त मान लेता है। बस में , रेल-यात्रा के दौरान, मे ले-ठे ले में छोटी लड़कियों को छोड़ कर भाग निकलने वाले मां-बाप को आप क्या कहेंगे? दकियानूस विचारधारा और सामाजिक ढोंगों ने मानसिकता ही इतनी घटिया कर दी है कि संवेदन-शून्यता हावी होती जा रही है। बेटे की चाह में लड़कियों की लाइन लगाने वाले दंपति सिर्फ नासमझ ही नहीं होते, उनके भीतर की भावनाएं भी मर चुकी होती हैं। मादाओं के प्रति होने वाली उपेक्षा जब वैश्विक पटल पर घृणित-दृष्टि से देखी जाती है तो घबरा कर सरकारें उपाय ढूंढने का ढोंग करने लगती हैं। मादा भ्रूणहत्याओं को रोकने के नाम पर सरकार पैसा ही नहीं लुटा रही, विदेशों से भी मोटी सहायता खींची जाती है, जबकि असलियत तो यही है कि लड़कियों को गर्भ से निकाल कर ना मारा जाए तो भी जन्मते ही गला घोंट दिया जाता है या फिर ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। दो-चार औरतों की तरक्की को नमूने के तौर पर पेश कर अपना फेस सेव करने वालों की अक्ल मारी गई है, उनको यह सब हकीकत नहीं नजर आती। जो परिवार लड़कियों को कहीं छोड़ने का साहस नहीं कर पाते, वे बहुत छोटी ही उम्र में उनको ब्याहते हैं ताकि उनका बोझ कुछ कम हो सके। इनको स्कूलों में नहीं डाला जाता, अक्षर ज्ञान तक नहीं कराया जाता। छोटी ही उम्र में चूल्हा फूंकने, जलावन ढ़ूंढ कर लाने, दूर किसी सार्वजनिक कुएं/जलाशय से पानी ढोकर लाने या ढोर चराने की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। घर के छोटे बच्चों को पालना इनका नैतिक दायित्व बन जाता है, रोटी पकाने, बासन धो ने, घास छीलने को ही ये अपना मनोरंजन समझ लेती हैं। खबर है, मेरठ में एक गरीब बाप अपनी दो लड़कियों को घर में कैद किये है, यह सुनकर अजीब लग सकता है पर उसकी बेचारगी इस घिनौनी-व्यवस्था का नमूना है। वह कहता है कि बच्चियां विक्षिप्त हैं और इलाज कराने के लिए उसके पास पैसा नहीं है इसलिए वहशी दरिंदों से इनको बचाने का उसको यह सस्ता-टिकाऊ तरीका लगा। परिवारों की प्रशस्ति करने वालों और पश्चिमी समाज का मखौल उड़ाने वालों से पूछा जाना चाहिए कि सभ्य समाज की हकीकत यही है क्या? यह सरकार की लाचारी है कि वह दुनियाभर में अपनी सस्ती चिकित्सा सुविधाओं के लिए प्रसिद्धि पा रही है, पर गांव/कस्बे में लोग पैसों के अभाव में लाइलाज ही मरते जा रहे हैं। बेटी को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी के लिए इसी बाप ने अपनी बेटी को कैद नहीं कर रखा है। संभ्रांत दिखने वाले पढ़े-लिखे, शहरी भी अपनी नन्हीं बच्चियों को दरिंदगी से बचाने के लिए कुछ ऐसा कर रहे हैं। इनमें से कोई भी अन्ना हजारे की तरह आंदोलन नहीं करना चाहता। कोई जुबान नहीं हिलाता पर सबको अपनी बेटी की फिक्र है। कहीं सुरक्षाकर्मी बने दादाजी बस स्टॉप तक जा रहे हैं, कहीं मां धूप में झुलस रही है। खेल का मैदान हो या परिवहन, मां की चौकसी बढ़ती जा रही है। वह बच्ची से उसकी स्वतंत्रता किसी जालिम की तरह छीन रही है। समाज में छुट्टा घूमते बलात्कारी भेड़ियों से अपनी बच्ची को बचाये रखने का यह भय किस समाज को रच रहा है? बच्चों के एक बहुत अच्छे स्कूल के गेट पर हर रोज मैं एक मां को सुबह और दोपहर सीखचों के पार से अपनी बिटिया को ताकते देखती हूं। स्कूल की