Saturday, January 8, 2011

महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा

इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई की दहलीज पर समाज में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बराबरी का काम अभी भी अधूरा है। गत वर्षो और दशकों मे स्त्री प्रश्न पर कार्य होता रहा है, कभी आंदोलन अथवा जागरूकता अभियानों द्वारा तो कभी मीडिया जगत की कोशिशों द्वारा। इन्हीं सब का नतीजा है कि आज हालात काफी बदले भी हैं। शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी देखें या नौकरी पेशे में, जिन क्षेत्रों में उनकी संख्या नहीं के बराबर थी और जो क्षेत्र उनके लिए अघोषित रूप से प्रतिबंधित थे वहां भी वे पहुंची हैं। सेना में स्थायी कमीशन का हक पाने के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी और 2010 में यह हक हासिल भी किया। उसी प्रकार सार्वजनिक दायरे में तथा कार्यस्थलों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने की मांग ने जोर पकड़ा। हालांकि यह कानून भी आधा-अधूरा ही सही तैयार हुआ और वह राज्यसभा में पारित होकर लोकसभा में पेश हुआ जो नए वर्ष में कानून की शक्ल ले सकता है। पंचायतों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है तथा वे हर स्तर पर अधिकाधिक मुखर हुई हैं। घर के अंदर के मसले जो पहले निजी ही माने जाते थे वे भी सार्वजनिक दायरों में पहुंच रहे हैं। कभी हिंसा से बचाव के लिए कानूनी सहायता या सुरक्षा की मांग तो कभी तनाव को सुलझाने के लिए मध्यस्थता। तलाक के मामले में भी महिलाओं ने अपनी पहल बढ़ायी है। कुल मिलाकर महिलाओं की गतिशीलता बढ़ी है और आय के स्रोतों पर भी उनका कब्जा बढ़ रहा है। आज महिलाएं अपने हक के प्रति अधिक सचेत हैं। चेतना के स्तर पर यह परिवर्तन और बेहतरी की आकांक्षाएं आने वाले समय में महिलाओं को लामबंद करने में प्रेरक की भूमिका निभाएंगी। यदि हम संभावनाओं पर विचार करें तो 2011 में महिला जगत के लिए कई महत्वपूर्ण मुद्दे होंगे जो चर्चा के केंद्र में होंगे तथा किसी न किसी स्तर पर समाज, सरकार और प्रशासन में महिलाओं का हस्तक्षेप बढ़ेगा। सार्वजनिक दायरे में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ी है लिहाजा उसे सुरक्षित तथा अनुकूल बनाने के लिए लगातार दबाव बनेगा। कार्यस्थल को सुरक्षित बनाने वाला कानून पास हो जाता है तो उसे लागू करवाना तथा बचाव के वे सभी उपाय करना जिससे यौन हिंसा से महिलाओं को सुरक्षा की गारंटी मिले एक अहम मसला होगा। पिछले कई वर्षो में बलात्कार, छेड़छाड़ के अलावा कई अन्य तरह की बढ़ रही हिंसा का सवाल समाज को उद्वेलित और चिंतित करता रहा है। खास तौर पर कम उम्र की लड़कियों के साथ होने वाले सामूहिक बलात्कार तथा हत्या की घटनाओं ने समाज में बढ़ती असुरक्षा की तरफ सभी का ध्यान आकर्षित किया है। सार्वजनिक दायरे में यौन हिंसा से सुरक्षा के साथ ही घरेलू हिंसा तथा परिवारों के अंदर यौन हिंसा भी एक अहम मुद्दा होगा। घरेलू हिंसा कानून बने पांच साल हो चुके हैं इसलिए अब इसके प्रभाव के आकलन का समय भी आ गया है। इससे हिंसा से बचाव के लिए अपनाये जा सकने वाले दूसरे उपायों पर विचार हो सकता है। इसके अलावा पिछले काफी समय से पारिवारिक विवादों को सुलझाने के लिए तथा महिलाओं को न्याय देने के लिए नागरिक कानूनों पर जोर दिया जाता रहा है। पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में ही लायर्स कलेक्टिव एवं महिला आयोग की साझा पहल पर एक विस्तृत विचार-विमर्श का आयोजन किया गया था। इसमें देश के सामने इस कानून के अमल की एक रिपोर्ट भी पेश की गई थी। इसी में यह बात स्पष्ट हुई थी कि भले ही केंद्र सरकार के दबाव में विभिन्न राज्य सरकारों ने भी अपने यहां इस कानून को लागू करने के प्रति अपनी सहमति जताई हो, लेकिन अभी भी इसके लिए न विधिवत फंड का इंतजाम किया गया है और न ही अलग अधिकारी नियुक्त किए गए हैं। दूसरे काम संभाल रहे व्यक्तियों को ही घरेलू हिंसा के मामले संभालने के लिए कहा गया है। विगत कुछ समय से दहेज उत्पीड़न से महिलाओं के बचाव के लिए बने कानून की धारा 498 ए में संशोधन की मांग भी उठती आ रही है। समय-समय पर इस कानून के दुरुपयोग का मुद्दा उठता रहा है। उल्लेखनीय है कि यह धारा आपराधिक कानून की श्रेणी में आता है इसलिए आरोपी का पक्ष सुने बिना पहले कार्रवाई की संभावना पर पुनर्विचार हो रहा है। आने वाले समय में बहस का एक और मुद्दा घर के अंदर होने वाले आपराधिक व्यवहार पर सिविल कानून के अपर्याप्त होने और दूसरे आपराधिक कानूनों की जरूरत का उठेगा। दहेज अपराध लंबे अरसे से एक ज्वलंत मुद्दा है। दहेज उत्पीड़न के नाम पर हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं की संख्या कई गुना अधिक है। समाज में महंगी शादियों का प्रचलन बढ़ रहा है और उपभोक्तावाद ने दहेज का रूप बदल दिया है। इससे लड़की वालों पर दबाव बढ़ा है। इसलिए सख्त कानूनी उपायों के साथ सामाजिक उपाय भी तलाशना जरूरी होग। मसलन, क्या लड़कियों को माता-पिता की संपत्ति में वास्तविक हकदार बनाए बिना इसके कारगर समाधान के बारे में सोचा जा सकता है? यौन हिंसा आधारित गर्भपात जिसे आम भाषा में कन्याभ्रूण हत्या कहा जाता है को लेकर विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन यह समस्या नए-नए क्षेत्रों को अपने चपेट में लेती जा रही है। इस संबंध में भारत में हम इस विचित्र परिदृश्य से रू-ब-रू हैं कि जो अधिक विकसित इलाके हैं, वहां यौन आधारित भ्रूणहत्या का अनुपात ज्यादा है। निश्चित ही यह स्थिति आधुनिकता को केंद्र में रखकर एक व्यापक सांस्कृतिक बदलाव की मांग करती है। संसद तथा विधानसभाओं में महिला आरक्षण बिल पर राजनैतिक दलों की बदनियती उजागर है। वह इस बिल को लटकाए रखना चाहते हैं, लेकिन महिला संगठनों की तरफ से दबाव बनेगा कि उसे पास कराया जाए। पंचायतों में जो महिला प्रतिनिधि चुनकर आ रही हैं वह अपनी असली ताकत का इस्तेमाल कैसे करे तथा वे सशक्त होकर कैसे उभरे यह भी चिंता का विषय रहेगा, क्योंकि उनके पतियों या परिवार के द्वारा उनके काम में हस्तक्षेप की कई खबरे आ चुकी हंै। चूंकि वे आगे भी चुनी जाएंगी इसलिए उनके काम करने के लिए वातावरण घर के अंदर तथा पंचायत दफ्तरों में कैसे निर्मित हो यह जिम्मेदारी प्रशासन तथा राज्य सरकारों की बनेगी। इस संदर्भ में केरल सरकार के पहल की काफी चर्चा है, जिसमें पंचायतों की महिला प्रतिनिधियों के परिवार के पुरुष सदस्यों के लिए भी अलग प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की बात है। घरेलू कामगार जिन्हे बोलचाल में कामवालियां कहते हैं उनकी बढ़ती मांग तथा संख्या के अनुरूप उनके काम की स्थिति और पारिश्रामिक का मुद्दा भी उठ रहा है। हाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस बारे में सरकार को नीति तैयार करने का निर्देश दिया है तथा प्लेसमेंट एजेंसियों के काम करने के तरीके तथा उनकी जवाबदेही तय करने के लिए कहा है। इन एजेंसियों द्वारा मानव तस्करी, वेश्यावृत्ति तथा अन्य अपराधों की भूमिका पर भी रिपोर्टे आ चुकी हैं। डायन हत्या और उत्पीड़न के मुद्दे पर भी नजर होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हर 23 जून को विधवा दिवस मनाने की भी घोषणा हुई है। विधवा, तलाकशुदा अथवा गैर-शादीशुदा महिलाओं को उनके परिवार की संपत्ति में बराबर का हिस्सेदार बनाने तथा परिवार के अंदर उनकी हैसियत को लेकर भी अभियान चलेंगे। इज्जत के नाम पर हत्या तथा जीवनसाथी चुनाव पर समाज को सोचना होगा। ऐसे कई मसले हैं जो भले ही महिलाओं के जीवन में तीव्रता के साथ उपस्थित होते हों मगर वह मुद्दा नहीं बन पाते हैं। मसलन सार्वजनिक शौचालयों की कमी का मसला जो महिलाओं की गतिशीलता को नियंत्रित रखने का औजार बनता है। इस बारे में हमारे समाज में संवेदनशीलता की भारी कमी है। इसी तरह जनसंख्या नियंत्रण का बोझ भी औरत पर ही है। घर के अंदर बिना पैसे वाला काम भी स्त्री-पुरुष में बंटे और वह सिर्फ औरत का काम न समझा जाए। बच्चों की देखभाल का काम माता-पिता दोनों के लिए सुनिश्चित कराने हेतु कानून बनाने की जरूरत है। इसी तरह मातृत्व अवकाश हर महिला कर्मचारी को सुनिश्चित हो फिर चाहे वह सरकारी, गैर-सरकारी अथवा असंगठित क्षेत्र में ही क्यों न कार्यरत हो।

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