Friday, March 11, 2011

शिक्षा ही सशक्तिकरण


कल ही हमने ’महिला दिवस‘ मनाया है, तमाम बड़ी - बड़ी बातों के बीच जिन चीजों को हम भूल जाते हैं, उनमें खास है पाठय़पुस्तकों में मौजूद लिंग के आधार पर भेदभाव। फिर बात चाहे छोटे स्कूलों की हो या बड़े नामी स्कूलों की। पढ़ाई-लिखाई से लेकर खेलकूद, लाइब्रेरी, लैबोरेट्री में भेदभाव का शिकार हो रहीं लड़कियां भला कैसे वह पाठ समझ पाएंगी, जो उन्हें सशक्तिकरण की ओर ले जाएगा। सही व उचित शिक्षा पण्राली से बेजार सरकार का ध्यान इन मुद्दों की तरफ नहीं जाता, आंकड़ों सहित बता रहे हैं शिरीष खरे-

सरकार ने लड़कियों के हकों की खातिर सशक्तिकरण के लिए शिक्षा का नारा दिया है लेकिन नारा देना जितना आसान लगता है, लक्ष्य उतना ही मुश्किल हो रहा है क्योंकि देश में इशाका जैसी 50 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती हैं। आखिरी जनगणना के अनुसार, भारत की 49.46 करोड़ महिलाओं में से सिर्फ 53.67 प्रतिशत साक्षर हैं। मतलब 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। ‘क्राई’ के अनुसार, भारत में 5 से 9 साल की 53 प्रतिशत लड़कियां पढ़ना नहीं जानतीं। इनमें से अधिकतर रोटी के चक्कर में घर या बाहर काम करती हैं। यहां वे यौन-उत्पीड़न या र्दुव्‍यवहार की शिकार बनती हैं। 4 से 8 साल के बीच 19 प्रतिशत लड़कियों के साथ बुरा व्यवहार होता है। इसी तरह 8 से 12 साल की 28 प्रतिशत और 12 से 16 साल की 35 प्रतिशत लड़कियों के साथ भी ऐसा ही होता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉड् र्स ब्यूरो को पता चला कि बलात्कार, दहेज प्रथा और महिला शोषण से जुड़े मुकदमों की तादाद देश में सालाना 1 लाख से ऊपर है। देश में महिलाओं की कम होती संख्या मौजूदा संकटों में से एक बड़ा संकट है। समय के साथ महिलाओं की संख्या और उनकी स्थितियां बिगड़ती जा रही हैं। जहां 1960 में 1000 पुरु षों पर 976 महिलाएं थीं, वहीं आखिरी जनगणना के मुताबिक यह अनुपात 1000 : 927 ही रह गया। यह उनके स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में गिरावट का अनुपात भी है। कुल मिलाकर, सामाजिक और आर्थिक संतुलन गड़बड़ा चुका है। सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए तमाम योजनाएं बनायी हैं। जैसे- घरों के पास स्कूल खोलना, स्कॉलरशिप देना, मिड-डे-मील चलाना और समाज में जागरूकता बढ़ाना। इसके अलावा, ग्रामीण और गरीब लड़कियों के लिए कई ब्रिज कोर्स चलाए गए हैं। बीते 3 बरसों में प्राथमिक स्तर पर 2000 से अधिक आवासीय स्कूल मंजूर हुए हैं। राष्ट्रीय बालिका शिक्षा कार्यक्रम के तहत 31 हजार आदर्श स्कूल खुले जिनमें 2 लाख शिक्षकों को लैंगिक संवेदनशीलता में ट्रेनिंग दी गई। इन सबका मकसद शिक्षा व्यवस्था को लड़कियों के अनुकूल बनाना है। ऐ सी महात्वाकांक्षी योजनाएं सरकारी स्कूलों के भरोसे हैं। लड़कियों की बड़ी संख्या इन्हीं स्कूलों में है, इसलिए स्कूली व्यवस्था में सुधार से लड़कियों की स्थितियां बदल सकती हैं लेकिन समाज का पितृसत्तात्मक रवैया यहां भी रुकावट खड़ी करता है। एक तो क्लासरूम में लड़कियों की संख्या कम रहती है और दूसरा उनके महत्व को भी कम करके आंका जाता है। हर जगह भेदभाव की यही दीवार होती है। चाहे पढ़ाई-लिखाई हो या