Sunday, January 23, 2011

रूढि़यों के ताले में मुस्लिम महिलाएं


यह सही है कि धर्म अथवा मजहब के सिद्धांतों के अनुरूप ही मनुष्य को आचरण करना चाहिए, क्योंकि मजहब कभी भी हमें गलत सीख नहीं देता। हां, इतना जरूर है कि मजहब के नाम पर रूढि़यों की बेड़ी से जकड़ने से बचना चाहिए, क्योंकि वह कभी-कभार विकास में बाधक भी बनने लगता है। इसके दूरगामी परिणाम काफी प्रतिकूल होते हैं। देश-दुनिया में मुस्लिम महिलाओं के साथ आज कमोबेश यही सब हो रहा है। मुस्लिम महिलाएं जब भी सशक्त होने के लिए आगे बढ़ती हैं, उनके सामने मजहबी अवरोध और फतवों की दीवार खड़ी करके उन्हें रोक दिया जाता है और इसका नुकसान उनके पूरे समाज को होता है। वर्तमान विकास के मौजूदा हालात में महिला सशक्तिकरण किसी भी समाज एवं राष्ट्र के विकास का मूल आधार बन गया है। महिलाओं की बढ़ती हुई शक्ति व जागरूकता ने आज विश्र्व मंच पर अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की है। भारत की महिलाएं भी अब रूढि़यों को तोड़कर सचेत होने लगी हैं। हालांकि अभी तक भारतीय समाज की सभी वर्गो, संप्रदायों, जातियों और धर्मो की महिलाओं को विकास की मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जा सका है। यहां की मुस्लिम एवं दलित वर्ग की महिलाएं अभी तक अनेक रूढि़गत कुरीतियों में जकड़ी और अपेक्षाकृत पिछड़ी हुई हैं। यदि हम वैश्वीकरण के इस युग में विकास की ओर तीव्रगति से उन्मुख होना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि सभी भारतीय महिलाओं की समान सहभागिता सुनिश्चित की जाए। जब तक हम ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो पाते हैं तब तक हम पूर्ण विकास के लक्ष्य को शायद ही प्राप्त कर पायेंगे। भारत में तो महिलाओं के लिए लगातार अनुकूल हालात बनते जा रहे हैं। इसका लाभ लेने के लिए समाज के हर वर्ग की महिलाओं को आगे आना चाहिए। कोई इस बात को स्वीकार करे या न करे, लेकिन भारतीयों ने वास्तविक महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ी छलांग लगा ली है। महिला सशक्तिकरण का इससे बेहतर और क्या उपाय होगा कि देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो जाए। यह काम एक महिला नेता सोनिया गांधी के हाथों ही होने जा रहा है जो अपने आपमें एक ऐतिहासिक कदम है। इसका कारण यह है कि पुरुष प्रधान समाज में महिला आरक्षण के लिए एक महिला का राजनीतिक साहस जुटाना कोई आसान बात नहीं थी। इसमें कोई शक नहीं है कि इतिहास सोनिया गांधी को महिला सशक्तिकरण के लिए याद करेगा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने सबसे पहले 1930 के दशक में ही जबकि समाज में आरक्षण को लेकर बहुत विरोध चल रहा था सबसे दबे, कुचले और दलित वर्गो के सशक्तिकरण के लिए आरक्षण की आवश्यकता को स्वीकार किया था। इसी प्रकार दूसरी पिछड़ी जातियों के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990 में सरकारी नौकरियों में आरक्षण निर्धारित कर दिया। अब सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक के जरिये महिला सशक्तिकरण का बीड़ा उठाया है। आज इस तरह का आरक्षण किए बिना दबे-कुचले वर्गो और महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं किया जा सकता। कम से कम भारतीय राजनीति में तो आरक्षण को ही पिछड़ों के सशक्तिकरण का उपाय मान लिया गया है। आरक्षण न केवल सशक्तिकरण, बल्कि सामाजिक न्याय का भी एक मजबूत हथियार सिद्ध हुआ है। फिर वह चाहे दलित हों या पिछड़े, प्रत्येक आरक्षित वर्ग आरक्षण के बाद अधिक सशक्त हुआ है। यहां मूल विषय यह है कि रूढि़यों की बेड़ी में जकड़ी मुस्लिम महिलाओं को भी आज सशक्त बनाने की दिशा में प्रयास किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि राजनीतिक-सामाजिक सशक्तिकरण के अलावा धार्मिक सशक्तिकरण भी जरूरी है। इसके लिए बीच में आने वाली हर तरह की मजहबी दीवार को रोकने की जरूरत है। यदि हाल-फिलहाल में मुस्लिम महिलाओं के लिए जारी किए गए कानूनों की चर्चा करें तो यह पता चलेगा कि उन्हें किस दौर से गुजरना पड़ता होगा। कहा गया है कि मुस्लिम महिलाएं जींस नहीं पहनेंगी, मोबाइल फोन पर बात नहीं करेंगी, इंटरनेट नहीं चलाएंगी, नौकरी नहीं करेंगी, सार्वजनिक रूप से कहीं भी नहीं जाएंगी। वह किसी राजनीतिक अथवा सामाजिक मंच से भाषण नहीं दे सकतीं और वह जज जैसे पदों पर बैठने के योग्य नहीं हैं। एक कलाकार के रूप में दुनिया भर में अपनी पहचान स्थापित करने वाली पाकिस्तानी अभिनेत्री वीना मलिक के विरुद्ध यह कहते हुए मुकदमा दर्ज करा दिया जाता है कि उनके आचरण इस्लाम विरोधी हैं। चर्चित लेखिका तस्लीमा नसरीन का विरोध इसलिए किया जाता है कि वह बेबाक तरीके से अपनी बातें रखतीं हैं। विभिन्न फतवों व मंचों के उलेमा और शिक्षाविद इस तरह के फरमान जारी करते रहते हैं। यह अलग बात है उनके इन फरमानों में कोई ना कोई सकारात्मक पहलू जरूर होंगे पर जिस बात की चर्चा होती है वह मुस्लिम महिलाओं में नकारात्मक भाव पैदा करते हैं। इस स्थिति में मुस्लिम महिलाएं यह सोच भी नहीं पातीं कि उन्हें स्वावलंबी बनना है तथा देश-समाज के उत्थान में अपनी भूमिका निभानी है। यह हालात न तो मुस्लिम महिलाओं के लिए ठीक हैं और न ही उनके परिवार, राष्ट्र व समाज के लिए। आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम महिलाओं में अशिक्षा ज्यादा है। छोटी उम्र में लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता और बाद में अशिक्षित रहते हुए उनका बाल-विवाह कर दिया जाता है। समय से पहले मां बनने के बाद जब बच्चा बड़ा होता है तो वह भी शिक्षा के प्रति प्रेरित नहीं हो पाता। इसके पीछे कारण यही है कि उसकी मां अशिक्षित होती है। बहरहाल अब स्थितियां बदल रही हैं। इस स्थिति में आज सभी को जागरूक होने की जरूरत है कि मुस्लिम महिलाएं भी इसी समाज की हिस्सा हैं और उन्हें स्वावलंबी बनाना है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्प्णीकार हैं)


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