बिल्डिंग में जब तक वह घुस ना जाए, तब तक वह ऐसे ही एकटक उसको ताकती नजर आती है, दोपहर को छुट्टी से कुछ पहले ही आकर वह गेट पर मुस्तैद हो जाती है। सालों से यह नजारा मैंने देखा है और इस व्यवस्था के घिनौनेपन से घृणा से भरा पाया है खुद को, जहां अपने बच्चे को सुरक्षित माहौल नहीं दे पा रहे हम। बेटी की 'बॉडी गार्ड' बन चुकी इस मां की भावनाओं पर कोई संदे ह नहीं कर रही मैं, पर कोई यह भी सोचेगा कि उस बच्ची की गुलामी, सुरक्षा के नाम पर बंधनों की यह जकड़न उसको भीतर से कितना कमजोर कर रही है? सिर्फ गरीब और साधनहीन मांओं की ये दिक्कतें नहीं हैं, यही झेलना पड़ता है, विशाल बंगले में सुरक्षा गाडरे और नौकरों से चाक-चौबन्द मां को भी। आरुषी और हेमराज की मौत के पीछे मां तलवार की घोर लापरवाही को मैंने कभी नकारा नहीं है। युवा होती बेटी को पुरुष नौकर के भरोसे छोड़ना किसी भी एंगल से सामान्य नहीं कहा जा सकता, तब भी जब वह सालों से आपका विश्वसनीय रहा हो। स्त्री-पुरुष के दरम्यान कब- क्या घटित हो जाए, कहा नहीं जा सकता पर पुरुष के भीतर का हैवान कन्या पर कभी भी सवार हो सकता है, इस पर डाउट नहीं किया जा सकता! छोटी बच्चियों पर होने वाले यौनाक्रमणों के अपराधी 80 फीसद जान-पहचान वाले या रिश्तेदार ही होते हैं। लेकिन पुरुषों की इन घिनौनी मानसिकता से बच्चियों को बचाने के लिए ना तो बेड़ियां कारगर हो सकती हैं, ना ही ताले। पाबंदियों से उसका आत्मविश्वास और साहस कुचला ही नहीं जा रहा, उसको इन्हीं बच्चियों की तरह बेबस भी बनाया जा रहा है, जिनको त्याग दिया जाता है। ये बेसहारा छोड़ दी गई उपेक्षित हैं, अकेली हैं, इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। और सुरक्षित रखने के नाम पर जिनकी मानसिक प्रताड़ना चल रही है, दम घुट रहा है। निजता को चूर-चूर किया जा रहा है। दोनों के मन एक बराबर कमजोर बनाये जा रहे हैं। दोनों ही घुटन में हैं। दोनों ही असहाय और बेचारगी जी रही हैं। इन सबकी मुक्ति के उपाय कौन करेगा? किसको फिक्र है इनकी? इस भयानक समाज में इन्हीं दरिंदों के बीच उसको सारा जीवन काटना है। जैसा पालन किया जा रहा है, वह तो इनको हमेशा किसी मजबूत सहारे को तलाशने को छोड़ने वाला है। आश्रित बना रहा है इनको। मानसिक रूप से भी और दैहिक रूप से भी। यह है इस मक्कार समाज का सच, जहां कुछ लोग बेटी को त्यागने को बेबस किये जा रहे हैं तो कुछ मानसिक/भावनात्मक रूप से उसका दम घोटने को मजबूर हैं। बच्चियां परित्यक्त हों या पाबंदियों तले जीने को मजबूर, इसका दोषी है यह समाज, जिसे कुछ लोग सभ्य कहते शर्माते नहीं। कुछ मां-बाप घबरा कर उन्हें फुटपाथ पर या कचरे ढेर में फेंकने को मजबूर हैं तो कुछ हर वक्त उन पर छतरी के तरह छाये रहने को मजबूर। ऐसे में कैसे होगा उनका विकास। कैसे आयेगा उनको पंख फैला कर उड़ना। कैसे सीखेंगी वे अपनी शख्सियत को तराशना। फिर बहाने करेंगे, बेटे की दीवानगी के। लैंगिक विभेद के जितने बारीक और खतरनाक कांटें अपने यहां बिछे हैं, उतने शायद ही किसी समाज में होंगे। जिनको ढांपने का ढोंग करने वाले कभी उस पीड़ा को समझ भी नहीं सकते, जिनकी चुभन नन्हीं बच्चियां और उनके परिवार हर रोज झेलते हैं।



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