Wednesday, May 25, 2011

आओ, इसका जश्न मनाएं


वैश्विक राजनीति में महिलाओं की स्थिति जो भी रही हो, लेकिन कम से कम द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य में महिलाएं हमेशा महत्वपूर्ण दिखती रही हैं। चाहे दुनिया में सबसे ज्यादा महिला प्रधानमंत्रियों की बात हो या राष्ट्रपतियों की। दक्षिण एशिया ने इसकी जबरदस्त मिसाल पेश की है। पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे कट्टरपंथी इस्लामिक देशों में भी महिला प्रधानमंत्री इस क्षेत्र की ही देन हैं। इंदिरा गांधी जैसी दुनिया की ताकतवर महिला राजनीतिज्ञ भी दक्षिण एशिया के खाते में ही आती हैं। इसलिए एक साथ भारत के चार महत्वपूर्ण राज्यों में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर महिलाओं का विराजना आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन यह राजनीति की शानदार उर्वर दिशा का संकेत भी है। हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दो राज्यों में महिलाओं ने अपने दम पर जीत का परचम लहराया और पारंपरिक राजनीति के मायने बदल दिए। तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने 34 साल पुराने लाल दुर्ग को ढहा दिया तो दूसरी तरफ लगभग अजेय-सा दिखने वाला करुणानिधि परिवार जयललिता के जादू के सामने टिक नहीं पाया, जबकि तमाम राजनीतिक पंडित कम से कम तमिलनाडु के चुनावों को लेकर भविष्यवाणी करते हुए बेहद असमंजस स्थिति में थे। जयललिता की ही तरह ममता बनर्जी ने भी पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को चारो खाने चित्त कर दिया। 294 विधानसभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और उसके सहायक दलों को 227 सीटें मिलीं, जबकि लेफ्ट फ्रंट को, जिसे 2006 में 235 सीटें मिली थी, महज 62 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। इस तरह उसे 173 सीटों का नुकसान हुआ। पिछली बार की ही तरह अन्य दल इस बार भी सिर्फ पांच सीटें ही हासिल कर सके। बहरहाल, यहां सीटों की संख्या और राजनीतिक ताकत का आकलन करना मकसद नहीं है, बल्कि यह झांकने की कोशिश करना है कि भारतीय राजनीति में अब महिलाएं अपनी स्वतंत्र ताकत से ऐतिहासिक फेरबदल करने का माद्दा दिखाने लगी हैं। हालांकि पहले यह काम इंदिरा गांधी कर चुकी हैं, लेकिन इंदिरा गांधी की मजबूत परंपरा को दशकों तक देश की दूसरी महिला राजनीतिज्ञ कायम नहीं रख सकीं। आमतौर पर भारतीय राजनीति में महिलाओं की हैसियत दूसरे नंबर की रही। वह बॉलीवुड फिल्मों की तरह पूरी फिल्म का खूबसूरत, मगर एक तरह से फिल्म में फर्क न पड़ने वाले हिस्से की माफिक रहीं। भारतीय राजनीति में महिलाएं पीढ़ी और परंपरा कायम नहीं कर सकीं। वह या तो पति या बेटों, भाइयों आदि की विरासतों को ढोने वाली रहीं या अपनी खूबसूरती और राजनीतिक वरदहस्त के तहत आगे बढ़ीं। इससे भारत में महिला राजनीतिज्ञों की संख्या तो जरूर हमेशा ऐसी रही, जिसे अगर शानदार नहीं तो खराब भी नहीं कहा जा सकता था, लेकिन वास्तविक ताकत के नजरिए से ये महिलाएं महज मोहरा भर रहीं। यही कारण है कि पंचायती राज व्यवस्था में 33 फीसदी महिलाओं की अनिवार्य मौजूदगी भी देश में महिला राजनीतिज्ञों के प्रभाव का माहौल नहीं बना सकी। मगर यह पहला ऐसा मौका है, जब उत्तर प्रदेश में मायावती, तमिलनाडु में जयललिता, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार किसी पुरुष राजनीतिज्ञ के रहमोकरम की मोहताज नहीं है, बल्कि इन महिला राजनीतिज्ञों ने अपनी ताकत खुद बनाई है। यही वजह है कि यह क्षण महत्वपूर्ण है, जब देश के तीन बड़े आबादी वाले और चौथे सबसे बड़े प्रभाव वाले राज्य यानी दिल्ली में महिलाओं के नेतृत्व को किसी की विरासत या किसी की छाया नहीं करार दिया जा सकता, बल्कि इनकी अपनी ताकत और प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। बहरहाल, चार राज्यों में महिलाओं का नेतृत्व इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये चारों राज्य देश की राजनीति में अहम भूमिका अदा करते हैं। साथ ही इन चारों राज्यों से केंद्र सरकार की वास्तविक गति निर्धारित होती है। भारतीय राजनीति में पहली बार एक साथ चार राज्यों की कमान महिलाओं के हाथ में होना एक नए राजनीतिक माहौल और बदलाव की तरफ इशारा करता है। भारतीय राजनीति में महिलाओं की ताकतवर होती स्थिति न सिर्फ देश में मजबूत होते लोकतंत्र का प्रतीक है, बल्कि देश में महिलाओं की मजबूत होती स्थिति का भी प्रतीक है। इसलिए चार राज्यों में महिलाओं का नेतृत्व भारत के लिए एक नए युग की दस्तक है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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