Thursday, May 19, 2011

किसकी जरूरत हैं चीयरलीडर्स


विश्वकप फुटबॉल मैचों से अधिक चर्चित हुई चीयरलीडर्स के साथ घटी वह घटना जो आइपीएल क्रिकेट के जरिए लोगों तक पहुंची है। कुछ समय पहले एक सांवली रंग की एक लड़की ने बताया कि किस तरह उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे टीम से हटा दिया गया। अब ताजा विवाद चीयरलीडर्स की टीम में शामिल एक दक्षिण अफ्रीकी युवती के ब्लॉग के बहाने शुरू हुआ है। इस युवती ने अपने ब्लॉग में अपने आपबीती का बयान किया है। उसने लिखा है कि वह वही लिख रही है, जो उसने महसूस किया है। आइपीएल चीयरलीडर गैब्रिएला पास्कलोट्टो को खेल के दौरान इस घटना के तत्काल बाद दक्षिण अफ्रीका वापस भेज दिया गया। उसने खिलाडि़यों के अभद्र बर्ताव के बारे में विस्तार से बताया है कि चीयरलीडर्स को लोग पीस ऑफ मीट यानी मांस के लोथड़े की तरह देखते हैं और चलते-फिरते पोर्न की तरह इस्तेमाल करते हैं। मालूम हो कि आइपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग के बहाने पिछले चार साल से कुछ अलग ढंग से क्रिकेट के नए फॉर्मेट वाले खेल का सिलसिला शुरू हुआ है। इसमें देश-विदेश के खिलाड़ी खेलते हैं और अलग-अलग खिलाडि़यों की महंगी बोली लगती है। इसी के साथ हम लोग क्रिकेट के मैदान पर चीयरलीडर्स से रू-ब-रू हुए हैं। खेल शुरू होने के पहले अलग ढंग से परिधान में सजी इन युवतियों की प्रस्तुतियां एक तरह से क्रिकेट के खेल की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए होता है। निश्चित ही यह कोई पहली घटना नहीं होगी और न ही मामला सिर्फ गैब्रिएला तक सीमित होगा। देखने और सुनने में जो आया है उसके मुताबिक खिलाड़ी, दर्शक तथा खेल से जुड़े अधिकारी और कर्मचारी भी चीयरलीडर्स के साथ छूट लेने में कतराते नहीं हैं, क्योंकि उनकी नियुक्ति ही उत्साहवर्धन और मनोरंजन के लिए होता है। इस चीयरलीडर के खुलासे ने परदे के पीछे ऑफ द पिच पार्टी की संस्कृति से पर्दा उठा दिया है। वीआइपी के रूप में एकत्र लोग कैसा आनंद उठाते हंै इसकी झलक इस आत्मकथा टाइप बयान में देखी जा सकती है। वह कहती है कि ये नशा करते हंै और उससे उन्हें आसानी से हासिल करने की इच्छा रखते हैं। इस बारे में आयोजकों का कहना है कि उन्हें उनके काम और भूमिका के बारे में स्पष्ट रूप से पहले ही बताया गया होता है और ताली एक हाथ से नहीं बजती। चीयरलीडर्स खुद भी मर्यादा तोड़ती हैं। संभव है कि इस बात में भी सच्चाई हो फिर भी मुद्दा अपनी जगह पर कायम है, जो वहां उपस्थित पुरुषों के नजरिये और कंुठित मानसिकता को कठघरे में खड़ा करता है। मूल प्रश्न यह है कि खेलों को लोकप्रिय बनाने के लिए चीयरलीडर्स की जरूरत ही क्यों पड़ी? जिसकी खेल में रुचि है वह खेल देखेगा इससे काम क्यों नहीं चला? इस पूरे घटनाक्रम पर सेलेब्रिटी लोग चुप हैं फिर चाहे वह शिल्पा शेट्टी हों, प्रीति जिंटा हों या नेस वाडिया। इस खेल महकमे से कुछ लोग मीडिया को बताते हंै कि वे लड़कियां भी वयस्क होती हंै और कांट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करते समय उनको यहां के वातावरण के बारे में अच्छी तरह से सब कुछ पता होता है। भारत के कुछ खास शहरों में खासतौर पर उत्तर भारत में लड़कियों के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार आम बात है। पिछले साल आइपीएल पार्टी में कुछ आम दर्शक भी घुस गए थे तथा जिसे लेकर काफी बवाल मचा। यह भी कहा जाता है कि जो विदेशी चीयरलीडर्स होती हैं उनसे लोग ज्यादा छूट लेते हैं, क्योंकि उनका पहनावा अलग होता है और भारतीय पुरुषों को वह ज्यादा आकर्षित करती हैं। पिछले