Wednesday, May 4, 2011

महिलाओं पर चुनावी छींटाकशी


 पश्चिम बंगाल के भद्रमानुष अनिल बसु ने तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी पर हाल में जो टिप्पणी की, उससे कई सवाल सामने आ खड़े हुए हैं। सीपीएम के सांसद अनिल बसु ने टिप्पणी की थी कि जिस तरह सोनागाछी (कोलकाता की सेक्स वर्कर बस्ती) में सेक्स वर्कर्स बड़ा ग्राहक मिलने पर छोटे ग्राहक की ओर नहीं देखतीं, उसी तरह तृणमूल कांग्रेस को भी बड़ा ग्राहक मिल गया है। यहां बड़े ग्राहक से उनका अभिप्राय अमेरिका से था, क्योंकि कुछ दिन पहले मीडिया में यह खबर छपी थी कि अमेरिका ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनना देखना चाहता है और अपने हित साधने के लिए वह ममता बनर्जी की पार्टी को फंड भी दे रहा है। सातवीं बार सांसद चुने गए अनभुवी नेता ने ममता बनर्जी पर राजनीतिक हमला करने के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया उसे लेकर उनकी काफी आलोचना हुई। उनके इस बयान से पश्चिम बंगाल की महिला मतदाता काफी गुस्से में हैं और सोनागाछी की करीब दस हजार सेक्स वर्कर्स ने तो कोलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को एक खुला पत्र भेजकर सांसद अनिल बसु के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है। इन महिलाओं ने आरोप लगाया है कि उनकी पहचान एक औरत होने के नाते है और सांसद अनिल बसु ने बयान देते वक्त उनके इस सम्मान को ठेस पहुंचाई है, जिससे साफ है कि उनके मन में महिलाओं के प्रति कोई आदर नहीं है। दरअसल पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अनिल बसु की महिलाओं को अपमानित करने वाली ऐसी शब्दावली से मा‌र्क्सवादी पार्टी, सरकार व विचारधारा को होने वाले नुकसान को भांपते हुए हरकत में आए और उन्होंने मगरमच्छ के नकली आंसू बहाते हुए माफी मांगी। पर इस भद्रलोक में जब भी वामपंथी महिलाओं को अपमानित करते हैं तो देश में उसकी तीखी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है। हालांकि वामपंथी पार्टियां खुद को दूसरी राजनीतिक पार्टियों से अलग व ज्यादा प्रगतिशील राजनीतिक दल होने का दावा करते हैं। संसद व विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के प्रबल पैरोकार के रूप में अपनी छवि बनाने वाले भी राजनीति में महिलाओं को निशाना बनाते वक्त खुद को दूसरों से अलग नहीं रख पाए। एक तरफ इस राज्य में महिला मतदाता चुनावी जनसभाओं में उम्मीदवारों से विकास व रोजगार को लेकर सवाल कर रही हैं और उनसे पूछ रही हैं कि पश्चिम बंगाल में महिलाओं को टैक्सी चलाने, रिक्शा खींचने और दुकान चलाने में पुरुषों के बराबर हक मिलेगा या नहीं तो दूसरी तरफ अनिल बसु की यह टिप्पणी निराश करने वाली है। केंद्र शासित राज्य पुडुचरी में भी एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि उनकी पार्टी महिलाओं को बच्चों को छोड़कर सब कुछ दे सकती है। दरअसल, चुनाव के दौरान राजनेता महिला उम्मीदवारों के औरतपन को खास निशाना बनाने लगे हैं। देश की आजादी के बाद के यदि चुनाव इतिहास को देखें तो पता चलता है कि वर्ष 1999 से पहले राजनीतिक दल स्ति्रयों की मर्यादा से जुड़े मुद्दों को चुनाव में उछालने से बचते थे। