Monday, April 9, 2012

रेलवे में उपेक्षित और असुरक्षित महिलाएं

पिछले माह रेल मंत्रालय काफी में चर्चा रहा। दिनेश त्रिवेदी से यह मंत्रालय लेकर तृणमूल के ही मुकुल राय को थमाया गया है। यात्री भाड़े में वृद्धि को लेकर नाखुश ममता बनर्जी ने यह बदलाव कराया है। निश्चित तौर पर दीदी से जनता खुश हुई होगी कि उन्होंने उनका खयाल किया। चूंकि महिलाएं भी अच्छी- खासी संख्या में सफर करती हैं लिहाजा उन्हें भी किराए में कमी का निश्चित लाभ मिलेगा। लेकिन ट्रेनों में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध पर न तो दीदी का ध्यान गया, न दिनेश त्रिवेदी ने इस पर कोई विशेष पहल की और न मुकुल राय ने अब तक इस मामले में किसी खास बंदोबस्त का वायदा किया है। रेल यात्रा के दौरान सुरक्षा के प्रश्न पर चलते-चलाते तो सभी मंत्री तथा अधिकारी गण दो-चार आासन के वाक्य बोल जाते हैं और जिम्मेदारी जीआरपी को सौंप जाते हैं। लेकिन मामला सिर्फ सुरक्षा गश्त बढ़ाने का नहीं है बल्कि ठोस उपाय करने का है। समूची रेल व्यवस्था में लैंगिक असंवेदनशीलता का मसला गम्भीर है। चाहे वह महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने का सवाल हो, बोर्ड के गठन में उनके प्रतिनिधित्व का विषय हो या फिर बुनियादी सुविधाएं- शौचालयों तथा चेंजिंग रूम आदि की व्यवस्था का प्रश्न हो, कहीं भी आसानी से वह रवैया देखा जा सकता है जो स्त्री विरोधी है। असुरक्षा से बचाव के कारगर उपाय करना रेलवे के एजेंडे में कहीं है भी, लगता नहीं। ज्ञात हो कि हाल में खुद रेल विभाग के आंकड़े बताते है कि अपराध बढ़ रहे हैं। बीते साल 2011 में रेल परिसर में बलात्कार, हत्या, डकैती एवं छेड़छाड़ के 712 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2010 में यह आंकडा 501 था। 2011 में बलात्कार के 15 तथा छेड़खानी के 362 मामले दर्ज हुए जो 2010 में क्रमश: 10 और 252 थे। सुरक्षा के इंतजाम का जिम्मा आरपीएफ तथा जीआरपी पर है। मंत्रालय के अधिकारियों का जोर महज वीआईपी ट्रेनों जैसे राजधानी, शताब्दी, दुरंतो या एसी कोचों में गश्त बढ़ाने पर होता है। सुरक्षा इंतजामों का बड़ा हिस्सा इन ट्रेनों पर लगाया जाता है जबकि अन्य द्वितीय श्रेणी वाले कोचों में गश्त वाले भी कभी-कभार ही दिखते हैं। रेल विभाग ने मीडिया के माध्यम से बताया है कि वह एकीकृत सुरक्षा पण्राली के तहत 202 सीसी टीवी स्टेशनों पर लगवा रहे हैं जबकि स्टेशन की तादाद लगभग 8 हजार है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि दर्ज मामलों के जो आंकड़े हैं उनकी तुलना में वास्तविक घटनाएं अधिक होती हैं। इसकी वजह यह है कि यात्रियों के लिए सफर के दौरान शिकायतों की प्रक्रिया को अंजाम देना कई बार संभव नहीं होता है। कोच के अंदर न तो कर्मचारी दिखते हैं, न ही कोई हेल्पलाइन नंबर होता है। अगर स्टेशन पर नीचे उतर कर शिकायत करने जाएं तब तक ट्रेन छूटने का डर होता है। जो अन्य उपाय हो सकते हैं उनके बारे में यात्रियों को जानकारी भी नहीं होती है। कोई प्रचार भी इस बारे में रेलवे करता नहीं दिखता है। जैसा कि दिल्ली में डीटीसी बसों के लिए निर्देश है कि हर बस में स्पष्ट रूप में