Sunday, March 6, 2011

कहां गए कामगार महिलाओं के हक


महिला दिवस के 100 वर्ष पूरे हुए हैं तो महिलाओं को जायज़ा लेना है कि जो हक सैकड़ों वर्षों में हासिल किया था, उसमें से कितना बच पाया है। महिला दिवस का इतिहास श्रमिक महिलाओं के जुझारू संघर्ष की गाथा है, जो 20वीं सदी से शुरू हुई। न्यूयॉर्क में 1908 में हज़ारों औरतें 8 घंटे काम, बेहतर वेतन और मताधिकार की मांग के लिए उतरीं थीं। इसके बाद 1910 में कोपेनहेगेन में एकत्र 17 देशों की महिलाओं ने हर वर्ष महिला दिवस मनाने का निर्णय लिया। 1911 में लाखों महिलाएं विश्व भर में संघर्ष का बिगुल बजाने लगी थीं और प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व शांति के लिए अभियान भी महिला दिवस का एजेंडा बना। अब संयुक्त राष्ट्र ने 2011 के लिए नारा तय किया है : ‘शिक्षा, ट्रेनिंग, विज्ञान और तकनीकी में महिलाओं को बराबर अवसर-महिलाओं के लिए सम्मानजनक काम की कुंजी’। इस नारे से हम समझ सकते हैं कि आज फोकस है महिलाओं को देश के एक बड़े वर्क फोर्स में तब्दील करना। तभी महिला परिवार व देश की अर्थव्यवस्था में निर्णयकारी भूमिका अदा करेगी। वैश्वीकरण व मंदी के दौर में जिस किस्म के काम का विस्तार हो रहा है वह है गैर-परम्परागत काम, जिसमें महिलाओं की ज़रूरत है।
कुशल श्रमिकों के अधिकार पर हो जोर
दरअसल, यह फ्लेक्सिटाइम वर्क का दौर है, दौर है स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन्स और एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग ज़ोन्स का, बी.पी.ओ. और आउटसोर्सिग का, ‘कैजुअल’ श्रम का, गृह-आधारित उद्योगों का, निर्माण कार्य का, मनोरंजन और विज्ञापन का, तथा ब्यूटी बिज़नेस का, जहां सबसे अधिक महिला श्रमिक होंगी। आज देश के 94 प्रतिशत से अधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं और इनमें से 14.8 करोड़ महिलाएं हैं। पर कुशल श्रमिकों के अधिकार लगातार कम हो रहे हैं। इसे निश्चित ही महिला दिवस का एजेंडा बनाना होगा। शायद हम सबने सुना होगा कि कैसे देश के रेडीमेड कपड़ों का सबसे बड़ा उत्पादक तिरुपुर, आज सबसे अधिक आत्महत्याओं के लिए जाना जाता है। 8,000 यूनिटों के इस विशाल औद्योगिक इलाके में 2 वर्षों से हर माह 40-50 आत्महत्याएं होती रहीं क्योंकि वहां के श्रमिक गरीबी, अत्यधिक काम, कजऱ्, बदतर होती काम की स्थितियों और अधिकारों के हनन से परेशान होकर पत्नियों-बच्चों सहित अपने जीवन का अंत करना ही निजात पाने का रास्ता समझ रहे हैं। इलेक्ट्रानिक्स सामान निर्माता फॉक्सकॉन व अन्य एस.ई.ज़ेड. में, या वालमार्ट में, जहां महिलाओं की बड़ी संख्या है, लेबर कानून लागू करने की लड़ाई जारी है।
उपेक्षित हैं महिलाओं के हित
अभी जनवरी में नोकिया की श्रीपेरम्बुदुर (तमिलनाडु) स्थित कम्पनी में एक भयानक हादसा हुआ। अम्बिका नाम की एक श्रमिक का सिर लोडर मशीन के बाक्स में फंस गया जब वह उसे ठीक करने लगी। खून से लथपथ अम्बिका को बचाने की गुहार लगाते वर्करों को ‘पॉवर स्विच’ बंद करने नहीं दिया गया क्योंकि काम प्रभावित होता। अम्बिका की गर्दन और सिर कुचल गये और वह मर गयी। मजदूरों का कहना है कि ‘सबसे अधिक हैंडसेट बनाने वाला यह उद्योग अपनी मशीनों की मरम्मत तक नहीं करवाता जबकि कभी किसी की भी जान जा सकती है।’ फिर, बी.पी.ओ. में काम करने वाली महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या की कितनी घटनाओं के बाद भी इनके प्रति संवेदना नहीं बढ़ी है।
अमानवीयता-शोषण पर पर्दा डालने की कोशिश
