Wednesday, May 11, 2011

कच्ची है कसौटी


पुरुष व्यवस्था की मारी हुई हमारी तथाकथित विवेकशील स्त्रियों में उन विचारों की बहुत कमी है, जो किसी औरत के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने या कि उसके लिए प्राणरक्षक की भूमिका में बेहतर सिद्ध हो सकते हैं। पंजाब महिला आयोग की टिप्पणी को प्रख्यात साहित्यकार कृष्णा सोबती पढ़कर हंस पड़ी होंगी या कि महिला आयोग पर अफसोस किया होगा? तस्लीमा जी भारतीय प्रबुद्ध महिलाओं के इस कदम को कैसे देखेंगी? कितनी चिंता है हमें विवाह संस्था के कुपोषण के लिए, परिवारों को क्षतिग्रस्त होने के लिए और कितना डर है? हमारे पुरुष वर्ग को अपने वर्चस्व को क्षीण होते जाने की आशंका का। हम मान रहे हैं कि अभी स्त्रियां पूरी तरह मजबूत नहीं हुई हैं, जबकि इन दिनों पुरुष-सत्ता में ले-दे मची हुई है। एक छोटी सी बातूनी डिबिया (मोबाइल फोन) औरत के हाथ में क्या आयी कि समाज में हाहाकार मच उठा, जैसे औरत ने एके-47 थाम ली हो। इसमें शक नहीं कि बहू हो या बेटी, जब मोबाइल के जरिये किसी से बात कर रही होती है, अभिभावकों का दिल र्थरा उठता है। पत्नी को फोन कान से लगाये और चटर-पटर बात करते हुए देखकर पति को अपने आसपास ही किसी खलनायक की बू आती है। सव्रे करके देख लिया जाए कि कितने परिवार अपनी कुंआरी बेटियों और जवान बहुओं के पास मोबाइल होने के पक्ष में है? हमारा दावा यह भी है कि प््राा इ व्ाे ट बतकही के लिए ज्यादातर परिवार या ससुराल पक्ष तैयार नहीं होंगे। हमने मान लिया है कि शासकों के सिंहासन डगमगाने लगे। बस, इसलिए ही मैं सभा-गोष्ठियों में और अखबार के पन्नों पर, टीवी चैनल के जरिये बरसों से मोबाइल फोन का धन्यवाद करती आ रही हूं, जिसने औरत की इच्छा- वरणी मूक पड़ी आवाज खोल दी। स्त्री अपनी ही आवाज पर आज चकित है जिसने स्वामी, मालिक और तथाकथित राजाओं के दिल दहला दिये। कितना अच्छा था, तब जब बेटियों के प्रेम-पत्र पकड़े जाते थे। सजा के रूप में शादी का फरमान तुरत-फुरत सुनाकर मेल- बेमेल, अधेड़-बूढ़ा, दे स- परदेस का वर ढूंढ़ दिया जाता था और कन्यादान करके मां-बाप गंगाजी नहा आते थे। कितना सुनहरा युग गुजरा है, जब बहुएं चुपचाप घर के आंगन में मजूरी करती रहती थीं। अपनी किसी व्यथा या पीड़ा को पी जाना ही हितकर समझती थीं- ‘दुखवा का से कहूं मो री माई’ का मजबूती से बंधा मजबूर सूत्र दुल्हन के मंगल-सूत्र की तरह गले में अदृश्य रूप में दिन-रात रहता था और नव-युवा बहू रो- रोकर अपना दर्द कभी पीपल के पेड़ को सुनाती थी, कभी नीम पर बैठे तोता और कागाओं को। मगर आज उस बेटी या उस बहू के हाथ में मोबाइल फोन है, दिल जरा सा भी दुखा, दर्द माता-पिता तक पहुंचा दिया। हमारे घर की मीरा बहू ने अपने दद्दा से धोती-साड़ी, पायल-बिछिया को दरकिनार करके मोबाइल फोन मांगा था और फोन आते ही ससुराल में भूचाल आ गया, जैसे