Sunday, March 6, 2011

धिक्कार क्यों गायब हो रहे फैसलों से ?


आठ मार्च को पुन: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है। भारत में सन् 2010 में महिलाओं के हित में कई कानून बनाने की कोशिशें होती रहीं पर कामयाबी ज्यादा नहीं मिली। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न सम्बंधी ड्राफ्ट बना, पर उसे संसद के पटल पर नहीं रखा जा सका। इस बात पर एक राय नहीं बन पायी कि गलत (लिखित) रिपोर्ट करने वाली महिला पर मुकदमा चलाया जाए या नहीं।
संवेदनशील मुद्दे पर हावी राजनीति
दो प्यार करने वाले जो भले ही एक जाति या सम्प्रदाय के हों या न हों; उन्हें सरेआम मौत के घाट उतारा जाता रहा, पर खाप पंचायत या अन्य परिवार/समाज वालों के खिलाफ कानून बनाना सम्भव नहीं हो पाया। इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति हावी रही। सन् 2009 में बलात्कार के 21,000 मुकदमे दर्ज हुए। इनमें से 15 से 17 वर्ष वाली लड़कियों का प्रतिशत 12 रहा तो उनसे छोटी बच्चियों की तादाद 29 फीसद रही। दिल्ली में गैंग रेप के मामले इतने बढ़े कि हर 2-4 दिन पर एक घटना हो रही है। 23 फरवरी को शू कम्पनी में काम करने वाली 23 वर्षीय लड़की सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई तो 25 फरवरी को फिर एक लड़की के साथ यही कुछ हुआ।
चौंकाते हैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले
ऐसे हालात में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ फैसले चौंकाने वाले हैं। जो लोग लड़कियों के बारे में सही सोच रखते हैं उन्हें ऐसे फैसलों से धक्का पहुंचा है। उनका सवाल है- क्यों ऐसे फैसले दिये जा रहे हैं जो अपराधियों का मनोबल बढ़ा रहे हैं और लड़कियों और उनके अभिभावकों को दहशत में डाल रहे हैं? अभियुक्तों के प्रति यह ‘मिसप्लेस्ड’ (कुठौर) सहानुभूति क्यों?
भय-अज्ञानता में किए जा रहे समझौते
22 फरवरी, 2011 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कण्डेय काटजू तथा ज्ञान सुधा मिश्रा की अदालत से लुधियाना के बलबीर सिंह, हरदीप एवं गुरमैल द्वारा काफी मारपीट के बाद किए गए सामूहिक बलात्कार की सजा-10 वर्ष व एक हजार जुर्माना से घटाकर करीब 3 वर्ष एवं जुर्माना बढ़ाकर 50,000/- प्रति व्यक्ति कर दी गई। इन तीनों को निचली अदालत एवं उच्च न्यायालय से भा.दं.सं. की धारा 376(2)(जी) के तहत देय न्यूनतम सजा 10 वर्ष दी गई थी। पीड़िता ने निचली दो अदालतों में अभियुक्तों के साथ समझौता नहीं किया था और वहां उसे न्याय मिला था। पर जैसे ही अभियुक्तों ने दो अदालतों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में ‘स्पेशल लीव टू अपील’ डाली और उन्हें मई, 2007 में 25-25 हजार के मुचलके पर जमानत मिली कि पासे पलट गए। पीड़िता को लगा होगा कि अब शायद उसकी हार हो जाए। ‘
विशेषाधिकार का उचित प्रयोग नहीं!
एक गरीब, अनपढ़ महिला की अत्यंत ही खर्चीली लड़ाई लड़ने वाला कौन था? एक तथाकथित समझौता लुधियाना में सितम्बर, 2007 में हो गया। विभिन्ननोट रीज एवं अलग-अलग तारीखों पर। ऐसा एफिडेविट सर्वोच्च अदालत में दाखिल होना चाहिए था- पीड़िता को कोर्ट में हाजिर होना था एवं जज साहब से रू-ब-रू होना भी। कारण गलत लोगों को खड़ाकर झूठे एफिडेविट फाइल कर फैसले लेना कोई नई बात नहीं है। फिर यह अपराध ऐसा है जिसमें समझौता नहीं किया जा सकता है और न ही सर्वोच्च न्यायालय को अपने विशेषाधिकार के तहत सजा कम करने का अधिकार है। फैसले में कहा गया कि दोनों पक्ष अपने-अपने यहां विवाहित एवं खुशहाल जीवन जी रहे हैं।
समाज में फैलता गलत संदेश
लड़की के जीवन पर क्या फर्क पड़ता था उनके जेल में रहने से। फर्क तो अभियुक्तों को पड़ता जो कि पड़ना भी चाहिए था। समाज को यही संदेश देना तो सर्वोच्च न्यायालय का काम है जो स्त्रियों, निरीहों एवं लाचारों का एकमात्र अभिभावक है। इस मुकदमे से जो संदेश जनता के बीच पहुंचा है वह है-यदि सर्वोच्च न्यायालय जाकर 50,000/- जुर्माना और सजा में छूट पाना है तो क्यों मुकदमा ही फाइल किया जाए- दो-दो अदालतों में जाकर पैसा, समय खर्च किया जाए- घटना घटते ही सौदा क्यों न कर लिया जाए-‘जैसे रेपिस्ट वैसा दाम’
दस्तावेजी सबूतों की हकीकत