आई.टी. क्षेत्र में 88 प्रतिशत युवतियां यौन उत्पीड़न सहती हैं- औरतों की सुरक्षा व जीवन से ऊपर है मुनाफा। मुनाफे की बात करें तो सेक्स वर्क एक बड़ा व कमाऊ उद्योग बन गया है। यहां एड्स का खतरा लगातार बना रहता है, और विडम्बना है कि अब सेक्स वर्क को वैधानिकता प्रदान करने के प्रयास से वेश्यावृत्ति की अमानवीयता और शोषण पर पर्दा डाला जा रहा है। वर्तमान समय में मेक्सिको, थाईलैंड, कम्बोडिया और ब्राज़ील, यहां तक कि भारत जैसे देश सेक्स टूरिज्म के लिए कुख्यात हो गए हैं। 2009 में हमारे देश में नेपाल से करीब 13 हज़ार लड़कियां सेक्स वर्क के लिए लायी गयी थीं। क्या हम इस पर चुप्पी साधे रहें? काम की दृष्टि से और एक व्यापक क्षेत्र है कृषि, जहां महिलाएं बड़ी तादाद में पहले काम पाती और करती रहीं। आज खाद्यान्न उत्पादन पर जोर घट रहा है और कॉमर्शियल यानी वाणिज्यिक या निर्यात के लिए खेती तथा हॉर्टीकल्चर पर जोर बढ़ रहा है। यह नतीजा है खेती और उससे जुड़े तमाम परम्परागत कामों में औरतों की भूमिका का नगण्य हो जाना। हालांकि कृषि संकट के गहराने से सैकड़ों कृषक परिवार आत्महत्या करने लगे जिसके कारण परिवार महिलाओं के कंधे पर चलने के लिए मजबूर हुए हैं। अधिकतर मामलों में विपन्नता के कारण पूरे के पूरे परिवार को पलायनकर ईंट भट्ठों व निर्माण कार्य के स्थलों पर काम ढूंढना पड़ा, जिसने महिलाओं को सबसे अधिक प्रभावित किया है। कृषि विकास की दर भी लगातार घट रही है। आज भूमि का उपयोग विशेष आर्थिक क्षेत्रों, बड़े उद्योगों, फ्लाईओवर, हवाई अड्डों, बड़ी विकास योजनाओं आदि के निर्माण के लिए होने की स्थिति है, और जंगल पर आदिवासियों तथा गरीबों का अधिकार खत्म होने की हालत में भी महिलाएं गरीब और असुरक्षित हो रही हैं।
कानून का संकीर्ण नजरिया
महिला श्रमिकों के लिए विस्तारित होने वाले क्षेत्र हैं निर्माण और घरेलू श्रम। घरेलू कामगारिनों की एक बड़ी संख्या (उपलब्ध ताजा आंकड़ों के अनुसार- 3,68,650 श्रमिक) दूसरे देशों में कार्यरत हैं। इनकी स्थिति दयनीय है, क्योंकि इनकी सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। यद्यपि भारत में कानून बन चुका है, यह अधिकारों की कम, कल्याण की बात ज्यादा करता है जिसके लिए कामगारिन को पैसे भी भरने होंगे। कानून के तहत यौन उत्पीड़न की अधिकतम सज़ा छ: माह का कारावास है, पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न विरोधी कानून इन पर लागू ही नहीं होता, जबकि मालिकों द्वारा जघन्यतम उत्पीड़न के मामले कई बार देश की राजधानी से आए हैं।
मनरेगा में भी महिलाएं ही ज्यादा कष्ट में
निर्माण के क्षेत्र में भी महिला मज़दूरों की संख्या लगातार बढ़ रही है और अब 1.5 करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है। बिना स्थायी घर, सड़क पर बच्चों को सुलाकर भी काम करती हैं ये। यौन शोषण तो काम के स्वभाव में निहित है और पुरुषों से हमेशा कम मज़दूरी मिलती है। नरेगा (अब मनरेगा) यू.पी.ए. सरकार की फ्लैगशिप स्कीम है, पर यहां भयंकर भ्रष्टाचार के चलते औरतों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। जॉब कार्ड मिल भी गया तो काम नहीं है, या मज़दूरी देने में घोर अनियमितताएं हैं। गांव में कठिन श्रम कर रही आंगनबाड़ी सेविकाओं तथा ‘आशा’ वर्करों को भी सरकारी कर्मचारी का दजऱ्ा नहीं दिया गया।
संघर्ष के लिए कसनी होगी कमर
2007 में असंगठित श्रमिकों के लिए देश में सामाजिक सुरक्षा कानून बना था। पर आज भी सामाजिक सुरक्षा कानूनी हक नहीं है, न ही इसके लिए वित्तीय प्रबंध है। 90 प्रतिशत श्रमिक गरीबी रेखा सीमा (बी.पी.एल.) के अंतर्गत आए नहीं तो वे तमाम योजनाओं से बाहर रहेंगे। इसकी प्रमुख वजह यह है कि इसमें अनिवार्य पंजीकरण का प्रावधान नहीं है और कानून का पूरा दारोमदार सलाहकार समिति के जिम्मे छोड़ दिया गया है। पर कब तक हम बिखरी हुई लड़ाइयों में फंसे रहेंगे? चुनौती है इस विशाल जनसंख्या के मुद्दों को राजनीति की मुख्यधारा में लाना, सो महिला दिवस एक दिन का जश्न नहीं, संघर्ष के लिए कमर कसने का दिन है।


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