मीरा का वार्तालाप हर हालत में बहुत होशियारी या दांवपेंच वाला हो सकता है। वह फोन के जरिये शतरंज जैसी चाल चल सकती है, जो आमने-सामने संभव नहीं है। बहुत सी उफनाती ध्वनियां उसके दिमाग में चलती रही हैं, जो चेहरा देखकर ही पहचानी जा सकती थीं मगर कुछ न कहने की मजबूरी, सिर झुकाकर सह जाने की बेबसी के चलते आखिर भीतर का प्रतिरोधी ज्वार थमने लगता। यह अलग बात है कि इस बदलाव के दौरान इंसाफ के लिए अराजकता ऐसी कि स्थिति दर्दनाक और विचलित कर देने वाली हो जाती। सीने में जो सुलगता, आंखों में धुआं-सा चुभता। लड़की का दुख छिपा रहे, वह कष्टों को झेलती चली जाए और ‘उफ’ तक न करें, यह ‘मूल्यवान नियम’ शील-स्त्री का निर्माण करता है। इसी नियम को पोसने की हिमायत में पंजाब का महिला आयोग उठा, तो समझिए कि हमारी महान परंपराओं को सुरक्षित कर रहा है। इसी से मर्दपरस्त संस्कृति उठान पर रहती है। अब ऐसे समाज को सामंती खूंखार या कुटिल न कहें तो क्या कहें जो स्त्री के मनुष्यगत हकों का हत्यारा है। इसी हत्यारी संस्कृति के आधार पर चलती है विवाह संस्था, तभी तो पुरुष वर्चस्व के भोंपू से बोलती हुई पंजाब महिला आयोग की अधिकारियों ने मोबाइल फोन के स्त्री-सहयोग को तलाक का कारण बताया है। तलाक यानी कि उस संबंध से छुटकारा, जिसके कारागार में तरह-तरह की सजाओं का प्रावधान है। घरेलू हिंसा से अग्नि-दहन तक और मर्दानगी की बलिष्ठता के बूते औरत के बहत्तर टुकड़े करके फ्रिज में रख देने तक, तंदूर में झोंक देने तक और सरेआम गोली मार देने तक, सभी के इस संहार को रोकने का उपाय क्या है? कितनों को फांसी हुई है उनके बर्बर कृत्यों पर? इस पर ध्यान देने की जरूरत भी क्या है? हमारे महान ग्रंथों में लिखा है कि सती होना स्त्री का परम धर्म है या उसे खत्म कर देने से कोई पाप नहीं लगता। तभी तो जब औरत सब तरफ से निराश-हताश होकर फैसला अपने हाथ में ले लेती है, तो कचेहरियों तक चिल्लाने लगती हैं कि औरत अगर पति पर वार करेगी तो विवाह संस्था का क्या होगा? शादी पर किसको िव्ा श् व्ाा स्ा रहे गा? पूछने का मन करता है कि स्त्री-हत्या की रोजाना की खबरें, भ्रूण-हत्या के नजारे और घरेलू-हिंसा की दर्दनाक कहानियां औरत की आस्था को कितनी बचा पाती हैं कि वह विवाह को बचाये। तलाक से डर लगने लगा है मदरे को, मदरे के पैरोकार परिवारों को। तभी तो हमारा समाज तकनीकी योग्यता और तमाम हलकों में देश की मजबू ती पर ताल ठोकते हुए चोर निगाहों से औरत की तरक्की देखकर बौखला जाता है। जैसे औरत का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर उसके अपने इरादों के मुताबिक ऊंचा हो, तो मर्दाने समाज की तौहीन होती है। मोबाइल फोन ही क्यों, स्त्री की वेशभूषा उसकी शिक्षा-दीक्षा के साथ योग्यता और क्षमता दहशत पैदा कर रही है, नहीं तो दिनदहाड़े बलात्कार और कत्ल के रास्ते औरत को ठिकाने क्यों लगाया