Sunday, March 6, 2011

आगे बढ़ता महिलाओं का कारवां


इलाहाबाद के पास शंकरगढ़ विकास खंड में जूही की कोठी गांव है। नहर के किनारे एक छोटी-सी झोपड़ी के सामने फटे-पुराने कपड़ों में लिपटी कुछ महिलाएं और बच्चे जमा हैं। तभी एक महिला झोपड़ी से बाहर आती है। वहां उपस्थित सभी महिलाओं को डांटती है कि बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजा? फिर वह भीड़ अपनी समस्याएं बताती है, उनका समाधान किया जाता है। यह महिला और कोई नहीं, बल्कि नोबल पुरस्कार के लिए नामित हो चुकीं, दुईजी दाई हैं जो गरीब महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर रही हैं और उनके लिए संघर्ष कर रही हैं। बचपन से ही अन्याय का विरोध करती आई दुईजी बताती हैं कि 1995 में उन्होंने महिलाओं का समूह बनाया और पत्थर खनन का पट्टा लिया ताकि इनका शोषण न हो, उसी दौरान एक ठेकेदार ने आकर सभी महिलाओं को वहां से भगा दिया। जब उन्होंने सुना तो ठेकेदार के पास पहुंचीं और ठेकेदार ने जब गाली दी तो उसकी धुनाई भी कर दीं। आज वह शंकरगढ़ क्षेत्र के 100 गांवों की महिलाओं को नई राह दिखा रही हैं। 70 साल की उम्र में भी दुईजी में गजब की चुस्ती-फुर्ती है। कहा भी गया है- मंजिल उन्हीं को मिलती है जिनके सपनों में जान होती है। पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है। उन्होंने न तो वक्त का इंतजार किया और न ही हाथ पर हाथ धरे दूसरों को कोसा। वह चल पड़ीं अपनी धुन में और रास्ता बनता गया। पहला कदम कठिन होता है, दूसरा और तीसरा थोड़ा सरल, अगले कदम अपने आप उठते जाते हंै। वैसे भारतीय महिलाओं को पहला कदम उठाने के लिए बहुत मेहनत नहीं करना पडा। भारतीय स्ति्रयों का मुक्ति आंदोलन पश्चिमी धारणा से एकदम अलग रहा। भारत में कभी भी स्ति्रयों ने अपने मताधिकार के लिए पुरुषों के विरुद्ध मोर्चा नहीं खोला। स्वतंत्रता संग्राम की बात हो या समाज सुधार कंधे से कंधा मिलाकर महिलाएं पुरुषों के साथ लड़ती दिखीं। आज महिलाओं का दायरा वैश्विक हुआ है। उनकी कही बातों का असर सड़क से लेकर संसद तक दिखाई पड़ता है। फ्रांस की जोन ऑफ आर्क हों या ब्रिटेन की फ्लोरेंस नाइटिंगेल, भारत की तोरुदत्त हो या पोलैंड की मैरी क्यूरी। अमेरिका की हेलेन केलर हो या जापान की मदर नगाटा, रूस की वेलेंटीना तेरेश्कोवा या इजरायल की गोल्डा मायर। विश्व की हर प्रसिद्ध महिला ने बनाया है एक प्रेरक इतिहास। इन इतिहास के पन्नों को पीछे पलट कर देखें तो पता चलता है कि नारी की मुक्तिऔर उसे वर्तमान स्तर पर लाने के लिए न जाने कितनी जोखिम इन्होंने उठाया है। मुश्किल दौर वहां से शुरू होती है जब नारी घर की चारदीवारी में बंदी बना दी गई। चेहरे पर पर्दा आया और जुबान पर लगाम कसी गई। धीरे-धीरे महिलाओं की क्षमता को भी नकारा जाने लगा। फिर दिन आया 8 मार्च 1857 का, जब न्यूर्याक में कपड़े की मिलों की कामगार स्ति्रयों ने अधिक वेतन और काम के घंटे 15-16 से घटाने की मांग को लेकर एक प्रदर्शन किया। पूरे विश्व में महिलाओं का ये पहला प्रदर्शन था, जिसे उस समय के ट्रेड यूनियनों ने भी पंसद नहीं किया। किसी भी प्रकार के समर्थन के अभाव में यह आंदोलन पुलिस द्वारा कुचल दिया गया परंतु महिला इतिहास में यह एक लकीर खींचने में सफल रहा। इस प्रथम संगठित प्रदर्शन को ही महिला आंदोलन की प्रेरणा मानते हुए प्रत्येक वर्ष 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला संघर्ष दिवस मनाया जाने लगा। इसके तीन वर्ष बाद ही कपड़ा मिलों की महिला कर्मचारियों की अपनी अलग यूनियन बन गई। 