Wednesday, May 25, 2011

आधी दुनिया का सियासी दबदबा


आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में महिलाओं के नाम एक और उपलब्धि दर्ज हो गई है। पहली मर्तबा देश के 29 सूबों में से चार सूबों की मुख्यमंत्री महिला हैं। हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद दो राज्यों पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में ममता बनर्जी और जयललिता ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं। ऐसा पहली बार है कि एक समय में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क के चार राज्यों की कमान महिलाओं के हाथ में है और वे देश की कुल आबादी की एक तिहाई आबादी पर राज कर रही हैं। अपने मुल्क की महिला मुख्यमंत्रियों की फेहिरस्त बहुत ही छोटी है। इतनी छोटी की एक बार में ही याद हो जाए। इस फेहिरस्त में सबसे पहला नाम सुचेता कृपलानी का है। वह उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं और देश में पहली मर्तबा एक महिला को राजनीति की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया था। पंजाब में रजिंदर कौर भट्टल तीन साल तक मुख्यमंत्री रहीं तो उड़ीसा में नंदिनी सतपथी ने 10 साल तक मुख्यमंत्री के नाते सत्ता संभाली। असम में अनवरा तमिरा मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन की पत्नी सी जानकी छह महीने के लिए मुख्यमंत्री के पद पर रहीं तो बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। मध्य प्रदेश में उमा भारती करीब दो-ढाई साल तक बतौर मुख्यमंत्री रहीं। सुषमा स्वराज दिल्ली की तो वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री थीं। सुचेता कृपलानी, नंदिनी सतपथी, रजिंदर कौर भट्टल, अनवरा, शीला दीक्षित का ताल्लुक कांगे्रस से है तो राबड़ी देवी राजद, सी जानकी, जयललिता अन्नाद्रमुक, ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस, मायावती बसपा और सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, उमा भारती भारतीय जनता पार्टी से हैं। केरल जैसा प्रगतिशील राज्य इस संदर्भ में हर विधानसभा चुनावों में हमारे सामने इस विचारणीय मुददे को रखता है कि यहां अभी तक कोई महिला मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन पाई? केरल एक ऐसा मॉडल राज्य है, जहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा और साक्षरता दर भी उल्लेखनीय है। यही नहीं, बारी-बारी से राज्य की सियासत संभालने वाली दो मुख्य राजनीतिक पार्टियों लेफ्ट और कांग्रेस की विचारधारा भी यहां चुनावी राजनीति व जिताऊ फैक्टर के सामने नतमस्तक दिखी। देश के वामपंथियों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल तक उनकी सत्ता थी और एक बार भी किसी महिला को मुख्यमंत्री नहीं बनाया। क्या यह ऐतिहासिक चूक नहीं है। इसी तरह केरल व त्रिपुरा में भी उन्होंने किसी महिला को मुख्यमंत्री पद के काबिल नहीं समझा। वामपंथी स्त्री-पुरुष की बराबरी का दावा करते हैं, लेकिन सत्ता के शीर्ष पदों पर महिलाओं के चुनाव को लेकर उन्होंने हमारे सामने कोई राजनीतिक आदर्श नहीं रखा है। ऐसा भी नहीं है कि उनके पास अनुभवी महिला कॉडर की कमी हो। वामपंथी संसद व विधानसभा में एक तिहाई महिला आरक्षण की वकालत करने में भले ही सबसे ज्यादा मुखर शैली अपनाते हों, पर सच यह है कि यहां भी राजनीति में पुरुषत्व ही हावी दिखता है। देश के उत्तर-पूर्व राज्यों के कबीलाई समाज में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास ज्यादा अधिकार हैं, लेकिन राजनीति पर उनकी पकड़ प्रभावित नहीं करती। राजनीति में आदिवासी पुरुष नेता तो हैं, लेकिन किसी आदिवासी महिला राजनेता का नाम याद नहीं आता। राजनीति, सत्ता जेंडर न्यूट्रल वर्ड हैं, लेकिन जब राजनीति, सत्ता एक खास जेंडर की ओर झुकी हो, यहां तक कि उसी विशेष जेंडर का वहां दबदबा हो तो उसे तोड़ने या यों कहें कि करेक्शन के लिए महिला राजनीतिज्ञों को क्या कोई पहल नहीं करनी चाहिए। किसी भी महिला राजनेता ने संगठित महिला शक्ति का विकास नहीं किया। देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इसका अपवाद नहीं कही जा सकतीं। इंदिरा गांधी के बाद की महिला राजनेताओं मसलन जयललिता, सुषमा स्वराज, मायावती, ममता बनर्जी, उमा भारती, राबड़ी देवी और सोनिया गांधी ने भी इंदिरा गांधी की परपंरा को तोड़ने की कोई ठोस पहल नहीं की। जयललिता, ममता बनर्जी, मायावती के चुनावी घोषणापत्रों में महिलाओं को राजनीतिक तौर पर सशक्त करने की कोई नीति का जिक्र नहीं मिलता। इस समय अपने देश की राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल हैं। लोकसभा में स्पीकर मीरा कुमार हैं तो कांग्रेस व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज हैं। देश के तीन राज्यों गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की राज्यपाल महिला हैं। चार राज्यों में महिला मुख्यमंत्री हैं। इसे महिलाराज के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या यह देश इस ऐतिहासिक संयोग या कहें परिस्थितियों का लाभ उठा पाएगा? अब तक देश में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की बाबत आलंकारिक व्याख्याएं ही ज्यादा हुई हैं। क्या अब महिलाओं को राजनीतिक तौर पर सशक्त करने के लिए कुछ ठोस होता नजर आएगा? यह हमारे परिपक्व होते लोकतंत्र के लिए एक अहम सवाल है। देश में महिला मुख्यमंत्रियों की संख्या तो दो से बढ़कर अब चार हो गई है, लेकिन जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, वहां जीतकर विधानसभा पहंुचने वाली महिला विधायकों की संख्या 2006 विधानसभा की तुलना में घटी है। वर्ष 2006 के चुनावों में इन राज्यों यानी पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल और पांडिचेरी में 80 महिला विधायक चुनकर आई थीं, मगर इस बार यह संख्या 72 तक सिमट कर रह गई है। पंचायत और नगर निगम में तो महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण की घोषणा अब पुरानी हो चुकी है, असली टेस्ट संसद और विधानसभा में होता है, जहां नतीजे जोर-जोर से बोलते हैं। फिलहाल तो यही लगता है कि मंजिल बहुत दूर है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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