Thursday, May 5, 2011

मजबूरी आज्ञा पालन की


सबसे बड़ी शादी से औरतों के पक्ष में जो सबसे बड़ी बात निकली, जिसकी किसी ने र्चचा भी नहीं की, वह है ‘ओबे’ (आज्ञा पालन) ना करने की जिद। नयी लड़की का नया आत्मविश्वास है यह। जिसके भीतर उस सामंती, खांटी कट्टरवादी राज-परिवार का हिस्सा बनने का गुरूर हो ना हो, पर इतना है कि उसने अपनी मनवा ली। डायना ने प्रिंस चार्ल्स से कितना ही स्वीकारा हो कि वह उनकी आज्ञा आजीवन मानेगी पर उसने भी चुनौतियां दीं, जबर्दस्त तरीके से दीं और खूब खुल कर दीं। चार्ल्स की दूसरी स्त्रियों में अतिरिक्त रुचि और डायना का अति भावुक स्वभाव इस ‘आज्ञाकारिता’ की सरहदें लांघता हुआ बहुत दूर निकलता गया। संवेदनाओं को समझने के लिए किसी का राजशाही में पैदा होना जरूरी नहीं, संवेदनाएं स्वाभाविक/प्राकृतिक गुण होते हुए भी अनूठी होती हैं, जिनको समझ पाना हंसी-खेल नहीं। ये ज्वार-भाटा की तरह उठती हैं, कभी भी, कहीं भी। किसी शेड्यूल या समय-सीमा में इनको नहीं बांधा जा सकता। कोई ’आज्ञा’ इन पर लगाम नहीं लगा सकती। शुष्क हाव-भाव वाले चेहरे-मोहरे की तरह ही चार्ल्स का व्यवहार भी रूखा ही रहा। नतीजतन, डायना ‘ओबे’ के वायदे पर बंधी ना रह सकी और धीरे-धीरे इसको रौंदती हुई बहुत आगे चली गई। राजपरिवारों में जो चोरी-चुपके होता रहा था, वह सब डायना ने बेहद उन्मादी रूप में करने का जोखिम उठाया। जो डायना कर रही थी, वह सब महारानियां खानसामों और मुनीमों के साथ खूब करती रही थी, पर जो कदम डायना ने उठाया, वह बिंदास था। भय-मुक्त और चुनौती देने वाला। भले ही यह सौम्य प्रतिरोध नयी दुल्हन के स्त्रीवादी वर्चस्व के झंडे गाड़ने में सफल नहीं हो पाया, पर उसका आनंद लेने वाली उसकी मरहूम सास के आत्म-विश्वास को लेकर हमेशा मीडिया नतमस्तक रहा। पुरुष के पदचिन्हों पर चलने वाली कसमें और पति परमेश्वर की आज्ञा को शिरोधार्य करने वाले वायदों से औरतों की ‘मानसिक गुलामी को लगातार सींचा’ जाता है। विवाह के दौरान ’आज्ञा‘ मानने की यह कसम कुछ वैसे ही है, जैसे हिन्दू वैदिक परंपरा में पति की हर बात को मौन- स्वीकृति देने की रीति। हर कदम पर उसका साथ देने का वायदा। कुतर्की कहेंगे, यह दुतरफा होता है पर व्यावहारिक तौर पर तो औरत को वही करना/मानना है जो पति की आज्ञा होती है। आम आदमी से गुलामों की तरह पेश आने को अपनी शान समझने वाले राजशाही परिवार के आगे आज्ञा ना मानने की चुनौती देने की हिम्मत करने वाली यह लड़की शक्ति का प्रतीक है। यह सिर्फ बहू ही नहीं, क्रांति- गाथा लिखने का साहस रखने वाली नयी सोच भी साबित हो सकती है। जरा ठहरिए, समाज को नियमों-कानूनों पर चलाये रखने के लिए आज्ञा-पालन जरूरी है, पर मेरा प्रतिरोध तो पुरुषों की आज्ञा को लेकर है क्योंकि यह भी सामंती सोच ही है। जहां पुरुष मान कर चलता है कि वह श्रेष्ठ है और परिवार की डोर उसके भरोसे ही है। आज्ञा मानना, फॉलो करना, छाया बन जाना तो तभी संभव है, जब परस्परता अपने चरम पर हो। जीवन में यह भाव ठूंसने से काम नहीं कर सकता। शतरे पर जीवन नहीं चलता, भले ही वह वैवाहिक नियमों की ही क्यों ना हों। किसी भी संबंध में जब समर्पणभाव होगा, तब वह स्वाभाविक रूप से आज्ञा पालन करने लगेगा, वरना तो ऐसे ही होगा कि अभिभावकों की तरह भय से आज्ञा मनवाने की परंपरा चलती रहेगी। सम्मान और समर्पण का तो नामोनिशान नहीं रह जाएगा। रिश्तों में समर्पण का भाव बहुत महत्वपूर्ण है, पर यह समर्पण दोनों तरफ से बराबर होगा तो स्वाभाविक रूप से आज्ञा दोनों देंगे और दोनों ही पालन भी करेंगे। जिस आत्मविश्वास के भरोसे केट ’ओबे‘ शब्द को हटवाने की बात भी जुबान पर ला पायी, वह बताता है कि उसको अपने दस बरसों के प्रेम पर कितना विश्वास होगा!