दूसरा निर्णय है 24 नवम्बर, 2010 का। झारखंड के रामचंद्र भगत हजारीबाग जिला के चुर्चुर ब्लॉक के बी.डी.ओ. हैं। वे सुनीता कुमारी के साथ सन् 1980 से 1989 तक पति-पत्नी की तरह रहे। दोनों के दो बच्चे हुए। रामचंद्र ने विवाह करने का आवेदन दिया, स्टाम्प पेपर पर विवाह अनुबंध किया, तीन बार वोटर लिस्ट ने उन्हें पति-पत्नी की तरह अंकित किया गया। इन सम्बंधों के गवाह भी रहे। सुनीता कुमारी भी कृषि विभाग में कार्यरत हैं। पर 9 वर्षो बाद भगतजी नींद से जागे और कहा-मेरा तुमसे विवाह नहीं हुआ (हालांकि उनके उरांव समुदाय में सात फेरे नहीं, साथ रहना ही विवाह का परिचायक है) घर से बाहर निकलो।
कानून की यह समझ
सुनीता ने भा.दं.सं. की धारा 393 के तहत भगत जी पर मुकदमा ठोका कि उन्होंने उसे ब्याहता होने का झांसा देकर 9 वर्षो तक सम्बंध बनाया एवं दो बच्चे पैदा किये। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू द्वारा कहा गया कि यह ‘एक ‘अनजैन्टल मैनली’ व्यवहार है, सिर्फ मर्यादा का उल्लंघन है कानून का नहीं’। जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने इससे अलग राय बनाई और मामला दूसरी अदालत में चला गया है। (न जाने कितने ही फैसलों में अदालत से ऐसे मामलों में पत्नी के पक्ष में फैसले आए हैं, पर यहां नहीं)
निर्थक टिप्पणी की खानापूर्ति
तीसरा निर्णय 5 जनवरी, 2011 का है। इसमें महाराष्ट्र में एक जनजाति (एस.टी.) की भील महिला नंदाबाई के साथ गाली-गलौज, मारपीट कर 3 पुरुषों और एक महिला द्वारा नंगाकर गांव में घुमा गया। ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्तों को भा.दं.सं. के तहत एक वर्ष तथा एस.सी.एस.टी. एक्ट के तहत एक वर्ष की सजा दी। उच्च न्यायालय ने तकनीकी कारणों से एस.सी.एस.टी. एक्ट के तहत रिहाई दे दी और भा.दं.सं. के तहत सजा बरकरार रखी। मामला जब सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो न्यायाधीशों ने कहा- तकनीकी कारण पर एस.सी.एस.टी. एक्ट में रिहाई नहीं होनी चाहिए थी तथा भा.दं.सं. में सजा काफी कम है अपराध की गम्भीरता की अपेक्षा। भा.दं.सं. के तहत अधिकतम सजा 7 वर्ष है तथा एस.सी.एस.टी. एक्ट के तहत 5 वर्ष है।
न्याय के बजाय उपदेश
सर्वोच्च न्यायालय के पास संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत पूर्ण न्याय करने के लिए अबाध अधिकार है पर इस मुकदमे में तकनीकी कारणों की वजह से, कि राज्य ने अपील नहीं की या नंदादेवी ने खुद सजा बढ़ाने की प्रार्थना नहीं की, सजा को नहीं बढ़ाया या एस.सी.एस.टी. एक्ट के तहत सजा नहीं दी- बस, कहा गया- इस तरह की घटनाओं का तिरस्कार किया जाना चाहिए और (अपराधियों को) कड़ी सजा।’ पर जिनके पास ऐसा करने का अधिकार था उन्होंने ही सजा नहीं बढ़ाई तो अभियुक्त कैलाश, बालू एवं सुभाष का मनोबल क्यों नहीं बढ़ेगा और नंदाबाई एक बार और क्यों नहीं शर्म से मर जाएगी जबकि उसका कसूर इतना ही था कि वह अभियुक्तों के रिश्तेदार विक्रम से उसकी रजामंदी से सिर्फ प्यार करती थी, विवाह किया था और उनके दो बच्चे थे।
अधिकार के प्रयोग में नरमी क्यों?
21 अक्टूबर, 2010 को सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला डी. बेलूसामी बनाम डी. पचाईमल का आया। इसमें डी. पचाईयल ने भरण-पोषण की मांग बेलूसामी से की, कारण वह उसके साथ घर में कुछ वर्षो तक लगातार रही। उसके बाद बेलूसामी कभी-कभी ही आता रहा। पर यह यात्रा बनी रही। भरण-पोषण मांगने पर बेलूसामी ने कहा वह विवाहित है और उसका बेटा इंजीनियरिंग कॉलेज ऊटी में पढ़ता है। इसी फैसले का निर्णय करते हुए पाराग्राफ 34 में कहा गया-‘यदि एक व्यक्ति ‘रखैल’ रखता है और उसको आर्थिक मदद देता है तथा उसे मुख्यतया यौन संतुष्टि ही करता है या वह उसकी नौकर है तो यह रिश्ता, हमारे विचार में विवाह नहीं है।’ यहां ‘रखैल’ शब्द पर काफी र्चचा हुई और इस शब्द को हटाने के लिए ‘रिव्यू’ पिटिशन दाखिल किया गया। ये सारे फैसले स्त्रियों को कहीं से भी अपने प्रति सम्मान और अपराधियों के प्रति धिक्कार एवं कड़ी सजा का आभास नहीं दिलाते। उन्हें लगता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय उन्हें हाथ पसारने पर भी न्याय की भीख नहीं देता तो वे कहां जाएं। मेरा उद्देश्य उन फैसलों को नकारना नहीं है जिन्होंने स्त्री को अपनी गरिमा तलाशने, सशक्त करने में काफी साथ दिया है, पर ऐसे फैसलों से ज्यादा र्चचा उन फैसलों की होती है जो उनका मनोबल गिराते हैं।

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