Monday, April 30, 2012

हमें भी है जीने का हक

कहते हैं बेटियां ठंडी छांव होती हैं और घर की रौनक भी। वे जननी हैं तो पालनहार भी। लेकिन लगता है हमारे समाज में बहुतों को यह रौनक रास नहीं आ रही है, शायद यही वजह है कि बेटियों के प्रति हद दर्जे की कई झकझोर देने वाली खबरें सामने आ रही हैं। कहीं बच्चियों को लावारिस छोड़ा जा रहा है, तो कहीं इस दुनिया की आबोहवा से वाकिफ होने से पहले ही उनका गला घोंटा जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बेटी बचाओ अभियान चलाने वाला हमारा समाज यह सब देख-सुनकर आंखें बंद कर लेता है। समाज में अन्याय के प्रति आवाज उठाने के बजाय आंखें बंद कर लेना बेहतर समझा जाता है। यह हालात ऐसे समय है जब बेटियां लगातार आगे बढ़ रही हैं और अपने परिवार का नाम देश-दुनिया में रौशन कर रही हैं। वे सरहद पर न केवल मुल्क की निगहबानी कर रही हैं बल्कि अपने बुजुर्ग मां-पिता का बोझ उठाकर उनका सहारा बन रही हैं। जनगणना-2011 के आंकड़ों में एक कड़वी हकीकत यह सामने आई कि 0-6 साल आयु वर्ग में बच्चियों की तादाद कम हुई है। 2001 में लिंगानुपात यानि 1000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद 926 थी जो 2011 में घटकर महज 914 रह गई। आजादी के बाद से यह अब तक का सबसे खराब स्तर है। जनगणना आयुक्त सी चंद्रमौलि ने भी इसे बेहद चिंताजनक स्थिति करार दिया है। इसका कारण यह है कि हम मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स में बेटियों को बचाने का डंका पीटते हैं, सेमिनारों का आयोजन करते हैं, महिलाओं के हित के लिए कानून बनाते हैं, पर अपनी सोच कभी नहीं बदलते। इसी के चलते सारी योजनाएं कागजी पैमाने पर तो खरी उतरती हैं पर उनका असलियत से कोई लेना-देना नहीं होता। मसलन, प्रसव से पहले भ्रूण के सेक्स की जांच पर रोक लगाने के लिए पीएनडीटी एक्ट है लेकिन इसे अब तक सख्ती से लागू नहीं किया गया है। नेशनल कमिश्नर फॉर विमेन (एनसीडब्ल्यू) ने पिछले साल सरकार से पीएनडीटी एक्ट को और सख्त बनाने की मांग की थी लेकिन अब तक इस ओर कुछ नहीं किया गया है। वैसे तो हमारे आस-पास आए दिन बेटियों, महिलाओं के अपनों के ही हाथों मारे जाने की खबरें आती हैं। कभी इज्जत के नाम पर, कभी बेटों की चाह में तो कभी आर्थिक विपन्नता की आड़ में बेटियों का गला रेत दिया जाता है। दूरदराज इलाकों में हुई ऐसी घटनाओं से लोग वाकिफ भी नहीं हो पाते लेकिन कुछ मामले ऐसे भी आए है जिनकी जानकारी से देश का कोई भी कोना अछूता नहीं रह गया है। पश्चिम बंगाल के बर्दवान में एक शख्स ने अपनी तीन बेटियों और गर्भवती पत्नी को मार डाला, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस शख्स को डर था कि कहीं चौथी बेटी पैदा न हो जाए। वहीं दिल्ली स्थित एम्स में लावारिस फलक को जख्मी हालात में भर्ती कराया गया, जहां वह जिंदगी से हार गई। बेंगलुरू में तीन महीने की आफरीन को कथित तौर पर उसके पिता ने सिगरेट से जलाकर बेरहमी से पीटा जिसके बाद उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया। ग्वालियर में एक व्यक्ति ने पिछले साल अक्टूबर में अपनी नवजात बेटी को अस्पताल में तंबाकू खिलाकर मार डाला। सुल्तानपुर में एक शख्स ने अपनी पत्नी को बच्चियां पैदा करने के जुर्ममें जला दिया साथ ही अपनी तीन बेटियों को भी आग के हवाले कर दिया। यह वे घटनाएं हैं जो मीडिया की सक्रियता के चलते सामने आई हैं, अन्यथा कई बार ऐसा होता है कि बेटियों को जन्मते ही मार दिया जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता। विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि रूढ़िवादी राज्यों में बच्चियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। दिल्ली और उसके आसपास की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। दिल्ली में यह आंकड़ा 1000 बच्चों पर 882, हरियाणा में 849, जम्मू-कश्मीर में 870, पंजाब में 836, राजस्थान में 875 और उत्तर प्रदेश में 874 है। लगता है इन इलाकों में लोग बेटी नहीं सिर्फ बहू चाहते हैं, भले ही उसे खरीद कर लाना पड़े। महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में यह संख्या 896 होना चिंता का कारण है, क्योंकि वहां रूढ़ियां इतनी अधिक नहीं हैं। यह आंकड़े सभ्य समाज को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त हैं। हालांकि कई सामाजिक संगठनों ने इसके लिए काम शुरू किया है, धार्मिंक संगठनों ने विशेष अभियान चलाया है, लेकिन इसका असर तो फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। कहते हैं कि अगर किसी समाज के विषय में जानना हो कि वह अच्छा है या बुरा तो वहां पर महिलाओं की स्थिति का अध्ययन कर लीजिए। हाल ही में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक-सामाजिक मामलों के विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत लड़कियों के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित देश बन गया है। इस रिपोर्ट को 150 देशों के 40 साल के रिकॉर्ड को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। भारत में 1 से 5 साल तक की करीब 75 फीसद बच्चियों की मौत हो जाती है। यह वि के किसी भी देश में होने वाली शिशु मृत्यु दर में लैंगिक असमानता की सबसे बदतर स्थिति है। चीन में 76 लड़कों की तुलना में 100 और भारत में 56 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों की मौत होती है। अन्य विकासशील देशों में यह आंकड़ा 122 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों का है। यहां तक कि पाकिस्तान, श्रीलंका, मिस्र और इराक में भी लड़कियों की स्थिति में सुधार देखा गया है। भारत में बच्चियों की स्थिति का यह आंकड़ा वाकई भयावह है। विरासत और संस्कृति का दंभ भरने वाले शहरों में सड़कों पर लावारिस हालात में मिल रहीं बच्चियां सभ्य होने का दावा कर रहे समाज को उसका असली चेहरा दिखा रही हैं। तमाम भारतीय परिवारों में घर के भीतर नवजात बच्चियों पर अमानवीय अत्याचार किए जाते हैं, इतना करने के बाद भी अगर उस बच्ची की सांसे नहीं टूटतीं तो उसे जला दिया जाता है, नाले में फेंक दिया जाता है या दफना दिया जाता है और कारण बताया जाता है आर्थिक परेशानी। बच्ची के हत्यारे अभिभावक यह दलील देते हैं कि उनके पास इतनी सामथ्र्य नहीं है कि वे बेटी का पालन- पोषण कर सकें। लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस तरह से सीमित आमदनी में बेटों का लालन-पालन किया जा सकता है, क्या उसी सोच के साथ बेटी को जीने का हक नहीं दिया जा सकता?

