Wednesday, April 13, 2011

एक सराहनीय शुरुआत


पंजाब में लड़कियों की संख्या बढ़ने पर लेखक की टिप्पणी
पंजाब के लिए यह सुखद समाचार है कि यहां नवजात लड़कियों की संख्या बढ़ी अथवा यूं कहिए कि कुछ लड़कियां मरने से बच गई। शुभ समाचार यह भी है कि एक सौ दस वर्ष बाद महिलाओं की संख्या पंजाब में एक हजार पुरुषों के मुकाबले 893 हुई। जिस पंजाब में सन 2001 में जीरो से छह वर्ष की आयु की लड़कियां प्रति हजार लड़कों की तुलना में केवल 798 रह गई थीं, अब 846 हो गई। इसके साथ ही पंजाब में नवजात बच्चों की मृत्यु दर कम हुई है। वर्ष 2007 तक पंजाब में पैदा हुए एक हजार बच्चों में से 43 बच्चे अपने जीवन का प्रथम वर्ष भी पूरा नहीं कर पाते थे अर्थात प्रति वर्ष बीस हजार से ज्यादा बच्चे मौत के मुंह में चले जाते थे। इसका कारण कभी निरक्षरता, कभी गरीबी कहा जाता, पर वास्तविकता यह थी कि कुछ लोग अंधविश्वास के कारण और कुछ अज्ञानता के कारण सरकारी अस्पतालों में प्रसव के लिए नहीं जाते थे। अब मेरे लिए विशेषकर यह हर्ष और गौरव का विषय है कि सन 2009 के आंकड़ों के अनुसार पंजाब में यह मृत्यु दर 38 रह गई है। पिछले चार वर्षो में पंजाब में अस्पतालों में प्रसव करवाने का चलन बढ़ा है। जहां 2007 में करीब 35 हजार माताएं ही अस्पताल में जाती थीं, सन 2010-11 में एक लाख बीस हजार से ज्यादा माताओं ने सरकारी अस्पतालों में बच्चों को जन्म दिया। सुरक्षित और प्रशिक्षित हाथों में जब मां बच्चे को जन्म देती है तो बहुत सी बीमारियों से मां-बच्चा सुरक्षित रहते हैं और यही कारण है कि बच्चों की मृत्यु दर कम हुई है। लड़कियों की संख्या बढ़ने का भी एक बड़ा कारण यह है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर कम हुई है। जिस दिन से भारत सरकार ने जनगणना के आधार पर यह जानकारी दी है कि पंजाब में लिंगानुपात में सुधार हुआ है, उसी दिन से इसका श्रेय लेने वालों की सूची भी लंबी होती जा रही है। मेरा यह विश्वास है अगर हम सब निर्णय कर लें कि लड़कियों को नहीं मरने देना तो यह काम केवल एक वर्ष में पूरा हो सकता है। जिस देश में लोक हित की जगह परिवार हित भारी हो जाता है, वहां कभी सुधार हो ही नहीं सकते। सब जानते हैं कि डॉक्टर द्वारा मशीनी परीक्षण के बिना मां के गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग ज्ञात नहीं होता। कुछ डॉक्टर चांदी के चंद सिक्कों के लिए ये हत्याएं करवाते हैं और गर्भपात का काम भी तो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति ही करते हैं। हम निश्चित ही ये हत्याएं बंद करवाने में कामयाब हो सकते हैं, अगर कुछ प्रभावी व्यक्ति उन्हें संरक्षण देना बंद कर दें जो ये गैरकानूनी, अमानवीय और घृणित कार्य करते हैं। पंजाब में और देश में ऐसी बहुत सी घटनाएं हो चुकी हैं जहां सत्य की आवाज उठाने वालों को हमेशा के लिए खामोश कर दिया जाता है। नाम अलग-अलग हैं, जैसे सोनवले, सत्येंद्र दुबे, षणमुगम आदि। पर सबका दोष एक ही था, सच के लिए आवाज उठाना। पंजाब में भी कभी अजन्मी बेटियों को मरवाने वालों के पक्ष में हो-हल्ला मचा, कभी खाद्य पदार्थो की शुद्धता की जांच करने गए अधिकारी पीटे गए, कभी नशीली दवाइयां बेचने वालों के समर्थकों ने भरे बाजार इंस्पेक्टर को अपमानित किया, उन्हें घायल किया और कभी किसी अल्ट्रासाउंड सेंटर को बंद करने वाले अधिकारी अवैध ढंग से बंद कर दिए गए। दुखद पक्ष यह कि कानून लागू करवाने वाले भी सुनना, बोलना और काम करना छोड़ गए। मेरा मानना है कि हम कामयाब हो सकते हैं, लड़कियां मरने से बचा सकते हैं, भोजन की शुद्धता की गारंटी कर सकते हैं, नशे और नशीली दवाइयों पर नकेल कस सकते हैं, अगर सारा समाज साथ दे; सही को सही कहने की हिम्मत जुटाए; वोट, रुपया और रिश्तेदारी के मोह के बंधन से कम से कम एक वर्ष के लिए मुक्त हो जाए और गांधीजी के तीन बंदरों ने जो संदेश दिया उसे केवल पारिवारिक शांति के लिए रख दें। सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों को समाप्त करने के लिए हम सब देखें, बोलें और सुनें। इसके बाद सही निर्णय लेकर कर्म क्षेत्र में उतरें। (लेखिका पंजाब सरकार में मंत्री हैं).

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