साल एक मॉडल ने कहा कि रैंप का तख्त जानबूझकर ऊंचा रखा गया था ताकि दर्शक इन्हें ठीक से देख पाएं। इसे आयोजकों ने बकवास आरोप बताया था। एक चीयरलीडर ने व्यंग्य में इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार को बताया कि आप क्या सोचते हैं कि दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में मैच में लोग सिर्फ सीटी बजाते हैं। कहने का तात्पर्य यह था कि लोग तरह-तरह की अश्लील भंगिमाएं और कमेंट भी करते हैं। याद रहे कि दो साल पहले भारत-ऑस्ट्रेलिया के एकदिवसीय मैच में चीयरलीडर्स की तरह ड्रिंकग‌र्ल्स का जादू भी दर्शकों पर छा गया। ये लड़कियां इंटरवल के दौरान ड्रिंक्स की ट्रॉली लेकर मैदान में पहुंचती हैं, फिर खिलाड़ी के साथ दर्शक भी निहारते है इन्हें। उड़ीसा में कलिंगसेना के लोगों ने चेताया था कि कटक में होने वाले मैचों में चीयरग‌र्ल्स और ड्रिंकग‌र्ल्स तंग कपड़ों में नहीं, बल्कि साड़ी में आएं। पोशाक चाहे साड़ी हो या स्कर्ट, उससे औरत की पोजिशन या उसके सम्मान पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। कपड़ों के पीछे के शरीर के बारे में ही लोग सोचते-विचारते रहते हैं। किसी भी कपड़े में लिपटी इन लड़कियों की उम्र 18 से 20 वर्ष रखी जाती है यानी दर्शकों को कमनीयता भी चाहिए। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ, जब बैडमिंटन व‌र्ल्ड फेडरेशन की तरफ से महिला खिलाडि़यों के लिए एक नया ड्रेस कोड का निर्देश जारी किया गया। इसके तहत अब उन्हें स्कर्ट में ही खेलना अनिवार्य होगा। ऐसा करने के पीछे फेडरेशन की तरफ से यही कारण बताया गया था कि वे बैडमिंटन के खेल को अधिक आकर्षक बनाना चाह रहे हैं। अगर अखबार में इस संबंध में जारी रिपोर्टो को देखें तो वह टेनिस के तर्ज पर इसे अधिक सेक्सी और ग्लेमरस बनाना चाह रहे हैं। इस पर गौर करने की बात थी कि आकर्षक खेल के लिए अच्छा खेल खेलना मायने रखता है या खिलाडि़यों द्वारा पहना जाने वाला पोशाक मायने रखती है। इस सवाल पर फेडरेशन का कहना था कि इसके द्वारा बैडमिंटन के प्रशंसकों और दर्शकों की संख्या बढ़ेगी तथा स्पॉन्सरशिप भी बढ़ेगा यानि शोहरत और आय के लिए खेल ही नहीं खिलाडि़यों के आकर्षण को भी बेचा जाना जरूरी है। वापस यदि हम चीयरलीडर्स की चर्चा पर लौटें तो यहां इन लड़कियों का ही नहीं, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति का भी जलवा है। इसमें सब कुछ उपभोग के लिए होता है और पितृसत्ता भी उन्हें उपभोग की वस्तु ही मानती है। वह यदि औरतों को बराबरी और गरिमा का दर्जा देने लगे तो अपनी ही कब्र खोदेगी। अक्सर कई लोग इस भ्रम के शिकार होते हैं कि जो लोग औरत के भारतीय परिधान या भारतीय परंपरा व संस्कृति की बात कर रहे हैं वे शायद औरत को सम्मानित जगह दे रहे हैं। दरअसल, दोनों ही प्रकार के सोच वालों के लिए औरत का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इनकी नजर में वो बराबरी की हकदार नहीं है। एक के लिए वह घर-परिवार में कैद निजी इस्तेमाल की वस्तु है तो दूसरा मुफ्त बाजार में परोसने की हिमायत करता है। औरत की असली मुक्ति तो वहीं होगी, जिसमें वह न देवी समान हो न दासी समान और न ही बिकाऊ माल के बराबर, बल्कि वह स्वतंत्र हैसियत वाली बराबर की इंसान हो, जिसमें स्त्रीसमुदाय का होने का कारण वह किसी प्रकार के सामाजिक गैर-बराबरी की शिकार न हो। ऐसा समाज निर्मित किया जाना बाकी है और जो इसी समाज में मौजूद सही विचार और सोच वाले स्त्री-पुरुष मिलकर बनाएंगे। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


No comments:

Post a Comment