1865 में अमेरिका में एलिजाबेथ मिलर, लुसी स्टोन आदि स्ति्रयों ने महिला आंदोलन को आगे बढ़ाया, एमेलिया ब्लूमट नामक एक पत्रकार ने जब ये मांग रखी कि स्कर्ट टखनों तक ही न होकर घुटनों तक भी रखी जा सकती है तो बहुत हो-हल्ला मचा पर इससे महिला आंदोलन को प्रचार भी मिला। जिसे प्रेरणा के रूप में लेकर दूसरे राज्यों में भी आंदोलनों को बल मिला। इसी समय इंग्लैड के हाउस ऑफ कॉमंस में स्टुअर्ट मिल ने जब महिला मताधिकार के पक्ष में अपना भाषण दिया तो उनका काफी तिरस्कार किया गया, लेकिन बाद में 1869 में ही टैक्स भरने वाली महिलाओं को नगरपालिका में वोट देने का अधिकार मिल गया। हालांकि इंग्लैंड में पूर्ण महिला मताधिकार के लिए महिलाओं को ज्यादा लंबे समय तक लड़ना पड़ा। विधानसभाओं और संसद के चुनाव में वोट देने का अधिकार उन्हें 1918 में जाकर मिला वह भी सीमित रूप में । 18 मार्च 1871 में हुई फ्र ांसीसी सैनिक क्रांति में जब सिपाहियों को पेरिस की जनता पर गोली चलाने का आदेश मिला तो महिला संगठनों द्वारा ही उसे रुकवाया गया। पेरिस कम्यून के समय 10 हजार महिलाएं पुरुषों की तरह लड़ी थीं। इस बीच इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस में अधिकाधिक स्ति्रयां उच्च शिक्षा प्राप्त करके आगे आई और उन्होंने महिलाओं के सामाजिक आंदोलन में भाग लिया। 1869 में हेग में महिलाओं की एक युद्ध विरोधी अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस हुई। 1910 में समाजवादी महिलाओं की एक कांफ्रेंस में पहली बार 8 मार्च का दिन महिला संघर्ष दिवस के रूप स्वीकार किया गया। 8 मार्च 1913 को जार के रूस में महिलाओं ने सड़कों पर जुलूस निकाला और विरोधी नारे लगाए। 1914 में बर्लिन में रोज लक्जेमबर्ग की गिरफ्तारी के विरोध में पेरिस की स्ति्रयों ने प्रदर्शन किया। आंदोलन में गति लाने के लिए विश्व युद्धों का भी प्रभाव रहा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद महिला आंदोलन में गति आई और महिलाओं द्वारा युद्ध विरोधी नारे सारे यूरोप में गूंजने लगे। मार्च 1923 में हजारों स्ति्रयों ने पेरिस की सड़कों पर प्रदर्शन किया। जर्मनी में हिटलर के शासनकाल में सब लोगों के साथ स्ति्रयां भी अपनी स्वतंत्रता खो बैठीं, फिर भी उन्होंने हिटलर शासित देशों में पर्चे बांटने और विरोधी आंदोलनों में भाग लिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आंदोलन ने गति पकड़ा। 1945 में पेरिस में वूमेन इंटरनेशलन डेमोके्रटिक फेडरेशन की स्थापना हुई और आंदोलन को वैश्विक स्तर पर चलाने का निश्चय हुआ। 1946 में युद्ध पीडि़त बच्चों की सहायता के लिए सहायता सप्ताह मनाया गया। 1946 से 1966 तक अगले 20 वर्ष अधिक सरगर्मियों के रहे। महिला मताधिकारों की लड़ाई के साथ निरस्तीकरण और शांति के पक्ष में भी जोरदार आवाज ने विश्व को प्रभावित किया। 1980 के कोपनहेगन में विश्व महिला सम्मेलन में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर कुल 48 प्रस्ताव पारित हुए। इसमें 145 देशों की भागीदारी रही। 1995 में चीन की राजधानी बीजिंग में तृतीय महिला सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें बीजिंग घोषणा के रूप में जो निर्णय लिए गए वे विश्व स्तर पर बालिकाओं और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उनकी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए महत्वपूर्ण हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष का नारा था- समानता, विकास और विश्व शांति। हमारे यहां महिला दिवस संघर्ष दिवस न होकर प्रेरणा दिवस के रूप में मनाया जाता है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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