खेलकूद, लाइब्रेरी हो लेबोरेट्री या अन्य सुविधाओं का मामला। दीवार के इस तरफ खड़ी भारतीय लड़कियां अपनी अलग पहचान के लिए जूझती हैं । हमारा समाज भी उन्हें बेटी, बहन, पत्नी, अम्मा या अम्मी के दायरों से बाहर निकलकर नहीं देखना चाहता। दरअसल, इस गैरबराबरी को लड़कियों की कमी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद हालातों के तौर पर देखना चाहिए। अगर लड़की है तो उसे ऐसा ही होना चाहिए, ऐसी सोच उसके बदलाव में बाधाएं बनती हैं। एक तरफ स्कूल को सशक्तिकरण का माध्यम माना जा रहा है और दूसरी तरफ ज्यादातर स्कूल औरतों के हकों से बेपरवाह हैं। पाठय़पुस्तकों में ही लिंग के आधार पर भेदभाव की झलक देखी जा सकती है। ज्यादातर पाठों के विषय, चित्र और चरित्र लड़कों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। इन चरित्रों में लड़कियों की भूमिकाएं या तो कमजोर होती हैं या सहयोगी। ऐसी बातें घुल-मिलकर बच्चों के दिलो-दिमाग को प्रभावित करती हैं, फिर वह पूरी उम्र परंपरागत पैमानों से अलग नहीं सोच पाते। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनकी गली, मोहल्लों और घरों में महिलाओं के साथ मारपीट होती है। इसके कारण उनके दिलो-दिमाग में कई तरह की भावनाएं या जिज्ञासाएं पनपती हैं लेकिन स्कूलों में उनके सवालों के जवाब नहीं मिलते, जबकि ऐसे मामलों में बच्चों को जागरूक बनाने के लिए स्कूल मददगार बन सकता है। दरअसल, हमारी शिक्षा पण्राली में ही अभद्र भाषा, पिटाई और लैंगिक-भेदभाव मौजूद है, इसलिए स्कूलों के मार्फत समाज को बदलने के पहले स्कूलों को बदलना चाहिए। आज भी कई जगहों पर लड़कियों की सुरक्षा के लिए चारों तरफ दीवार का होना जरूरी माना जा रहा है। दीवारें बनने के बाद दीवारों के समर्थक हो सकता है गाडरे की तैनाती को जरूरी मानने लगें। दरअसल, हमारे स्कूल उस समाज से घिरे हुए हैं, जहां लड़कियों को सुरक्षा के नाम पर कैद करने का रिवाज है। आज भी ज्यादातर लड़कियों के लिए शिक्षा का मतलब केवल साक्षर बनाने तक ही है। बचपन से ही उनकी शिक्षा का कोई मकसद नहीं होता। लड़कियों को बीए और एमए कराने के बाद भी उनकी शादी करा दी जाती है इसलिए लड़कियों की शिक्षा को लेकर रचनात्मक ढंग से सोचना जरूरी है। गांधीजी ने कहा था- एक महिला को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार पढ़ेगा। उन्होंने 23 मई, 1929 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा- जरूरी यह है कि शिक्षा पण्राली को दुरुस्त किया जाए। उसे आम जनता को ध्यान में रखकर बनाया जाए। गांधीजी मानते थे- ऐसी शिक्षा होनी चाहिए जो लड़कों-लड़कियों को खुद के प्रति उत्तरदायी और एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना पैदा करे। लड़कियां के भीतर अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह पैदा हो। इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा, इसलिए महिला आंदोलनों को तर्कसंगत प्रतिरोध के लिए अपने एजेंडा में लड़कियों की शिक्षा को केंद्रीय स्थान देना चाहिए। महिलाओं की अलग पहचान के लिए भारतीय शिक्षा- पद्धति, शिक्षक और पाठय़क्रमों की कार्यपण्राली पर नए सिरे से सोचना भी जरूरी है। (लेखक क्राई से जुड़े हैं )

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