अपने यहां वैवाहिक रस्मों में ‘कन्यादान’ की परंपरा को चुनौती देने का साहस कितनी लड़कियां कर सकी हैं, यह तो अध्ययन का विषय है। कन्यादान को अपने यहां महादान प्रचारित किया गया है। लोगों की मान्यता है कि इसके बिना तो परलोक ही नहीं सुधर सकता। एक तरफ लड़कियों को दुत्कारते हैं, दूसरी तरफ महादान का लोभ भी है! यही है पारंपरिक सोच की असलियत। यही परंपराएं बताती हैं कि स्त्री और धन में कोई भेद नहीं। गौदान की तरह कन्यादान की महिमा-बखान से शास्त्र भरे पड़े हैं। पुत्र-मोह से बचने की बात करने वाले हमारे महाविद्वानों ने पुत्री-मोह की र्चचा ना करके यह पहले ही जता दिया है कि बेटी से मोह का सवाल ही नहीं उठता। वह तो दान-दक्षिणा की चीज है। आज यहां, कल वहां। यहां पिता की इज्जत, वहां पति की। उसकी अपनी ना तो कोई इज्जत है और ना ही कोई स्वाभिमान। वह तो गाय है। दान कर दी। इस खूंटे से उस खूंटे में बांध दिया। बांझ हो गई तो सड़क पर छोड़ दिया। दुधारू रही तब तक खूंटे से बांधे रखा। फिर लौटते हैं, इस आज्ञापालनकर्ता की तरफ। अंग्रेजी में मुहावरा है- आइदर रूल ऑर फॉलो (शासन करो या पालन)। पुरुषों ने बेहद चतुराई से इसको अपने अनुसार ढाल लिया- वी विल रूल एंड यू विल फॉलो। यानी हम शासन करेंगे, तुम पालन करो। जहां पुरुष शासक नहीं भी है, वहां यह भ्रम बनाये रहना चाहता है। वह गुलाम नहीं नजर आना चाहता। गुलामी उसके पौरुष को चुटहिल करती है। पौरुष को उसने ताकत से जोड़ लिया है। पावर मतलब पौरुष। शासनहीनता उसके पौरुष को चुटहिल करती है। वह शर्मसार सा महसूसता है। गुलाम पुरुष भी अपनी औरत पर वैसे ही हेकड़ी जमाता है, जैसे सामंती मानसिकता। जो पुरुष मन से जितना बड़ा गुलाम है, वह उतनी ही अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहेगा। भीतर से कमजोर पुरुष के लिए पहली शिकार होती है उसकी औरत। जिसको गुलाम बनाये रखने के लिए उसने बेहद चतुराई से उसकी आर्थिक रूप से कमजोर बना डाला। स्थायित्व ना रहने पाये, इसलिए उसको विवाह की आड़ में विस्थापित किया जाता रहा, जो बाद में परंपरा बन गई। विस्थापन का भय, स्थायी रहने का लोभ, उसको भीतर से भुरभुरा ही बनाये रहा। फिर आयी भावनात्मक कमजोरी की बात। अपने यहां औरतों का पालन-पोषण ही ऐसे होता है कि उनका कॉन्फिडेंस लेवल जड़ से तबाह कर दिया जाता है। उनको क्षण-क्षण बताया जाता है कि वे ‘कमजोर’ हैं। उनको सहारे की जबरदस्त जरूरत है। किसी पुरुष की मदद के बगैर वे एक भी कदम नहीं उठा सकती। ‘आज्ञाशीलता’ को उनकी सबसे बड़ी धरोहर बताया जाता है। बच्चों और परिवार को बचाये रखने के लोभ में वह हर पल अपने स्वाभिमान को रौंदे जाते हुए देखने को लाचार बना दी जाती है। स्वाभिमान जितना टूटेगा, गुलामी की प्रवृत्ति उतनी ही हावी होती जाएगी। गुलाम औरतों के पुरुष दीवाने होते हैं। वे शेखी बघारते हैं कि कैसे उन्होंने औरतों का स्वाभिमान चुटहिल किया? कमजोर की आज्ञा कौन मानता है? वह तो जन्मता ही है, पालन करने के लिए। आज की औरत इस कमजोरी के खांचे को तोड़ रही है। आत्म-विश्वास और सम्मान को बढ़ाने के लिए वह हर कीमत चुकाने को तैयार हो चुकी है। आज्ञा पालन का ढोंग करने के नाम पर होने वाली कुंठा को ढोते रहने से उकता चुकी है वह। अपनी जिद पूरी करने और अपने होने का अहसास कराने में वह कोई कोताही नहीं बरतना चाह रही। हारे हुए सिपाही की तरह पीठ पर जख्म खाने की बजाय वह सीने पर चोट खाकर दर्द सहने की तैयारी में है ।


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