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में भी विपक्षी नेताओं ने इंदिरा गांधी की निजी जिंदगी पर टिप्पणी करने की बजाय उनकी तानाशाहीपूर्ण कार्यशैली को ही निशाना बनाया था। जॉर्ज फर्नाडीज तक ने उस समय संयम बरता, लेकिन इस समाजवादी नेता का यह संयम उस समय टूट गया जब उन्होंने 1999 में कर्नाटक के वेल्लारी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर एक चुनाव रैली में टिप्पणी की कि सोनिया गांधी का इस देश के प्रति क्या योगदान है, सिवाय इसके कि उन्होंने देश को दो बच्चे पैदा करके दिए। बदले में कांग्रेस पार्टी के एक नेता ने इस समाजवादी नेता की महिला मित्र पर निशाना साधा था। दक्षिण भारत में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। डीएमके नेता करुणानिधि ने कहा था कि यदि जयललिता अपनी राजनैतिक रैली में गाना गा सकती हैं तो अगली बार वह डांस करेंगी। 2004 के आम चुनाव में डीएमके ने अपने मुखपत्र में जयललिता के लिए तमिल शब्द मरलडी का प्रयोग किया था, जिसका मतलब बेऔलाद औरत है। इसे जयललिता की तौहीन समझ उनकी पार्टी के लोगों ने बदला लेने के लिए करुणानिधि के परिवार की एक औरत को ही निशाना बनाया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी 2009 के आम चुनाव में उस समय खासतौर पर फोकस हुए, जब उन्होंने कांग्रेस के लिए कभी बुढि़या तो कभी गुडि़या शब्द का इस्तेमाल किया था। दरअसल, नरेंद्र मोदी जोश में यह भूल गए कि वह परोक्ष रूप से सोनिया गांधी पर वार करते हुए जिस शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, उसे लेकर महिलाएं किस तरह अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगी। ऐसा पुरुषवादी राजनीतिक विमर्श स्ति्रयों के लिए अपमानजनक और आपत्तिजनक है। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष व पूर्व केंद्रीय रेलमंत्री लालू यादव ने तो भाजपा की नेता सुषमा स्वराज को पूतना तक कह डाला था। फिल्मी अदाकारा जयप्रदा पर भी निजी कमेंट किए गए। ऐसे लोगों की स्त्री विमर्श सीमा का दायरा बहुत ही संकीर्ण है, लिहाजा इनका बयान भी स्त्री बदन की आसपास ही टिका रहता है। यह लोग एक स्त्री से परे जाकर उसकी राजनीतिक क्षमता का ईमानदारी से आकलन नहीं करते। पुरुष नेताओं को लगता है कि आज भी महिलाओं को राजनीति से दूर रखने के लिए सबसे ज्यादा घातक व धारदार हथियार उसकी निजी जिंदगी ही हैं। मशहूर फिल्म आंधी में भी इस विषय को उठाया गया था। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव में महिला उम्मीदवारों को इस तरह अपमानित करना उसकी साख पर धब्बा लगाना ही है। एक तरफ चुनाव में मतदान करने वाली महिला मतदताओं की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर महिला उम्मीदवारों की भी। अब महिलाएं राजनीति को कैरिअर के रूप में भी देख रहीं हैं। पंचायत व नगर निगम चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का संकेत है। संसद व विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग से भी माहौल बना है। 2004 में 45 महिलाएं चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंची थी जबकि 2009 में 59 महिला सांसदों ने जीत हासिल कर एक रिकॉर्ड बनाया। बिना किसी आरक्षण नीति के महिलाएं आगे बढ़ रही हैं तो उनकी हिम्मत बनाए रखने के लिए ऐसा माहौल बनाने की दरकार है, जो उन्हें आगे ले जाए। परिपक्व हो रहे भारतीय लोकतंत्र का यह एक दुखद पहलू ही है कि राजनीति करते समय पुरुष राजनेता उन्हें राजनीतिज्ञ न समझकर महज एक औरत समझ बैठते हैं। सीपीएम के अनिल बसु ने भी ऐसी ही अशिष्ट टिप्पणी कर भले ही सुर्खियां बटोरी हों मगर उनका नाम महिलाओं को अपमानित करने वाले राजनेता वाली सूची में जरूर दर्ज हो गया है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

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