जाता? वही कि अब वह आंखें नीची करके, कंधे झुकाकर चलने वाली लड़की से ऊपर उठकर आपकी आशनाई, कामुकता और मालिकाना अंदाज का जवाब अपनी इच्छा और अपने फैसले के हिसाब से दे रही है, जो आपको कड़ी चुनौती लगती है तो फिर छीनो मोबाइल, बैन कर दो इंटरनेट और प्रतिबंध लगा दो जींस और टॉप पर। घाघरा लूगड़ी या बुर्के घूंघट में बन्द कर दो उसका मनुष्यगत व्यवहार कि उसकी ज्ञानेन्द्रियां सुन्न हो जाएं और वह फिर से मूक के रूप में, कोल्हू के बैल के अभ्यास में उतर जाए। मगर अब ऐसा कुछ किसी के बस का नहीं क्योंकि आदि-ग्रंथों की अत्याचार-संहिता को स्त्री ने सिरे से नकार दिया है, ऋषियों और गुरुओं का कहा-सुना सब धोखे का सौदा है, क्योंकि आदि- ग्रंथों का सच हैं जाबालाएं और एकलव्य, सूर्पनखा और सीता। जाहिर है, जिन विधानों ने इन स्त्रियों और शिष्यों को अपने युग में जगह दी तो वह जगह दोजख ही कहलाएगी। वे भी बड़े ईमानदार थे, पहले ही घोषणा कर दी- स्त्री और दलित को स्वर्ग भोगने का अधिकार नहीं। मगर आज औरत जान गयी है कि न स्वर्ग किसी देवता के चमत्कार से बनता, न कोई वहां रहने का पट्टा दे सकता। स्वर्गन रक अपने हाथों ही बनते हैं, अपने साहस और बुजदिली से, अपने ज्ञान और अज्ञान से। सच में, हमारे यहां की पुरुष-व्यवस्था अज्ञानी है। नहीं जानती कि औरत अपनी यात्रा में कहां से कहां पहुंच गयी और पुरुष-सत्ता अभी पांसे फेंक रही है, दांव खेल रही है। महिला आयोग के विचारों पर अफसोस किया जा सकता है। गौर करने की बेवकूफी कौन सी औरत करेगी? जरा बुद्धि-विचार तो देख लीजिए कि उनका तर्क है- बहू अपने मायके वालों से एक-एक बात कहती है जिससे मायके के लोग पति-पत्नी के संबंध में हस्तक्षेप करते हैं। इस कारण परिवार टूटते हैं। हस्तक्षेप न करें तो क्या करें? कहें कि हमारी बेटी को जमकर यातना मिले। या आंखें मूंद लें? पहले माता-पिताओं की तरह कहें- डोली यहां से उठी है, अर्थी पति के घर से उठे। यानी कि अब मरने-जीने के लिए तुम वहां अकेली हो, जहां तुमको बैल की तरह दिन-रात जोता जाना ही आदर्श नियम है। अभी तक जो हत्याएं हो रही हैं, वे ज्यादातर इसलिए ही हो रही हैं कि लड़की के माता-पिता उदासीन रहते हैं। पति-पत्नी या बेटी की ससुराल के बीच में आना ‘अशोभनीय’ बताया गया है तो अब यह नयी बात भी जान लेनी चाहिए कि जो कुछ पुराने वक्तों में बताया गया है, वह सारा कुछ सही नहीं है। वह बहुत कुछ बहू-बेटियों के खिलाफ बनाया गया है इसलिए गलत नियमावली में तब्दीली की सख्त जरूरत है। क्या यहां मदरे से भी मोबाइल छीनने का फरमान जारी हो सकता है? क्या वे मोबाइल या ऐसे ही तेज गति के साधनों से सारे काम विवाह संस्था के हित में करते हैं? आपकी कसौटी बड़ी कच्ची है और आप घिसने लगते हैं उस पर स्त्री को, जो अपने इरादों में काफी मजबूत हो चली है।


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