Sunday, March 6, 2011

म(र्दा)ना कमजोरी


अपराधियों को उनके खौफनाक बर्ताव के लिए कुछ न कहने वाले ये सारे लोग बार-बार औरतोें को ही क्यों नसीहतें देने पर उतारू हो जाते हैं? कोई कहता है, कराटे सीखो, कोई मिर्च पाउडर लेकर चलने की सलाह देता है। तो कुछ लोग यह भी कहने से नहीं चूकते कि घर से बाहर ही क्यों निकलना? ऐसे लोगों की जानकारी के लिए बता दूं, घरों में कम अपराध नहीं होते। जितने बलात्कार अपने यहां होते हैं, उनमें से 80 फीसद यह कुकृत्य ‘अपने’ कहे जाने वाले पुरुष ही करते हैं। इसे ‘मेल शोवरनिज्म’ का जबर्दस्त उदाहरण माना जा सकता है
लड़कियों को छेड़ने के खिलाफ छपने वाले दिल्ली पुलिस के विज्ञापन को मर्दवादी प्रशासन का नजरिया कहना गलत न होगा। मुझे नहीं पता कितनी लड़कियों का इस पर खून खौलता होगा लेकिन मर्दवादी मानसिकता में लैंगिक श्रेष्ठता की गहरे जमी जड़ों को यह जरूर दिखा रहा है। विज्ञापन में एक आदमी एक लड़की को छेड़ रहा है और तीन-चार मर्द खड़े चुपचाप उसको देख रहे हैं। ऊपर इबारत है-‘इनमें से कोई मर्द नहीं।’ जिस भी पुरुष या पुरुषों ने यह ‘कटीला’ विज्ञापन बनाया है, उनकी बुद्धि पर मुझको तरस आता है। ‘कोई मर्द नहीं है’ का क्या मतलब? मर्द है, तभी तो छेड़ रहा है! अपनी मर्दानगी सरेआम प्रदर्शित कर रहा है! और जिनके सामने वह छेड़ रहा है, वे भी खांटी टाइप के मर्द हैं। इसमें कोई डाउट नहीं होना चाहिए। मर्द हैं, तभी तो मुंह बाये देख रहे हैं कि कैसे उनका भाई छेड़ रहा है? वे अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। अंग्रेजी में इसको ही ‘मेल शोवरनिज्म’ बताया गया है। अपनी भाषा में कहें तो ‘मर्दाना दिमागी दरिद्रता’। जो कदम-कदम पर औरतों के रास्तों में रोड़े बिछाने में फख्र समझती है। मर्दवादी विचारधारा के साथ पले पुरुषों की असल दिक्कत यही है कि अपनी आपराधिक हरकतों को स्वीकारने की औकात नहीं रह जाती है। अव्वल तो उनमें इतनी समझ ही नहीं, दूसरे, उनकी प्राकृतिक संवेदनशीलता पर मर्दाना ऐंठ इतनी गहराई से चस्पां दी जाती है कि वे जनानियों की दिक्कतों को समझने के काबिल ही नहीं रह जाते। अनजाने ही सही पर इस विज्ञापन से सहमत हर बंदा यह स्वीकार रहा है कि औरतें होती ही कमजोर हैं और उनको हर वक्त मदद के लिए किसी ‘पुरुष’ के सहारे की जरूरत होती है। ‘इनमें से कोई मर्द नहीं’ बता कर पुलिस इनकी मर्दानगी को ललकारने का प्रयास कर रही है। वह भूल रही है कि मर्दानगी की ऐंठ में ही तो वह राह चलती लड़की को छेड़ रहा है। लड़की के साथ अश्लील व्यवहार करना, उसके कान में अपशब्द बुदबुदा कर निकल जाना, उसका बदन छूना-नोंचना, भौंडी गाली देने को जो मर्दानगी समझते हैं, उनको उकसाने वाला ज्यादा लगता है यह विज्ञापन। छेड़छाड़ होते देखकर मुंह घुमाने वालों को नपुंसक बता कर भी मर्दानगी के कसीदे ही काढ़े जा रहे हैं। सरकार या प्रशासन यह मानने को कतई तैयार नहीं कि लड़की भी पलट वार कर सकती है। वह अपने खिलाफ होने वाले अपराध को खुद रोकने के लिए प्रयत्नशील हो सकती है। दरअसल, वे चाहते हैं कि औरतें, पुरुषों पर आश्रित रहें। बात सुरक्षा की हो तो वे पुरुषों का मुंह ताकती रहें। जो अपराधी हैं, उनसे ही सुरक्षा की गुहार लगाएं? किसी भी कीमत पर उनमें इतना नैतिक साहस न उपजे कि वे अपने खिलाफ होने वाले अपराधों को खुद रोकने के लिए कम से कम आवाज उठाने की भी हिम्मत जुटा सकें। सम्बन्धित अधिकारियों