Monday, March 7, 2011

असमानता की कसक


महिलाओं के साथ भेदभाव पर लेखिका की टिप्पणी
हम महिला दिवस शायद इसलिए मनाते हैं कि कम से कम एक दिन तो महिलाओं की समस्याओं पर गंभीरता से चर्चा कर सकें। पर जितनी गंभीरता से योजनाएं तैयार की जाती हैं, उतनी ही लापरवाही से इनका क्रियान्वयन होता है। अनेक शीर्ष पदों पर आसीन महिलाओं को देखकर लगता है कि भारत की महिलाएं तेजी से कदम बढ़ा रही हैं, नई ऊंचाइयां छू रही हैं पर कुछ दिग्गज महिला राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्यमियों व कलाकारों के आधार पर महिलाओं के बारे में धारणा बनाना सरासर गलत है। महिलाओं को लेकर देश का उपेक्षा भाव इस बात से ही जाहिर हो जाता है कि कन्या भ्रूण हत्या की संसद और विधानसभाओं में शायद ही कभी चर्चा होती हो। उन बेटियों का दर्द कोई नहीं समझ पा रहा जिनकी जन्म से पहले ही हत्या कर कूडे़ के डिब्बे में फेंक दिया जाता है और वे कहीं मेडिकल वेस्ट के नाम पर जला या दफना दी जाती हैं। हमारी सामाजिक कुरीतियां, धार्मिक अंधविश्वास और पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता महिला उत्पीड़न का प्रमुख कारण हैं। भारत में प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर भी छोटे-छोटे पड़ोसी देशों से भी कहीं ज्यादा है। श्रीलंका में एक लाख महिलाएं बच्चों को जन्म देती हैं तो कुल 34 महिलाओं की मृत्यु होती हैं जबकि भारत में यह आंकड़ा 254 है। इसका बड़ा कारण महिलाओं की अशिक्षा, छोटी आयु में शादी तथा प्रसव के लिए अस्पताल तक न पहुंचना है। भारत में बहुत-सी लड़कियां छोटी आयु में ही विवाह के बंधन में बांध दी जाती हैं। श्रीलंका में लड़कियों के विवाह की औसत आयु 23 वर्ष से भी कुछ अधिक है और महिला शिक्षा दर भी पुरुषों से कम नहीं है। यही कारण है कि वहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से तीन प्रतिशत अधिक है और उन्हें बच्चों को जन्म देने के दंड में मौत का सामना नहीं करना पड़ता। महिला दिवस के नाम पर मनाए जा रहे आयोजनों के संदर्भ में क्या हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि महिलाओं के अधिकारों पर भाषण देने के लिए ऐसे नेता, वक्ता मंच पर न सजाएं जिनके अपने परिवारों में ही दहेज लिया-दिया गया है और जिनके परिवार में कभी अजन्मी बेटी की हत्या हुई है। जिस समाज में आज भी ऐसे धर्म स्थान हैं जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित हो, वह कैसे कह सकता है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। सच तो यह है कि बहुत सारे देवस्थलों से नारी को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। धर्म के नाम पर यह भी उपदेश दिया जाता है कि अगर अंतिम संस्कार के समय किसी को बेटी का हाथ लग गया तो उस व्यक्ति की आत्मा की कभी गति नहीं हो सकती। जब पुरुष प्रधान समाज के कुछ धर्मगुरु कहते हैं कि बेटी दिवंगत माता-पिता का श्राद्ध नहीं कर सकती और उसकी अपनी आय में से चार पैसे पिता का तर्पण करने में चले गए तो पिता की आत्मा को कष्ट होगा। ऐसा समाज महिलाओं को कहां समानता दे सकेगा? आज भी पूर्व और उत्तर-पूर्व भारत से खबरें आती हैं कि महिला को डायन मानकर पत्थर से मार दिया गया या जला दिया गया। आज भी उन महिलाओं की पूजा होती है जो कभी पति की चिता पर जल गईं। महिला दिवस मनाने से अच्छा है कि महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण बदला जाए। क्या यह सत्य नहीं कि महिलाओं को आज उपभोग की वस्तु बना दिया गया है। चौराहों पर, शराब के ठेकों पर ऐसे विज्ञापन मिलते हैं, जिन्हें देखकर सिर शर्म से झुक जाता है। उन गीतों पर भी कोई प्रतिबंध नहीं जो महिलाओं की अस्मिता का अपमान करते हैं। रेडियो, टीवी और कैमरे वालों को यह सब दिखाने और सुनाने की छूट दे दी गई। महिला दिवस मना रहे संगठनों और नेताओं से निवेदन है कि हमें न पूजा की वस्तु बनाइए, न पांव की जूती। मानव के नाते जो हमारा स्थान और अधिकार है, बस हमें वही चाहिए। आरक्षण की बैसाखियां नहीं, हमें समानता चाहिए। (लेखिका पंजाब सरकार में मंत्री हैं)

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