और कई जगहों पर हेल्प लाइन नंबर लिखा होना चाहिए जिसे छेड़खानी का सामना करने वाली लडकियां-महिलाए इस्तेमाल कर सकती हैं। लगता है कि महिलाओं को सुरक्षित सफर का भरोसा दिलाना अभी रेलवे की प्राथमिकता नहीं बना है। न सिर्फ ट्रेन के अंदर बल्कि स्टेशनों पर भी वातावरण असुरक्षा का ही है। महानगरों के स्टेशनों पर भीड़ के कारण फिर भी किसी बड़ी अनहोनी का भय नहीं लगता, लेकिन खासतौर पर उत्तर भारत के कई छोटे स्टेशनों पर सुरक्षा के कोई उपाय नहीं दिखते हैं। खासकर रात के वक्त किसी ट्रेन पर अकेले चढ़ना या उतरना महिलाओं के लिए असुरक्षित होता है। रेल परिसर में और यात्रा दौरान तो महिलाओं को अपराध और असुरक्षा का सामना करना ही पड़ता है, विभागीय स्तर पर भी उनके साथ भेदभाव आम है। मसलन, रेलवे ने अपनी भर्ती नीति अभी तक दुरुस्त नहीं की है। संसद की स्थायी समिति की तरफ से उसकी भर्ती नीति पर गंभीर सवाल उठाये गए थे। यहां विभिन्न विभागों में न्यूनतम 5.45 से अधिकतम 7.70 फीसद महिला कर्मचारी थी। रिपोर्ट में बताया गया था कि ग्रुप ए, बी, सी और डी श्रेणी में क्रमश: 6.79, 5.45, 7.70 और 6.20 फीसद महिला कर्मचारी हैं। खेल कोटे के तहत होनेवाली भर्तियों को भी रेलवे ने अनदेखा कर रखा है। यहां हर साल 1181 रिक्तियां खेल कोटे के तहत भरी जानी चाहिए, लेकिन 2008 में मात्र 586, 2009 में 509 और 2010 में 233 सीटें ही भरी गई। बचाव में जैसा कि हमेशा यही कहा जाता है कि योग्य उम्मीदवार मिले ही नहीं। संसदीय समिति ने इस बात को सिरेसे खारिज कर दिया कि देश में उम्मीदवार नहीं हैं। इतना ही नहीं रेलवे पुलिस फोर्स में भी आठ हजार पद खाली हैं। स्थायी समिति की तरफ से रेल मंत्रालय को सलाह दी गयी है कि वह अपने यहां महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के लिए पर्याप्त कदम उठाए। वैसे हमारे देश में किसी भी क्षेत्र की नौकरियों में खाली स्थानों का नहीं भरा जाना और सालों साल रिक्त पड़े पद एक गम्भीर मुद्दा है। चाहे आप डाक विभाग देखें, टेलीफोन निगम, नगर निगम या अन्य कोई भी दफ्तर लें। लेकिन यह तय है कि जितनी भी नई नियुक्तियां होती हैं उनमें महिलाओं की भागीदारी के अनुपात में भारी असमानता मौजूद है। यह गम्भीर चिंता का विषय है क्योंकि इसके बिना महिला सशक्तिकरण तथा लैंगिक समानता का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है। सभी क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना इसलिए जरूरी है कि यह उनका अधिकार है। जरूरी है कि महिलाएं कामकाजी बनें और आर्थिक निर्भरता की स्थिति समाप्त हो। साथ ही यदि महिलाएं पर्याप्त संख्या में बाहर का कामकाज सम्भालेंगी तो सार्वजनिक दायरे का पूरा वातावरण भी बदलेगा। किसी भी क्षेत्र में महिलाओं की इतनी कम उपस्थिति वातावरण को स्वत: ही पुरुष वर्चस्व वाला बना देती है और यह महिलाओं के लिए भय पैदा करने वाला होता है। असामाजिक तत्वों पर काबू पाना तथा रेल परिसर एवं यात्रा के दौरान सुरक्षित वातावरण निर्मित करना रेल विभाग की जिम्मेदारी है। ऐसा न करने पर उसके खिलाफ आवश्यक कार्रवाई भी होनी चाहिए।

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