को याद दिलाने की जरूरत है कि जब यहीं दिल्ली में मैट्रो में औरतों के लिए कोच आरक्षित की गई थी तो जबरन उसमें घुसने वाले पुरुषों को किस हिम्मत के साथ औरतों ने सामूहिक रूप से पीट- पीट कर निकाल बाहर किया था। तब उनमें से कौन ‘मर्द’ थी? यह मर्दाना विचार उस सोच से कतई अलग नहीं कहा जा सकता, जिससे लैस एक सज्जन ने यहीं दिल्ली एयरपोर्ट पर यह कहते हुए तहलका मचा दिया था, ‘औरतें घर तो ठीक से चला नहीं सकतीं, वे हवाई जहाज क्या उड़ाएंगी’? महिला पायलट के खिलाफ की गई इस टिप्पणी में न केवल लैंगिक ठसक है बल्कि यह औरतों की क्षमताओं पर उठने वाले खतरनाक विचारों का संकेत भी है। औरतों की योग्यता पर संदेह करने वाले पुरुषों से यह समाज भरा पड़ा है। अक्षम और नकारा पुरुषों के खिलाफ तो औरतें कभी इस तरह की कोई तोहमत नहीं लगाती मिलतीं। सरकारी दस्तावेज ही स्वीकारते हैं कि 80 फीसद औरतें खुद को सार्वजनिक स्थानों पर असुरक्षित मानती हैं। 60 फीसद से ज्यादा छेड़छाड़ से त्रस्त हैं। बलात्कार के बाद सबसे बड़ी संख्या में छेड़छाड़ के मामले ही पुलिस रिकार्ड में हर साल देश भर में दर्ज किये जाते हैं। तय रूप में ये जो मामले दर्ज होते हैं, आधे से भी कम होते होंगे। ये सारी व्यवस्था पुरुषों ने इतनी उलझा रखी है, कि औरतें चाह कर भी उनके प्रभाव से नहीं निकल सकतीं। बचपन से ही परिवार द्वारा औरतों की मेंटल कंडीशनिंग करते हुए, उनके जेहन में कमजोर होने का सबक याद करा दिया जाता है। जो आगे चल कर समाज के ताने-बाने में परफेक्टली सटीक बैठता चला जाता है। आंकड़े कहते हैं कि हमारे आधे से ज्यादा बच्चे किसी न किसी तरह के सेक्सुअल हरेसमेंट के शिकार होते हैं। माफ कीजिए, यह बताते हुए आपकी जुबान क्यों नहीं कट जाती कि यह शोषण करने वाला नपुंसक आपका कोई भाई ही होता है? इन अपराधियों को उनके खौफनाक बर्ताव के लिए कुछ न कहने वाले ये सारे लोग बार- बार औरतोें को ही क्यों नसीहतें देने पर उतारू हो जाते हैं? कोई कहता है, कराटे सीखो, कोई मिर्च पाउडर लेकर चलने की सलाह देता है। तो कुछ लोग यह भी कहने से नहीं चूकते कि घर से बाहर ही क्यों निकलना? ऐसे लोगों की जानकारी के लिए बता दूं, घरों में कम अपराध नहीं होते। जितने बलात्कार अपने यहां होते हैं, उनमें से 80 फीसद यह कुकृत्य ‘अपने’ कहे जाने वाले पुरुष ही करते हैं। इसे ‘मेल शोवरनिज्म’ का जबर्दस्त उदाहरण माना जा सकता है। औरतों की तुलना में खुद को श्रेष्ठ मानकर, उन पर जबरन अपनी यौन कुंठाएं उतारना, घिनौना और निकृष्ट कार्य है। ये कमजोर मन वाले ही, अपनी अतृप्त इच्छाओं और वासनाओं का ठीकरा मासूम औरतों पर उड़ेल कर खुद को मर्द साबित करने में जुट जाते हैं। उनके पक्ष में जो चीजें जाती हैं, उनमें प्रमुख तो हमारी अपनी औरतों का भोलापन ही है। जो अपने वजूद को ही नहीं पहचानना चाहतीं। जिनके लिए पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती देना किसी प्राथमिकता में नहीं आता। कौन जाने, इसकी पहल के लिए उनको किसका इंतजार है? जैसे हनुमान जी को उनकी ताकत और हिम्मत की याद दिलानी पड़ी थी, ठीक वैसे ही कोई शक्तिमान आकर चेताएगा कि वे जो चाहें कर सकती हैं। दकियानूस के गहरे बीजों को समझने के लिए इतना ही काफी है कि बीते साल जब फ्रांस की उन औरतों के पक्ष में प्रशासन खुलकर आया, जिनको अब तक अपने आपको परदों में रहना पड़ता था। फ्रांसीसी राष्ट्रपति सरकोजी के बुरका