कम उम्र में मां बनती हैं 22 फीसदी युवतियां


भारत में 20 से 24 साल की उम्र के बीच की 22 प्रतिशत महिलाएं वयस्क होने से पहले ही मां बन जाती हैं। देश की 54 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि कुछ कारणों से पति का पत्नी की पिटाई करना जायज है जबकि 57 प्रतिशत किशोर भी इसे सही मानते हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि 54 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि खाना जला देने, बहस करने, बिना बताए बाहर जाने जैसी वजहों पर पति का अपनी पत्नी की पिटाई करना जायज है। द स्टेट ऑफ द व‌र्ल्ड चिल्ड्रन 2012 के शीर्षक से जारी की गई रिपोर्ट में यूनिसेफ कहा गया है कि भारत में 2000 से 2010 तक 30 प्रतिशत महिलाओं की शादी 15 से 19 साल की उम्र के बीच कर दी गई। पुरुषों में यह आंकड़ा मात्र पांच प्रतिशत ही था। इसमें बताया गया है कि 20 से 24 साल की उम्र के बीच की 47 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र से पहले ही कर दी गई थी। साथ ही 18 प्रतिशत महिलाओं की 15 साल की उम्र से पहले ही शादी कर दी गई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में किशोरावस्था में मां बनने की दर प्रति हजार पर 45 है जिसका अर्थ है कि 15 से 19 साल की प्रति हजार किशोरियों में से 45 इसी उम्र में ही मातृत्व प्राप्त कर लेती हैं। यूनिसेफ की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 15 से 19 साल के बीच के युवक- युवतियों में 35 प्रतिशत युवक और 19 प्रतिशत युवतियां ही एच आई वी के संक्रमण को रोकने के उपायों के बारे में जानकारी रखते हैं। साथ ही रिपोर्ट के अनुसार 15 से 49 साल की उम्र के बीच की 54 प्रतिशत महिलाएं गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल करती हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2009 में 15-49 साल के संभावित वयस्कों में 0.3 प्रतिशत व्यक्तियों में एचआइवी का प्रचलन देखा गया। साथ ही 2009 में 8.8 लाख माताएं एचआइवी से पीढि़त थीं। यूनिसेफ का मानना है कि 2000 और 2009 के बीच अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा के नीचे 42 प्रतिशत भारतीय थे।

Monday, April 9, 2012

रेलवे में उपेक्षित और असुरक्षित महिलाएं

पिछले माह रेल मंत्रालय काफी में चर्चा रहा। दिनेश त्रिवेदी से यह मंत्रालय लेकर तृणमूल के ही मुकुल राय को थमाया गया है। यात्री भाड़े में वृद्धि को लेकर नाखुश ममता बनर्जी ने यह बदलाव कराया है। निश्चित तौर पर दीदी से जनता खुश हुई होगी कि उन्होंने उनका खयाल किया। चूंकि महिलाएं भी अच्छी- खासी संख्या में सफर करती हैं लिहाजा उन्हें भी किराए में कमी का निश्चित लाभ मिलेगा। लेकिन ट्रेनों में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध पर न तो दीदी का ध्यान गया, न दिनेश त्रिवेदी ने इस पर कोई विशेष पहल की और न मुकुल राय ने अब तक इस मामले में किसी खास बंदोबस्त का वायदा किया है। रेल यात्रा के दौरान सुरक्षा के प्रश्न पर चलते-चलाते तो सभी मंत्री तथा अधिकारी गण दो-चार आासन के वाक्य बोल जाते हैं और जिम्मेदारी जीआरपी को सौंप जाते हैं। लेकिन मामला सिर्फ सुरक्षा गश्त बढ़ाने का नहीं है बल्कि ठोस उपाय करने का है। समूची रेल व्यवस्था में लैंगिक असंवेदनशीलता का मसला गम्भीर है। चाहे वह महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने का सवाल हो, बोर्ड के गठन में उनके प्रतिनिधित्व का विषय हो या फिर बुनियादी सुविधाएं- शौचालयों तथा चेंजिंग रूम आदि की व्यवस्था का प्रश्न हो, कहीं भी आसानी से वह रवैया देखा जा सकता है जो स्त्री विरोधी है। असुरक्षा से बचाव के कारगर उपाय करना रेलवे के एजेंडे में कहीं है भी, लगता नहीं। ज्ञात हो कि हाल में खुद रेल विभाग के आंकड़े बताते है कि अपराध बढ़ रहे हैं। बीते साल 2011 में रेल परिसर में बलात्कार, हत्या, डकैती एवं छेड़छाड़ के 712 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2010 में यह आंकडा 501 था। 2011 में बलात्कार के 15 तथा छेड़खानी के 362 मामले दर्ज हुए जो 2010 में क्रमश: 10 और 252 थे। सुरक्षा के इंतजाम का जिम्मा आरपीएफ तथा जीआरपी पर है। मंत्रालय के अधिकारियों का जोर महज वीआईपी ट्रेनों जैसे राजधानी, शताब्दी, दुरंतो या एसी कोचों में गश्त बढ़ाने पर होता है। सुरक्षा इंतजामों का बड़ा हिस्सा इन ट्रेनों पर लगाया जाता है जबकि अन्य द्वितीय श्रेणी वाले कोचों में गश्त वाले भी कभी-कभार ही दिखते हैं। रेल विभाग ने मीडिया के माध्यम से बताया है कि वह एकीकृत सुरक्षा पण्राली के तहत 202 सीसी टीवी स्टेशनों पर लगवा रहे हैं जबकि स्टेशन की तादाद लगभग 8 हजार है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि दर्ज मामलों के जो आंकड़े हैं उनकी तुलना में वास्तविक घटनाएं अधिक होती हैं। इसकी वजह यह है कि यात्रियों के लिए सफर के दौरान शिकायतों की प्रक्रिया को अंजाम देना कई बार संभव नहीं होता है। कोच के अंदर न तो कर्मचारी दिखते हैं, न ही कोई हेल्पलाइन नंबर होता है। अगर स्टेशन पर नीचे उतर कर शिकायत करने जाएं तब तक ट्रेन छूटने का डर होता है। जो अन्य उपाय हो सकते हैं उनके बारे में यात्रियों को जानकारी भी नहीं होती है। कोई प्रचार भी इस बारे में रेलवे करता नहीं दिखता है। जैसा कि दिल्ली में डीटीसी बसों के लिए निर्देश है