Monday, March 7, 2011

महिला सशक्तिकरण का यक्ष प्रश्न


भारत अपनी स्वतंत्रता के छह दशक बिता चुका है और इन वर्षो में भारत में बहुत कुछ बदला है। विश्व के सबसे मजबूत गणतंत्र में सभी को अपनी इच्छा से जीने, सोचने और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता मिली है, जिसका हम उपभोग भी कर रहे हैं। हालांकि एक वर्ग ऐसा भी है जो आज भी इस सुखानुभूति से वंचित है और वह हैं स्ति्रयां। स्त्री और पुरुष के बीच भेद आज भी कायम है और यह तथ्य आंकड़ों से उद्घाटित होता है जो विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों द्वारा समय-समय पर किए गए सर्वेक्षणों पर आधारित है। एसोचैम की रिपोर्ट बताती है कि भारतीय महिलाएं घर और दफ्तर दोनों ही जगह भेदभाव का शिकार हैं। काम के बढि़या अवसर तो दूर उन्हें पदोन्नति के समान अवसर तक नहीं मिलते, जिस कारण वह उच्च पदों पर नहीं पहुंच पाती हैं। महज 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं। भारत में महिला आर्थिक गतिविधि दर केवल 42.5 प्रतिशत है, जबकि नार्वे में यह 60.3 प्रतिशत और चीन में 72.4 प्रतिशत है। यह आंकड़े बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों के हैं। विश्व के कुल उत्पादन में लगभग 160 खरब डॉलर का योगदान अदृश्य सेवा का होता है, इसमें भारतीय महिलाओं का योगदान काफी बड़ा है। इसके बावजूद समाज के आर्थिक वर्गो की गणना करते हुए घरेलू महिलाओं के श्रम का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाता और उनकी तुलना नगण्य माने जाने वाले पेशों के तहत होती है। देश के नीति-निर्धारकों की ओर से आर्थिक वर्गाीकरण करते हुए देश की आधी आबादी को इस दृष्टिकोण से देखा जाना न केवल उनके श्रम की गरिमा के प्रति घोर असंवेदनशीलता का परिचायक है, बल्कि यह भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा है। विगत दो दशक में महिला सशक्तीकरण की अवधारणा ने जोर पकड़ा है। यह वह प्रक्रिया है जो महिलाओं को सत्ता की कार्यशैली समझने की न केवल समझ देता है अपितु सत्ता के स्रोतों पर नियंत्रण कर सकने की क्षमता भी प्रदान करता है। सामाजिक विकास अंतर्निहित रूप से राजनीतिक होता है, इसलिए यदि यह असमानतापूर्ण और गैर सहभागितापूर्ण हो तो इससे समाज का विकास प्रभावित होगा। इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन के अनुसार विभिन्न देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व वहां की संसद में भारत की अपेक्षा बहुत अधिक है। यूं तो पंचायत और शहरी निकायों के माध्यम से विकास प्रक्रियाओं एवं निर्णयन की प्रक्रिया में सहभागिता बढ़ाने के लिए पचास प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई है। हालांकि अध्ययन बताते हैं कि सत्ता का उपभोग वास्तविक रूप में पदासीन महिलाओं की बजाय उनके परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं। यदि कभी ऐसा नहीं होता तो उसके घातक परिणाम भी देखने में आए हैं। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में एक महिला सरपंच को पूर्व सरपंच तथा उसके साथियों ने बस स्टैंड पर नग्न करके मात्र इसलिए पीटा कि, क्योंकि कार्यभार संभालने के एवज में उसने पंचायत फंड से सात हजार रुपये नहीं दिए। देश का संविधान, विभिन्न कानूनी प्रावधान और व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयास स्त्री को उबारने में लगे हैं, लेकिन महिलाओं की परेशानियां कम नहीं हो रही हैं। देश में शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहां महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस करती हों। बस, ट्रेन, ऑफिस, स्कूल-कॉलेज अथवा भीड़भाड़ वाले स्थानों से लेकर सुनसान रास्तों में फब्तियां कसने, घूरने, छेड़छाड़ आदि की घटनाएं आम हैं। सन 2009 में बलात्कार के 21 हजार मुकदमे दर्ज हुए। इनमें से 15 से 17 वर्ष वाली लड़कियों का प्रतिशत 12 फीसदी रहा तो उनसे छोटी लड़कियों की तादाद 29 प्रतिशत रही। हाल में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले वर्ष, हर तीन में से दो महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हुई। आंकड़े बताते हैं कि लड़कियां और स्ति्रयां बाहर की तरह अपने घरों में भी असुरक्षित हैं। पति और रिश्तेदारों द्वारा होने वाले अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। महिलाओं पर हो रही घरेलू हिंसा के आंकड़े जितने लंबे-चौड़े हैं उतने ही डरावने भी। उत्पीड़न, प्रताड़नाओं और अवहेलनाओं के कंटीले तारों से बींधता भारतीय स्त्री का जीवन इस धरा पर आने के लिए भी संघर्ष करता है। जन्म से पूर्व ही लिंग के प्रति भेदभाव आरंभ हो जाता है। भारत में बालिका भू्रणहत्या के संदर्भ में नोबेल पुरस्कार विजेता अम‌र्त्य सेन ने इस चिंता से सहमति जताई है कि इस कुप्रथा के चलते देश में ढाई करोड़ बच्चियां जन्म से पूर्व ही गुम हो गई। यही नहीं, डब्ल्यूईएफ ने बच्चियों के स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के आंकड़ों के हिसाब से भी पुरुष-महिला समानता की सूची में इन्हें निचले पायदान पर पाया है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मसलों में पुरुष और महिलाओं के बीच लगातार अंतर बना हुआ है। भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है जो कि स्पष्ट करता है कि महिलाएं मानव विकास की उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित हैं। विकसित देशों में प्रति लाख प्रसव पर 16-17 की मातृत्व मृत्युदर की तुलना में भारत में 540 की मातृत्व मृत्युदर, स्वास्थ्य रक्षा और पोषक आहार सुविधाओं में ढांचागात कमियों की ओर इशारा करती है। जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित देश की महिलाएं अनवरत रूप से असमानताओं के दंश झेल रही है। भारतीय महिलाओं में साक्षरता की कमी है सामंती समाज येन-केन प्रकारेण महिलाओं के अधिकारों का हनन परंपराओं के नाम पर करता है। यह विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को ऐसे कटघरे में ला खड़ा करता है जहां उसके पास मानवता के हनन को रोकने का कोई उत्तर नहीं है। जब स्ति्रयां आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ता है, गांव आगे बढ़ता है और राष्ट्र अग्रसर होता है। पर क्या हम वाकई इस तथ्य को आत्मसात कर पाए हैं या फिर स्त्री सशक्तीकरण की नियति महिला दिवस पर चर्चाओं और नारेबाजी तक सीमित हो गई है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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