पहनने पर पाबंदी लगाने की घोषणा के बाद तमाम बुरकानशींनों ने इसके पक्ष में बोलना शुरू कर दिया था। उनका तर्क था कि हमें अपने आपको ढक कर ही रखना चाहिए। यह कहते हुए वे नहीं समझ रही थीं कि पर्दादारी उनकी मुक्ति में बाधक है। कोई व्यवस्था या धर्म यह कैसे तय कर सकता है कि स्त्री कैसे रहेगी या क्या पहनेगी? बदन उघाड़े फिरने की बात तो सरकोजी ने भी नहीं की थी। दकियानूस विचार को फेंकने में अतिरिक्त ऊर्जा तो लगानी ही पड़ती है, लेकिन उसके फ्रांस की बुर्कानशीन औरतें मन से तैयार नहीं थीं। पीढ़ियों गुलामी में जीने के कारण आजादी, फिक्रमंदी और बिन्दास रहने की उनकी तमन्ना ही गुम गई। गुलामी रास आने लगी। उसके पक्ष में तर्क गढ़ लिये। जैसे अपने यहां पतियों के उद्धार के लिए औरतें करवाचौथ करने से बाज नहीं आतीं। वे तरह-तरह की दलीलें देती फिरती हैं। उत्सवमय आयोजन, उल्लास या आनन्द से इसको जोड़ लेती हैं। वे दुहाई देती हैं, यह सब तो परिवार की खुशी के लिए है। वे यह नहीं समझना चाहतीं कि यही तो उनके व्यक्तित्व को कमजोर करने के हथियार हैं। उनसे गुलामी कराने के आइडियाज। मनोविज्ञान कहता है, कोई भी व्यक्ति जन्मजात गुलाम नहीं होता। उसकी मानसिकता में गुलामी के बीज बोये जाते हैं और इसके लिए मजबूर किया जाता है। कमोवेश औरतों के भीतर ये बीज इतने गहरे हैं कि उनको जड़ से मिटाने में दो- चार पुश्त लग जाएं तो कम नहीं होगा। गुलामी को सूटेबल बनाये रखने की चाहना और संघर्ष/कठिन जीवन का भय दुबकाये रखता है। जोखिमों से जूझना और कड़े संघर्ष द्वारा ‘आत्मसम्मान’ भरा जीवन जीना डरावना लगता है क्योंकि जिसको नियति मान लिया गया वह मर्दानी व्यवस्था है। जलालत, उपेक्षा, असमानता और असम्मान से भरे वातावरण को जीने लायक मानने से महिलाओं की जिंदगी की असलियत नहीं बदल सकती। अकसर थके-हारे लोग तो दलील देते हैं कि परंपराओं के अभाव में जीने वाला समाज शुष्क होता है। पर वे यह नहीं समझते कि हमारी परंपराएं पुरुषैण हैं। उन पर पुरुषों का वर्चस्व है। चूल्हा किसी भी घर सबसे महत्वपूर्ण होता है। इसकी पूजा औरतें करती हैं पर मर्द क्यों नहीं? उनको चूल्हे का महत्व नहीं पता या चूल्हा छूना जनानी या हेय काम है? दरअसल, खाना पकाने को निम्न काम मानने वाले पुरुष चटखारे ले-ले कर खाना तो जानते हैं पर खुद चूल्हा-चौकी को गंभीरता से नहीं लेते। दासता रास आ रही है सबको। परिवार व्यवस्था को दासत्व में तब्दील करने वाले मन ही मन मुस्कुराते हैं। यूथ चैनल बिन्दास का पॉपुलर प्रोग्राम है-लव लॉकअप। युवा प्रेमी जोड़े यहां कैमरों के बीच कैद किये जाते हैं। आपसी रिश्ते सुधारने या एक-दूसरे को बेहतर जानने के लिए। दूसरा स्टार पर ‘वाइफ बिना लाइफ’ कार्यक्रम आता है। नाम से साफ है, बीवी के बिना घर संभालने वाला रियलिटी शो है। यंग जोड़े घर के काम को लेकर यहां भी झींकते हैं, ये काम तो औरतों का है? मैं यह करूं? ये वही आदमी हैं, जो कहते हैं, क्या मैं फटका मारूं? बर्तन मलूं? खाना पकाऊं? इनके चरित्रों को कैसे समझाया जाए? आप यह सब क्यों नहीं कर सकते? जब औरत बही खाता संभाल सकती हैं। जटिल ऑपरेशन कर सकती हैं, हवाई जहाज उड़ा सकती हैं और तो और खेलों में दुनिया भर के सामने आपके देश का झंडा गर्व से फहरा सकती हैं तो वे काम आप क्यों नहीं कर सकते जिनको अब तक उनके लिए आरक्षित कर रखा था?


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