कि हर बस में स्पष्ट रूप में और कई जगहों पर हेल्प लाइन नंबर लिखा होना चाहिए जिसे छेड़खानी का सामना करने वाली लडकियां-महिलाए इस्तेमाल कर सकती हैं। लगता है कि महिलाओं को सुरक्षित सफर का भरोसा दिलाना अभी रेलवे की प्राथमिकता नहीं बना है। न सिर्फ ट्रेन के अंदर बल्कि स्टेशनों पर भी वातावरण असुरक्षा का ही है। महानगरों के स्टेशनों पर भीड़ के कारण फिर भी किसी बड़ी अनहोनी का भय नहीं लगता, लेकिन खासतौर पर उत्तर भारत के कई छोटे स्टेशनों पर सुरक्षा के कोई उपाय नहीं दिखते हैं। खासकर रात के वक्त किसी ट्रेन पर अकेले चढ़ना या उतरना महिलाओं के लिए असुरक्षित होता है। रेल परिसर में और यात्रा दौरान तो महिलाओं को अपराध और असुरक्षा का सामना करना ही पड़ता है, विभागीय स्तर पर भी उनके साथ भेदभाव आम है। मसलन, रेलवे ने अपनी भर्ती नीति अभी तक दुरुस्त नहीं की है। संसद की स्थायी समिति की तरफ से उसकी भर्ती नीति पर गंभीर सवाल उठाये गए थे। यहां विभिन्न विभागों में न्यूनतम 5.45 से अधिकतम 7.70 फीसद महिला कर्मचारी थी। रिपोर्ट में बताया गया था कि ग्रुप ए, बी, सी और डी श्रेणी में क्रमश: 6.79, 5.45, 7.70 और 6.20 फीसद महिला कर्मचारी हैं। खेल कोटे के तहत होनेवाली भर्तियों को भी रेलवे ने अनदेखा कर रखा है। यहां हर साल 1181 रिक्तियां खेल कोटे के तहत भरी जानी चाहिए, लेकिन 2008 में मात्र 586, 2009 में 509 और 2010 में 233 सीटें ही भरी गई। बचाव में जैसा कि हमेशा यही कहा जाता है कि योग्य उम्मीदवार मिले ही नहीं। संसदीय समिति ने इस बात को सिरेसे खारिज कर दिया कि देश में उम्मीदवार नहीं हैं। इतना ही नहीं रेलवे पुलिस फोर्स में भी आठ हजार पद खाली हैं। स्थायी समिति की तरफ से रेल मंत्रालय को सलाह दी गयी है कि वह अपने यहां महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के लिए पर्याप्त कदम उठाए। वैसे हमारे देश में किसी भी क्षेत्र की नौकरियों में खाली स्थानों का नहीं भरा जाना और सालों साल रिक्त पड़े पद एक गम्भीर मुद्दा है। चाहे आप डाक विभाग देखें, टेलीफोन निगम, नगर निगम या अन्य कोई भी दफ्तर लें। लेकिन यह तय है कि जितनी भी नई नियुक्तियां होती हैं उनमें महिलाओं की भागीदारी के अनुपात में भारी असमानता मौजूद है। यह गम्भीर चिंता का विषय है क्योंकि इसके बिना महिला सशक्तिकरण तथा लैंगिक समानता का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है। सभी क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना इसलिए जरूरी है कि यह उनका अधिकार है। जरूरी है कि महिलाएं कामकाजी बनें और आर्थिक निर्भरता की स्थिति समाप्त हो। साथ ही यदि महिलाएं पर्याप्त संख्या में बाहर का कामकाज सम्भालेंगी तो सार्वजनिक दायरे का पूरा वातावरण भी बदलेगा। किसी भी क्षेत्र में महिलाओं की इतनी कम उपस्थिति वातावरण को स्वत: ही पुरुष वर्चस्व वाला बना देती है और यह महिलाओं के लिए भय पैदा करने वाला होता है। असामाजिक तत्वों पर काबू पाना तथा रेल परिसर एवं यात्रा के दौरान सुरक्षित वातावरण निर्मित करना रेल विभाग की जिम्मेदारी है। ऐसा न करने पर उसके खिलाफ आवश्यक कार्रवाई भी होनी चाहिए।